‘पापड़ी चाट’ जिन्होंने केवल खायी है, उसे बनाते हुए नहीं देखा लेकिन बनाकर बेचने वाले की फुर्ती और उसकी जल्दबाज़ी देखी है उन्हें लग सकता है कि इन दिनों संसद में जो कानून बन रहे हैं वो पापड़ी चाट बनाने जैसा काम हो गया है। अब यही बात अगर कोई पापड़ी चाट बनाने वाला कहता तो उसके कहने में शायद यह झलकता कि जिस सात सवा सात मिनट में हम पापड़ी चाट बनाते हैं वो किसी तपस्या से कम नहीं है- वर्षों का संचित अनुभव, कौशल, इल्म और हुनर लगता है तब जाकर सात मिनट में एक पापड़ी चाट बनकर तैयार होती है, इसलिए इसकी तुलना संसद में बिल पारित करने जैसी हल्की बात न करो!
दिलचस्प है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह बात बहुत नागवार गुज़री है कि संसद की कार्यवाही की तुलना पापड़ी चाट से कैसे कर दी। उधर पापड़ी चाट वाले मुंह फुलाये बैठे हैं कि उनकी तुलना संसद की कार्यवाही से क्यों कर दी। अब बात तो दोनों की सही है। नरेंद्र मोदी को बड़ा दिल दिखलाना चाहिए था। आखिर पापड़ी चाट बनाना एक पेशा है। कौशल है। हुनर है। निवेश है। छोटा ही सही। यह एक रोजगार है जो आपके बेरोजगारी के आंकड़ों को एक पर्दा देता है जिसका बखान आप खुद संसद के हर सत्र में करते हैं और आपके प्रवक्ता हर रोज़ टीवी डिबेट में करते हैं।
पापड़ी चाट बनाने वाला हालांकि यह नहीं जानता कि वह आपके कितने काम का है। अगर वाकई जानता होता तो वो खुद आपको बताता कि इसमें बुरा मानने जैसा कुछ नहीं है। पापड़ी चाट के ठेले पर खड़े लोग तो उसे पापड़ी चाट बनाते हुए देखते भी हैं, लेकिन आपके विधेयक कहां बनते हैं? कौन बनाता है? ये तो आप भी नहीं जानते। आपकी मंत्रिपरिषद तो खैर क्या ही जानेगी। पापड़ी चाट वाला हमेशा खाने वाले को अच्छा खिलाना चाहता है। वह बार-बार बताता है कि ताज़ा मसालों से बना है, माल फ्रेश है। वे बासी नहीं खिलाते और डिब्बाबंद भोजन तो आजकल डॉक्टर वैसे भी मना करते हैं। सोचिए, जब डिब्बाबंद चाट खाने से लोग बीमार पड़ सकते हैं तो ऐसी गुमनाम जगहों पर बने विधेयकों से देश का क्या हाल होगा?
देश के यशस्वी प्रधानमंत्री जिस पृष्ठभूमि से खुद को आया हुआ बताते हैं उससे यह तजुर्बा उन्हें ज़रूर होगा कि अपने यहां बासी या ताज़ा माल का क्या महत्व है। मिसाल के लिए, चाय की पत्ती को अगर कई-कई बार उबाला जाए तो वह अपच और अजीर्ण के विकार पैदा कर सकती है। इसलिए चाय के ठेले पर खड़े लोग यह पूछना नहीं भूलते कि भाई! नयी चाय पत्ती डाले हो न? देखिए, जगह कोई हो, दुकान कोई हो, इंटरप्राइज़ कोई भी हो, माल ऐसा होना चाहिए जो उपभोक्ताओं को पसंद आये, उनके लिए लाभकारी हो। आजकल टेलीविज़न पर संसद को इंटरप्राइज में तब्दील करके दर्शकों को समझाया जा रहा है कि देखिए ये रहा आउटपुट- 12 दिनों में महज 10 घंटे संसद चली, देश के करदाताओं का कितना पैसा डूब गया। एक घंटे का खर्चा ढाई करोड़ होता है यानी लगभग 30 करोड़ रुपये बर्बाद हो गये और देश को मिला क्या? क्या ऐसे कोई इंटरप्राइज़ चल सकती है? कभी सोचा है कि आपका पैसा कौन बर्बाद करता है? भाजपा प्रवक्ता तपाक से इसका जवाब देता है- विपक्ष!
