बीता सप्ताह तनिष्क के विज्ञापन के नाम रहा। ‘एकत्वम’ नाम से नयी ज्वेलरी श्रृंखला के विज्ञापन के लिए वाकई बहुत अच्छा मौजू चुना गया था। यह विज्ञापन देखकर जिन्हें अच्छा लगा उन्हें अच्छा लगना ही था। जिन्हें इसे देखकर गुस्सा आया, जिनका खून खौल गया, भुजाएं फड़क उठीं, हिन्दू होने का भाव जाग गया, तन-बदन में आग लग गयी उनके साथ ऐसा ही होना था। जिन्हें यह विज्ञापन अच्छा लगा उनमें हिन्दू-मुस्लिम-सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन और नास्तिक सब होंगे। जिन्हें बुरा लगा वो केवल हिन्दू थे, यह बात पुख्ता ढंग से कही जा सकती है। जिन्हें इस विज्ञापन में कुछ भी नागवार नहीं गुज़रा उनके बारे में यह अटकलें लगायी जा सकती हैं कि ये अपने-अपने धार्मिक समुदायों में अल्पसंख्यक हों।
धर्म और कट्टरता, धर्म और संकीर्णता के बीच एक स्थायी संबंध है जिसे राजनीति हवा देती है और कट्टरता या संकीर्णता धर्म को धकेल कर आगे आ जाती है। वरना कौन सा धर्म है जिसमें इस एकत्वम की शिक्षा न हो? बहरहाल…
इस विज्ञापन में हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना में लगे कुछ ‘विकट’ हिंदुओं को ‘लव जिहाद’ दिखलायी दे गया। असल में उन्हें और भी बहुत कुछ दिखलायी दे गया। कोई कह सकता है कि इस विज्ञापन से मुसलमानों की भावनाएं क्यों आहत होतीं? उनका क्या बिगड़ गया इससे? ज़ाहिर है, हिंदुओं को ही बुरा लगना था सो लगा और उसका इज़हार हुआ। मुसलमानों को तो इससे फायदा ही होना था- हिन्दू लड़कियों को अपने धर्म में मिलाने की उनकी मुहिम कामयाब होते जो दिखलायी गयी।
‘लव जिहाद’ इस देश में गब्बर सिंह की तरह एक काल्पनिक पात्र है। गब्बर सिंह 1975 में पैदा हुआ था और टॉकीजों में देखा गया था। उसका खौफ़ और उसकी बेखौफ़ हंसी पीढ़ी दर पीढ़ी स्थायी स्मृतियों में दर्ज़ होती जा रही है। ‘लव जिहाद’ 2000 के बाद देश की कल्पना में एक परियोजना के तहत डाला गया। गब्बर को सलीम-जावेद की जोड़ी ने रचा था। ‘लव जिहाद’ को गुजरात में राजकीय संरक्षण में रचा गया और तमाम संगठनों व प्रचार माध्यमों से अधिकांश बहुसंख्यक हिंदुओं की स्मृतियों और कल्पनाओं में दर्ज करा दिया गया।
इस तरह की धार्मिक लेकिन वर्गीय एकता दिखलाने वाला यही एक विज्ञापन तो नहीं है। और भी कई आए-गए। आगे भी आएंगे, लेकिन इसमें दरअसल उन्हें वैसा मुस्लिम परिवार दिख गया जो इनके द्वारा गढ़ी गयी छवि से एकदम उलट है। एक पढ़ा-लिखा, रईस, साफ-सुथरा मुसलमान परिवार जिसमें शराफ़त है, नफ़ासत है, अदब है, जो आश्वस्त करता है कि यहां सब सुरक्षित हैं, परिवार के सभी सदस्यों में शालीनता है, आपस में मोहब्बत है और दूसरों की खुशियों की कदर है और यहां तक है कि किसी दूसरे धर्म में प्रचलित सांस्कृतिक रिवाजों को भी अपना लिया जा सकता है। भावना भी इस कदर भरोसा देती है कि ‘बेटी को खुश रखने की रस्म तो हर घर में होती है’। बहू को बेटी की तरह प्यार कर सकने का यह इत्मीनान देता हुआ ऐसा एक मुस्लिम परिवार जिसे कई दशकों के अथक प्रयासों से लोगों की स्मृतियों और कल्पनाओं से बेदखल किया जा चुका था, इस विज्ञापन के मार्फत फिर से लोगों के सामने आ गया। ‘विकट’ हिंदुओं को यह भी कम नागवार नहीं गुज़रा।
