बात बोलेगी: ‘नये भारत’ के नागरिकों के लिए क्यों न एक भयदोहन कोष बनाया जाए!


‘चंदे के पैसे से जलपान करना’ भारतीय समाज में कोई नयी बात नहीं है। वर्षों से चली आ रही एक अशिष्ट परंपरा है। यह एक आवश्यक बुराई है, जो बस होती है। यह दो रुपये से लेकर दो हजार करोड़ तक हो सकती है। अभी मामला 18 करोड़ को लेकर सुर्खियों में है। उत्तर भारत में महाराष्ट्र से आये गणपति और बंगाल से आयी दुर्गा के अनियंत्रित होते पंडालों की संख्या में इस सर्वस्वीकृत चलन का बड़ा योगदान है। गली-गली, गाँव-गाँव, कस्बों और नगरों में जिस गति से गणपति और दुर्गा के पंडालों की संख्या बढ़ी है उसके पीछे अन्य जो भी धार्मिक, आनुष्ठानिक या आध्यात्मिक प्रेरणाएं हों लेकिन चंदा एक अनिवार्य प्रेरणा है।

चंदा चीज़ ही ऐसी है कि देने वाला अपना दायित्व समझता है और लेने वाला अपनी ज़िम्मेदारी। मांगने वाला मांगता है, देने वाला देता है और दोनों को यह लगता है कि उसे देना चाहिए था और उसे मांगना चाहिए था। वैसे तो अपंजीकृत संस्थाओं को चंदा देना, इस धरती के क़ानूनों के अनुसार समुचित ऑडिट न होना और लेखा-जोखा का सार्वजनिक न होना अपराध की श्रेणी में आता है, बल्कि कानूनी भाषा में इसे ‘एक्सटॉर्शन’ यानी ‘अवैध वसूली’ कहा जाता है। बात चाहे अवैध वसूली की हो या अवैध खनन अथवा वनों की अवैध कटाई और ज़मीनों की अवैध खरीद-बिक्री की, इस देश में ये सब सर्वस्वीकृत है। यह जानकर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि इसी संप्रभु देश की संसद में यूपीए के कार्यकाल में तब के खनन मंत्री यह बयान देते हैं कि देश में 90 प्रतिशत खदानें अवैध रूप से चल रही हैं। इस बयान को आगे बढ़ाने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि मंत्री जी ने क्या किया इन अवैध खदानों को रोकने के लिए? लेकिन रुकिए! आप हिंदुस्तान में हैं। यहां प्रकृति का मोल मिट्टी के बराबर है। गोया मिट्टी कहीं भी कोई बना सकता हो।

किसी से पलटकर पूछिए कि भाई देश के तमाम उद्योगपतियों से कहिए न कि अपनी उन्नत तकनीकी से कहीं एक किलो मिट्टी बना कर दिखा दें, तो भौंहें सिकोड़ लेंगे। पता है कोई नहीं बना सकता, लेकिन प्रकृति को संसाधन बनाकर उसे अवैध ढंग से बेचा जरूर जा सकता है। उससे बेतहाशा मुनाफा कमाया जा सकता है। देखा जाय तो यह भी एक अवैध काम ही है। प्रकृति को अपना मूल्य तय करने दिये जाने की सहूलियत इन सौदों में भी होना चाहिए। जैसे इस देश में फैलायी गयी तमाम असुरक्षाओं से सुरक्षा का आश्वासन पाने के लिए चंदे की रकम का निर्धारण होता है। अब तो खैर इस मामले को वर्षों बीत गये और जो कुछ भी अवैध था उसे वैधता जैसी सुरक्षा प्राप्त हो चुकी है। अब तो जवाब देने की भी ज़रूरत नहीं है मंत्रीजी को।

चंदे के धार्मिक महत्व का आकलन थोड़ा मुश्किल है, लेकिन इसका आर्थिक महत्व बहुत है। चंदे पर सबका अधिकार होना ही इसे ऐसा बना देता है कि इस पर किसी का कोई अधिकार नहीं रह जाता, सिवाय उनके जिनके मार्गदर्शन में चंदा उगाही अभियान चलाये जाते हैं। अगर चंदे का यही हश्र होना था जो हाल ही में राम मंदिर के मसले में उजागर हुआ तो राम मंदिर न्यास के लोगों को कम से कम उनसे माफी मांग लेनी चाहिए जिनसे यह वसूला गया और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर देनी चाहिए जिन्होंने स्वेच्छा से दिया क्योंकि इसका इस्तेमाल उस काम के लिए नहीं हुआ जिसके लिए यह वसूला गया था। स्वेच्छा से देने वालों को यह अच्छी तरह पता है कि ऐसे चंदे का क्या होता है इसलिए उनके प्रति कृतज्ञता या आभार व्यक्त किया जा सकता है।