बहस शुरू होने से पहले ही खतम होने की तरफ जा चुकी होती है। जब उत्तर मिल चुका है तब बहस से क्या हासिल होगा? इस तरह टेलीविज़न का एक घंटा बर्बाद हो चुका होता है। “एक घंटे के टीवी शो का कितना खर्चा होता है? कभी सोचा है? जो कंपनियां इन कार्यक्रमों को स्पांसर करती हैं उनके पास पैसा कहां से आता है? एंकर/एंकराओं की धज का पैसा कहां से आता है? इन्हें जो तनख़्वाहें मिलती हैं उसकी मार किस पर पड़ती है? कोई चाट पापड़ी वाला तो इन्हें विज्ञापन नहीं देता न? तो जान जाओ, कि इस पूरे तामझाम का खर्चा भी हमारी आपकी जेब से ही जाता है। दुनिया में कहीं भी किसी भी प्रकार के धन के सर्जक हम सब हैं- मतलब हम सब साढ़े सात अरब लोग। एक टीवी शो के शुरू होने से पहले खत्म हो जाने से हम सब के धन की हानि होती है”!
खयाल में आता है कि ये सब बातें विपक्ष के प्रवक्ता को कहना चाहिए, लेकिन वे लगते हैं संसदीय भाषा में बात करने। चाट पापड़ी वाले की तरफ से कोई बोलता ही नहीं!
कमाल तो ये है कि इस नागवार गुज़री तुलना से बुरा मानकर आज चली संसद में दो बिल कुछ टू मिनट मैगी की स्टाइल में पास करा दिये गये। इतना ही बुरा लगा था तो इस काम से तौबा करना चाहिए था न? ऐसा भी क्या बुरा लगना कि फिर-फिर वही काम करो और बुरा लगने वाली बात कहने का मौका भी देते रहो? अदना-सा इंसान भी जानता है कि एक बार किसी ने किसी गलती या चाल-चलन पर रोक-टोक दिया तो उस चीज को दोहराना नहीं चाहिए, फिर आप तो महामानव हैं! मायावी शक्तियों से लैस! आपसे इस तरह गलतियों की पुनरावृत्ति कैसे हो सकती है?
आज कई लोग बहुत ही अवैज्ञानिक बातें कर रहे थे। ये जानते हुए भी कि आप देश के विज्ञान मंत्री भी हैं और कहीं आप आज टोकियो में चल रहे ओलंपिक का महिला हॉकी का सेमीफाइनल तो नहीं देख रहे हों, मैच के दौरान एक ऐसा क्षण आया जब अर्जेन्टीना की टीम ने दूसरा गोल दागा तो लोग 7 लोक कल्याण मार्ग में बिजली चले जाने की कामना करने लगे। कमजर्फ थे सब। क्या उन्हें इतना भी पता नहीं होगा कि ऐसी जगहों पर बिजली नहीं जाती। या चली भी जाती होगी तो कई-कई तरह के बिजली बैक-अप होते होंगे। कल भी ट्विटर पर इसी तरह की वैज्ञानिकता पसरी रही। टॉप ट्रेंड कर गयी। बताइए, विज्ञान मंत्री की चिकोटी क्या ऐसी अवैज्ञानिकता से काटी जा सकती है? या एक प्राचीन विश्वगुरु और संप्रति विशाल लोकतंत्र के नागरिकों का आचरण ऐसा होना चाहिए? कदापि नहीं!