इस विज्ञापन को कैसे लिया जाएगा; इसे कहां से कैसी प्रतिक्रिया मिलेगी; यह बात विज्ञापन बनाने और उस पर अनुसंधान करने वालों को पहले से पता नहीं होगी, यह कहना कतई ठीक नहीं। हम जानते हैं कि विज्ञापन बनाने वाले समाज के मनोविज्ञान का सबसे अच्छा अध्ययन करने में माहिर होते हैं। ‘एकत्वम’ की भावना को दिखाने के लिए इसके उलट भी विज्ञापन बनाया जा सकता है। उसका भी विरोध और समर्थन होता, हालांकि बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से जिस एक अल्पसंख्यक होते जा रहे तबके को ये विज्ञापन पसंद आता उन्हें इसके उलट भी पसंद आता और विरोध भी शायद उसका भी उतना ही हुआ होता। विरोध भी उन्हीं की तरफ से आता जिनकी तरफ से अभी आया।
मुस्लिम लड़की किसी हिन्दू परिवार की बहू बने और उसकी सास उसे बेटी की तरह प्यार करे और इतना करे कि उसके मज़हब में मनायी जाने वाली किसी रस्म को सरेआम अपना ले, संभव है यह आज के दौर में असंभव-सा लगे। आखिर जब हिंदुओं की राजनीति करने वालों ने यह ठान लिया है कि दुनिया में हिंदुओं को एक नफ़रती कौम बनाना है, तब उस परियोजना में भावुकता या मानवीय संबंधों की सहजता का ऐसा मुजाहिरा कैसे संभव हो?
हमें याद रखना है कि ऐसे संबंध समाज में वर्षों से चले आ रहे हैं, मौजूद हैं और आगे भी रहेंगे। हां, इनका इज़हार शायद उत्सवी न हो। ऐसे मामलों में शायद औसत परिवार इस कदर उत्सवी नहीं होता। संकोची होता है। मन से भले ही वो अलग मजहब से आयी बहू को भरपूर प्यार दुलार दे पर उसके लिए इस कदर उत्सव रचाना एक वर्गीय मसला भी है। और ये दोनों नहीं बल्कि हर तरफ है।
इस विज्ञापन ने मुसलमानों के ऐतिहासिक वैभव को सामने लाकर भी हिंदुओं की भावनाओं को चोट पहुंचायी है। इसलिए शिकायत या विरोध का महज़ एक कारण नहीं है कि एक हिन्दू लड़की को मुस्लिम परिवार की बहू के रूप में दिखलाया गया है, बल्कि इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि वर्षों से प्रचार तंत्र और अथाह धन लगाकर बनायी बल्कि बिगाड़ी गयी छवि को पुराना वैभव देने की कोशिश इस ऐड में हुई है। ऐसे परिवार की बहू कौन लड़की न बनना चाहेगी? डर इस बात का भी कम नहीं रहा होगा। बाखुदा, हिन्दू लड़कियों में अगर ऐसे अरमान जाग ही गये तब क्या होगा?
तनिष्क ने ऐसा ऐड बनाकर, उसे दिखाकर, फिर वापस लेकर क्या खोया-पाया? एक खबर है कि तनिष्क के व्यापार में इजाफा हुआ। एक और खबर है कि इससे तनिष्क का तो पता नहीं, लेकिन विदेश में देश की छवि पर काफी नकारात्मक असर हुआ। यह भी कहा जा रहा है कि टाटा ने जोखिम नहीं लिया, बल्कि सरेंडर कर दिया। अगर वह ऐड वापस नहीं लेते तो भी क्या हो जाता?