ऐसे मामलों में स्वेच्छा से चंदा देने वालों को मंदिर ट्रस्ट वाया भाजपा वाया राष्ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ वाया विश्व हिन्दू परिषद पाकिस्तान से और देश में मुसलमनाओं की आबादी से उत्पन्न हो सकने वाले आसन्न खतरे से सुरक्षा का वचन निहित है। यह चंदा असुरक्षा का भय दिखाकर लिया जाता है और देश का बहुसंख्यक हिन्दू खुद को असुरक्षित मान लेने के कारण चंदा दिया करता है। इसके अलावा इसका एक समाजशास्त्रीय पक्ष भी है कि समाज में चंदा देने वाले की धाक बन जाती है। महज़ पाँच सौ या ग्यारह सौ देकर उन्हें इन विराट संगठनों की सदस्यता मिल जाती है। इससे उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिल जाता है।

कायदे से सरकार को एक भयदोहन कोष बना देना चाहिए और ऐसे तमाम चंदों से अर्जित या वसूली गयी रकम को उस कोष में डाल देना चाहिए। जब-जब लोगों में भय की मात्रा कम हो इस कोष से कुछ रकम निकालकर व्यापक प्रचार-प्रसार में लगा देना चाहिए कि हिन्दू खतरे में है। खतरे में होने की अवस्था में मानुष सुधबुध खो बैठता है, फिर उसका मनचाहा इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर मनुष्य देश का नागरिक है या एक अदद मतदाता है तो उसका मत स्वत: इन संगठनों को प्राप्त हो जाता है।

भयदोहन कोष के निर्माण से हालांकि और भी कई रचनात्मक काम किये जा सकते हैं, मसलन आइटी सेल के लोगों की सामाजिक सुरक्षा हेतु एक बड़ा अंश लगाया जा सकता है। व्हाट्सएप चालन हेतु कई चाइनीज़ मोबाइल खरीदे जा सकते हैं। जिन हाथों को काम नहीं दिया जा सकता उन्हें मोबाइल दिये जा सकते हैं। बाद में इसे सीएमआइई के डेटा में शामिल कराकर बेरोजगारी का कम होना बताया जा सकता है। ज़रूरी तो नहीं कि मंदिर के लिए वसूले गये चंदे से मंदिर से सम्‍बन्धित काम ही हो। जैसे पीएम केयर्स से भी ज़रूरी तो नहीं हुआ कि केवल कोविड संबंधी काम ही हुए। कोष एक, काम अनेक। फिर मंदिर के लिए माहौल बनाये रखना भी ज़रूरी है।

जब मंदिर बन जाये तो इस कोष को मंदिर मरम्मत कोष में तब्दील कर दिया जाय और आवधिक मरम्मत के लिए निश्चित समयावधि पर लोगों का भयदोहन कर वसूल किया जाता रहे। राजस्व अर्जन की निरंतरता भी बनी रहेगी और लोगों में भय की प्रवृत्ति भी बनी रहेगी। इससे बनते हुए हिन्दू राष्ट्र के लिए यथेष्ट नागरिक बने रहेंगे।

इस पूरे मामले में ठीकरा उन लोगों पर फूट रहा है जो सनातनी नहीं हैं या हैं, लेकिन इस सौदे पर सवाल उठा रहे हैं। उनसे पूछा जा रहा है कि तुमने क्या एक भी पाई इस चंदे में दी है? अगर नहीं दी तो सवाल उठाने की जुर्रत कैसे की? ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि उन्हें पता है कि जिसने चंदा दिया है और जो सनातनी है उसने सवाल उठाने की क्षमता और अधिकार को इस भयोत्पादक सरकार के समक्ष गिरवी रख दिया है।

सवाल इसलिए भी उचित है कि सनातनी इस सरकार से सवाल नहीं पूछते, बल्कि इसका बचाव करते हैं। पहले की सरकारों में ऐसा नहीं था, बल्कि किसी भी सरकार में ऐसा नहीं रहा। तो इस भयदोहन कर के जो करदाता हैं वो इस बनते हुए ‘नये भारत’ के सुयोग्य नागरिक हैं जिन्हें संयोग से सनातनी और चंदा देने वाला भी कहा जा रहा है। इनका स्वागत कीजिए।

नये भारत की विशिष्टताएं हर रोज़ ज़ाहिर हो रही हैं। यह हाल में उजागर हुआ लक्षण है। फेहरिस्त और लंबी होगी। इंतज़ार करें।


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