बात बोलेगी: साजिशों के गर्भगृह में चयनित आस्थाओं का खेल


“ये जो मैगी है न? बहुत खराब चीज़ है। शुद्ध मैदा है। आंतों में चिपक जाता है। इसे बिलकुल नहीं खाना चाहिए”- अपनी सिगरेट से राख़ झाड़कर एक लंबा कश खींचते हुए और वापिस अपने व्हिस्की के पैग से एक लंबा घूंट हलक में उतारते हुए एक दोस्त ने ये कहा। जिस दूसरे दोस्त ने सुना, उसने भी जल्दी जल्दी दो-चार कश खींचे और कहा- ‘’सही कह रहे हो दोस्त। ये मैगी बहुत नुकसान करती है वाकई। इसे तो बैन कर दिया जाना चाहिए”। कल तक यह संवाद महफिलों में जोक क्रैक करने के काम आता था। अब इसका इस्तेमाल दिल्‍ली में कल हुई घटना के लिए किया जा सकता है।

क्या चीज़, कब, कैसे, किसके लिए, क्यों नुकसानदेह है? इसे समझ लेने की ज़रूरत है। कल अचानक ही पूरा देश, देश की मीडिया और यहां तक कि भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आधिकारिक ट्रोल्स एक साथ कुछ पलों के लिए विशुद्ध अहिंसावादी और विकट धर्मनिरपेक्ष हो गए। अच्छा लगा देखकर कि किसी बहाने ही सही, इन्हें भी ये लगता है कि देश के गणतन्त्र को पल्लवित होने के लिए दो मूल्यों की सख्त ज़रूरत है -अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता। देर आए, दुरुस्त आए। हृदय परिवर्तन होना क्या इसे ही कहा जा सकता है?

मुगलों के बनाए लाल किले को देश की अस्मिता से जोड़ने, तिरंगे की शान की इस कदर परवाह करने, हिंसा के किसी भी रास्ते की इस कदर मुखालफ़त करने और अंतत: गणतंत्र की गरिमा के लिए इस कदर फिक्रमंद होने के तेवर और जलवे जब उनकी तरफ से आए, तो लगा अब देश के लोकतंत्र और गणतंत्र पर बीते 100 साल के दौरान की गयी साज़िशों से उत्पन्न संकट जाता रहा। साज़िशों के गर्भगृह ने उन मूल्यों को शिरोधार्य कर लिया है जिनसे एक भूगोल परिपक्व लोकतंत्र में आकार लेता है।

किसान आंदोलन की बदनामी की कीमत पर भी अगर देश के धुर दक्षिणपंथ की राय अपने देश, देश के लोकतंत्र और गणतंत्र के प्रति बदली और उन्हें वाकई हिंसा की घटनाएं देखकर ग्लानि हुई, तिरंगे के कथित अपमान को लेकर उनकी जुबान खुलीं और लाल किले जैसी ऐतिहासिक धरोहर को लेकर उनके मन में श्रद्धा का भाव जागा तो यकीन मानिये ये सौदा घाटे का नहीं है।

लेकिन यह सौदा मुकम्‍मल होने से पहले एक ख्वाब की मानिंद टूट गया जब देर शाम यानी घटना के कोई 3-4 घंटे बाद ही यह बात सप्रमाण बल्कि आत्मस्वीकृति के साथ बाहर आ गयी कि घटनाओं के इस पुंज को अंजाम देने वाला शख्स भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से गहरे तौर पर संबद्ध है। ये बात अलहदा है कि दीप सिद्धू नाम के इस शख्स ने भी माना कि उसने राष्ट्रीय ध्वज की शान में कोई गुस्ताखी नहीं की है, बल्कि उत्तेजना के उन क्षणों में भी इस बात का ख्याल रखा कि निशान साहेब का झण्डा तिरंगे से नीचे ही रहे।

इस बयान पर भी दिल प्रसन्न ही हुआ कि चलो, संघ से दीक्षित इस बंदे के अंदर अब भी नागरिक भाव जिंदा है। इससे उसकी संघ दीक्षा पर हालांकि नकारात्मक असर हुआ है। संभव है कि संघ की सदस्यता से उसे हाथ धोना पड़ जाए- जैसा कि उसके तात्कालिक आका गुरदासपुर से भाजपा सांसद सनी देओल ने अपने ट्वि‍टर पर उससे पल्ला झाड़ भी लिया। लेकिन बंदे ने साबित कर दिया कि संघ और भाजपा के लोगों में अब भी एक जिम्मेदार नागरिक बन सकने की संभावनाएं हैं। और मनुष्य है ही क्या? संभावनाओं का पुतला?