इसमें कई लोग टाटा की महानता में कसीदे भी पढ़ रहे हैं। उन्होंने पीएम केयर फण्ड्स में कितना पैसा दिया यह भी बतलाया जा रहा है। वो कितना चुनावी फंड देते हैं इसके भी चर्चे हैं और समाज सेवा में, गरीबों के हित में कितनी संपत्ति दान कर दी, इसके भी किस्से चल रहे हैं। अंतत: अपने कर्मचारियों, स्टोर और कानून व्यवस्था का हवाला देते टाटा का इस तरह से अच्छे इरादों को ‘विकट’ हिंदुओं के समक्ष हथियार डाल देना कई लोगों को अच्छा नहीं लगा।
उद्योग जगत में टिकने के लिए महज़ मशीनरी और मानव संसाधनों को अद्यतन किया जाना ज़रूरी नहीं है, बल्कि अपने नज़रिये को ज़्यादा से ज़्यादा लचीला बनाये रखने का निरंतर अभ्यास भी ज़रूरी है। टाटा ने इस विज्ञापन को दिखाने और हटाने की अल्पावधि के अभ्यास से मौजूदा सत्ता के लिए एक बहुत ठोस सर्वे का काम किया है। देश में सहिष्णुता मापने का सबसे प्रामाणिक मापक यंत्र फिलवक्त हिन्दू-मुस्लिम एकता ही है। इसे बेहद मुलायमियत भरे लहजे में दिखाइए और असर का आकलन कीजिए।
प्रचार तो तभी शुरू हो गया था जब विज्ञापन स्क्रीन पर आया। अब हटा लेने के बाद भी वह स्क्रीन पर सुर्खियां बना रहे हैं, यह है बिजनेस। देश का सबसे जागरूक, जिम्मेदार और प्रगतिशील तबका जिसके लिए स्वैच्छिक काम करे; उसे अपना डीपी बनाये; स्टेटस पर लगाये; प्रोफाइल बना ले; लोग लेख लिखें; चैनलों पर बहस हो और प्रोडक्ट के अलावा टाटा की विरासत, उसकी दरियादिली, उसके सामाजिक सरोकार आदि सब पर स्वत:स्फूर्त चर्चा और विमर्श हो- इस तरह रातोंरात तनिष्क महज़ एक ब्रांड से उठकर राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बन जाएगा यह शायद विज्ञापन बनाने वाली एजेंसी ने भी नहीं सोचा होगा। किसी ब्रांड का एक नयी इमेजिनेशन में बदल जाना इस विज्ञापन की ऐसी ताक़त है जिसे आने वाले समय में प्रबंधन और विज्ञापन के विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम में पढ़ाये जाने की सिफ़ारिश मैं भी करना चाहूंगा।
क्या आप इसे दूर की कौड़ी मानेंगे कि टाटा ने खुद डरने का अभिनय करके न केवल अपने ब्रांड को हिंदुस्तान की चेतना में बदल दिया और अपने डरने के अभिनय से देश के आमोखास नागरिक को यह संदेश भी दे दिया है कि डरना ज़रूरी है। यह सबकी भलाई में है- स्टाफ, स्टोर और कानून व्यवस्था सबके। मुनाफे के भी, लेकिन उन्होंने शायद यह कहा नहीं।
कोई इस तुलना पर हंस सकता है, लेकिन क्या टाटा ने ठीक अमिताभ बच्चन की तरह अभिनय नहीं किया जो उन्होंने मुंबई के मशहूर नानावती हस्पताल में 15-20 दिन गुज़ार कर किया और बजाफ़्ता वीडियो बनाकर यह अपील भी की कि आप भी कुछ दिन यहां गुजारिए। देखिए, क्या तो केयर मिलती है यहां, यहां की नर्स, डॉक्टर्स और अन्य स्टाफ कितने अच्छे हैं, साफ-सफाई कितनी अच्छी है, आदि। बिलकुल उसी तर्ज़ पर टाटा ने अपने इस कदम से और डर जाने के अपने अभिनय से पूरे देश को यह संदेश दिया है कि ऐसी एकता का खयाल दिल से निकाल दीजिए। और ऐसे मुसलमानों की छवि को भी अपनी कल्पनाओं से मिटा दीजिए जहां मुस्लिम परिवार इतना सभ्य, सुसंस्कृत, शालीन और रईस हो। संक्षेप में- तनिष्क प्रकरण की नैतिक शिक्षा यह है कि डरना ही इस दौर में जीने का सुभीता है। डर के आगे नहीं, डर में ही जीत है।