लेकिन सवाल फिर वही है कि शुरू किसने किया? अच्छा-खासा लोग अपने-अपने कामों में मशगूल था। चैन से हंस बोल रहे थे। साइकिल वाला, मोटरसाइकिल के ख्वाब देख रहा था; मोटरसाइकिल वाला कार के; कार वाला (ट्रक, बस या ट्रेन का ख्वाब नहीं, हर चीज़ में पैटर्न नहीं खोजना चाहिए) बड़ी कार का सपना देख रहा था। लोग निवेश कर रहे थे। दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की के सपने वाले उसी सब में मसरूफ़ थे। आपने आते ही छेड़ दिया उन्हें। नोटबंदी, जीएसटी, अविवेकी लॉकडाउन, देश की संपत्ति को बेच-बेच कर लोगों में ऐसा अनिश्चय भर दिया कि लोगों ने ख्वाब देखना ही छोड़ दिया। आपने ऐसा खलल डाला उनके ख्वाबों में कि अब उन्हें कुछ नहीं सूझता। यहां तक कि चाट पापड़ी खाना भी नहीं। पुराने जमाने के शायर लोग कहा करते हैं किसी के ख्वाबों में खलल डालना हत्या से कम अपराध नहीं है। आपने हत्या कर दी उनके ख्वाबों की।
अब वे सड़क पर हैं एक मोबाइल लिए। बस! क्या करेंगे? यही करेंगे। आप कुछ बोलोगे तो वो नुक्स निकालेंगे। आप खुद को ‘नसीबवाला’ कहेंगे तो वे आपको पलट के ‘पनौती’ कह देंगे और इस तरह के नागरिकों से अपेक्षित संसदीय आचरण भी आपके आइटी सेल वालों के जैसा हो जाएगा। फिर आपको बुरा लगेगा लेकिन आप फिर वही काम करेंगे जिससे लोग इस तरह आपके बारे में बोलें और आपको फिर बुरा लग जाए। आप वही गलती दोहराएंगे और लोग भी दोहराए हुए को फिर दोहरा देंगे। इस तरह यह चक्र-कुचक्र चलता रहेगा। विपक्ष जिम्मेदार बना रहेगा। पक्ष बुरा मानते हुए देश का बुरा करते रहेगा।
अच्छा एक बात और! पापड़ी चाट वाले की चाट में अगर स्वाद न हो तो वह सारा दोष अपने सर माथे ले लिया करता है। पुरानी चाट पापड़ी को दोष नहीं देता। आपकी देखादेखी आपके दल के एक इंसान ने, जो आजकल एक प्रदेश में मंत्री हैं, कह दिया कि इस बढ़ी हुई महंगाई के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिया गया 15 अगस्त 1947 का भाषण जिम्मेदार है। बताइए, उन्होंने नेहरू को नहीं बल्कि उनके भाषण को दोष दे दिया। वो भी जानते हैं कि नेहरू के दोषारोपण पर आपका एकाधिकार सुरक्षित है।
अब जिन लोगों ने 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि का वो भाषण पढ़ा है वो कहते घूम रहे हैं कि उसमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे 73-74 वर्षों बाद महंगाई बढ़ा देने की कोई साजिश रची गयी हो। अब इसके जवाब में लोग कुछ कहेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा। फिर आपको भी बुरा लगेगा और फिर आप हर चीज़ के लिए उसी भाषण को दोष देने लगेंगे ताकि लोग कुछ कहें और आपको बुरा लगे।
जहां तक सब जानते हैं, कोई बुरा महसूस करने के लिए इस तरह प्रधानमंत्री नहीं बनता। आप भी नहीं बने होंगे। तो क्यों बार-बार ऐसा करते हैं? अच्छा कीजिए कुछ, तो लोग भी अच्छा बोलेंगे। आप भी अच्छा महसूस करेंगे। है कि नहीं?