तिरंगे को लेकर जो बेचैनी कल देखी गयी उसने भी मन को आह्लादित ही किया। हमें इस मौके पर देश के कुशल उद्यमी और कॉर्पोरेट जगत के जाने-माने लेकिन विवादित नाम यानी श्री नवीन जिंदल के प्रति आभारी होना चाहिए जिनकी दूरदर्शिता ने तिरंगे को इस कदर सार्वजनिक बहस में लाया। यही वो धरती के महान प्राणी हैं जिन्होंने देश की सर्वोच्‍च अदालत में इस बात की पैरवी की थी कि तिरंगा देश की शान है और हर व्यक्ति को इसे कभी भी, कहीं भी, कैसे भी फहराने, लहराने और सहलाने का मौलिक अधिकार दिया जाय। इससे देश में देशभक्ति की भावना प्रज्‍ज्‍वलित होगी। उस ज्वाला से देश की तरक्की का स्टोव जलेगा और उसके ताप से जीडीपी के भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन पकेंगे; आयात-निर्यात के बीच संतुलन पैदा होगा; चुनावी राजनीति को एक धार मिलेगी और देश को एक मजबूत सरकार मिलेगी। एक ऐसी सरकार जो दुश्मन को इस लायक भी न समझेगी कि उसका नाम लिया जाए। इससे उपभोक्ताओं के अंदर एक आंतरिक अध्यात्म पैदा होगा और वो भौतिक क्षुद्रताओं से विरत हो जाएंगे। फिर उनके लिए महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, पलायन, विस्थापन, हत्याएं, बलात्कार आदि गौण बातें हो जाएंगीं और देश विकास के नारे पर सवार होकार सरपट गति से दौड़ेगा।

इस पैरवी और दलीलों में छिपे आंतरिक भाव को सबसे पहले संघ ने समझा। यहां आप देश का सघन ताना-बाना देख सकते हैं जहां दो पार्टियों के बीच विचारधारा आड़े नहीं आती। नवीन जिंदल कांग्रेस से सांसद थे। आज भी कांग्रेसी हैं। पक्के वाले। खैर, संघ ने मामला समझ तो लिया लेकिन खुद कैसे थापे इस तिरंगे को, जिसे उसके पूर्वजों ने अपशगुनी कहा था? जिसे पैरों तले रौंदा था? जिसे आज़ादी और गणतंत्र की स्थापना के 52 वर्षों तक अपने कार्यालय पर चढ़ने नहीं दिया था? जिससे प्रधान सेवक ने हाल ही में अपना पसीना पोंछा था?

यह तो थूककर चाटने वाली बात हो जाती। इसलिए तिरंगे का इस्तेमाल पहली दफा एक चुनी हुई लोकप्रिय सरकार के खिलाफ जनमत बनाने के लिए किया गया। अन्ना का साथ, केजरीवाल का हाथ और मीडिया का स्वार्थ- इन्होंने तिरंगे की शरण में जाकर घोषणा कर दी कि अब से जब तक देश में एक मजबूत सरकार नहीं आ जाती तब तक देश भ्रष्टाचार के खिलाफ रहेगा। उसके बाद इस शब्द की सार्वजनिक जीवन में कोई ज़रूरत नहीं रहेगी।

जिन्हें 2012-13 और आधा 2014 याद है वे जानते हैं कि इसी तिरंगे ने देश में ऐसे बदलाव लाये कि 2015-16-17-18-19 आते-आते तिरंगे ने हर किसी की रक्षा के कवच की तरह खुलकर काम किया। जो काम कोई नहीं कर सकता था तिरंगे ने वो सब किया। तिरंगा अब सड़कों पर पूरी तरह एक मजबूत सरकार के पक्ष में लाया जा चुका था। तिरंगे की शान में गुस्ताखी किए बगैर कुछ घटनाओं का ज़िक्र यहां समीचीन होगा। मसलन, कश्मीर में एक बच्ची के साथ दुर्दान्‍त, बर्बर अत्याचार हुआ। किसी आम नागरिक में हिम्मत थी जो ऐसे अत्याचारियों के पक्ष में जा खड़ा होता? अगर कोई हिम्मत करता भी तो यह देश उसे भी अत्याचारी कहता लेकिन यहां काम आया तिरंगा। तिरंगे के साथ भारतमाता की जय की हुंकार ने न केवल उस बच्ची के गुनहगारों के समर्थन में रैली निकाली बल्कि उन रैलियों की अगुवाई ऐसे व्यक्तियों ने की जो संविधान की शपथ लेकर जनता की नुमाइंदगी विधानसभा में कर रहे थे।

कुलदीप सिंह सेंगर, शंभुलाल रैगर, चिन्मयानंद जैसे प्रथम दृष्टया अपराधियों के पक्ष में कौन खड़ा हो सकता था भला? यह भी तिरंगे के ही बूते था। यहां भी उठा तिरंगा। और क्या उठा! शंभु लाल रैगर, जिसकी महान उपलब्धि यह थी कि उसने एक मज़लूम मुसलमान को जिंदा जला दिया था और उसका वीडियो बनाकर धर्मध्वजा का मान बढ़ाया था, उसके लिए तो तिरंगे ने वह काम भी किया जो खुद उसकी शान के खिलाफ था। जयपुर के न्यायालय परिसर में, मुख्य इमारत के शीर्ष से उसको उतार लिया और संघ के झंडे को शीर्षस्थ होने दिया। यह उदारता का नया प्रतिमान था जो तिरंगे ने हासिल किया।

जब दादरी लिन्चिंग केस के आरोपी का शव तिरंगे में लपेटा गया था…

तिरंगे की दास्तान इतनी ही नहीं है। इसने देश को जाति, वर्ण, मजहब से ऊपर उठकर केवल दो ध्रुवों में बाँट दिया – राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी। जो काम देश की संसद, न्यायपालिका न कर सकीं वो काम तिरंगे और उसे थामने वाले हाथों ने कर दिया। गणतंत्र में समन्वय और सामंजस्य की कई चुनौतियां अब सिमट रही हैं। आंतरिक दुश्मनों की पहचान बहुत आसान कर दी है तिरंगे ने। जिसके हाथ में तिरंगा, वो राष्ट्रवादी। दूसरे हाथ में भगवा, वो परम राष्ट्रवादी। जिसके हाथ में केवल तिरंगा लेकिन दिमाग में तर्क, वो विचाराधीन राष्ट्रवादी और जिसके हाथ में तिरंगा नहीं, दिमाग में तर्क, वितर्क, विज्ञान, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतन्त्र आदि हों वो परम राष्ट्रद्रोही। अब गणतन्त्र को अपनी मजबूती के लिए इस तीसरे श्रेणी के व्यक्ति को टाइट करना होगा। बहरहाल।

कल देश के 72वें गणतंत्र का प्रभात कुछ ऐसे आया जैसे पहली दफा आया हो। गणतंत्र की राजपथीय परेड बोझल हो गयी क्योंकि इंतज़ार किसी और का था। दिल्ली को कुछ और देखने की ललक थी। करीब करीब 5-6 लाख ट्रैक्टर्स, इतने ही किसान और उनके समर्थक। दिल्ली की तयशुदा सड़कें। सड़क के दोनों तरफ हाथों में फूल लेकर खड़े लोग। क्या ही दृश्य थे। लगा कि किसान गणतंत्र पर अपना असली हक़ जताने आए हैं। गणतन्त्र उन्हें प्यार से अपना रहा है। इन दृश्यों से देश की मीडिया में बेचैनी बढ़ती जा रही थी। दस बजते न बजते मीडिया को मसाला मिलना शुरू हुआ। मीडिया का विशेष ज़िक्र यहां इसलिए क्योंकि उन्हें केवल दिल्ली वालों को नहीं बल्कि देश वालों को कुछ ऐसा दिखाना था जिससे लगे कि कुछ हुआ। उन्हें इतिहास लिखना था। इतिहास शांति का नहीं युद्धों का लिखा जाता है। मीडिया को युद्ध की विकट दरकार थी।

26 जनवरी को दोपहर 12 बजते बजते युद्ध की कवरेज शाया होने लगी। मीडिया में उत्तेजना बढ़ने लगी। तिरंगे ने फिर पाला बादल लिया। किसानों के हाथों में तिरंगा शांति का इतिहास रचता, लेकिन इस एक दशक में तिरंगे को भी बिना उन्माद इस्तेमाल पर पाबंदी मिल चुकी है। तिरंगा, वाटर कैनन, आँसू गैस के गोलों ने ऐसे ऐसे दृश्य रचे कि जिनमें कई जायज सवाल आँसू गैस के धुएं, एंकर-एंकराओं की आवाज़ की धौंकनियों में पीछे छूट गए।

मसलन, गणतंत्र दिवस के दिन राजधानी में अगर किसी भी प्रकार से कानून-व्यवस्था बिगड़ती है तो उसकी ज़िम्मेदारी केवल और केवल देश के गृह मंत्रालय की है। शांतिपूर्ण किसान मार्च में जो विचलन आए उसके लिए अगर समन्वय में कमी रह गयी तो यह पुलिस की तरफ से हुई, क्या पुलिस ने यही चाहा और होने दिया?

दीप सिद्धू ने जब खुद आकर स्वीकार कर लिया तो किसानों को क्लीन-चिट दी गयी? और जिस सवाल को लेकर देश का आदर्श सवर्ण मध्य वर्ग, जो कम से कम सिनेमाहाल में तिरंगे की आरती करता ही है, उसकी भावनाओं को अगर लाल किले पर निशान साहब के झंडे से गहरी पीड़ा पहुंची तो उसी पीड़ामीटर यंत्र की रीडिंग क्या रही जब राजपथ पर भव्य राम मंदिर का नक्शा झांकी की शक्ल में यहां से वहां डोल गया? तब उसकी धर्मनिरपेक्षी आस्थाओं का क्या हुआ जब देश का प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति भव्य राम मंदिर के विशुद्ध धार्मिक और मज़हबी काम के लिए सार्वजनिक तौर पर चन्दा दे रहा था?

आस्थाएं इतना चयनित क्यों हैं? यह एक ऐसा सवाल है जो कल निरुत्तर रह गया, जिसे आज पूछा जाना चाहिए।



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