फैज़ साहब से माफ़ी के साथ इस शेर का इस्तेमाल उनके लिए किया जा रहा है जिसे लोगों ने व्यक्तिगत रूप से बेइंतिहा प्यार किया। इतना कि अगर किसी दोस्त ने, हमदर्द ने, भाई ने, बहिन ने, पिता ने, माँ ने, राह चलते किसी मुसाफिर ने, इस महबूब के बारे में कुछ ऐसा कहा जो आपको पसंद नहीं आया तो उससे वो पुराने से रिश्ते न रखे। रिश्तों में एक अनकही दरार तक पैदा करने वाले ऐसे महबूब से दिल लगाने के बाद आज शायद उन्हें भी वह सब दिखलायी देने लगे जो कल तक एक लफ़्ज़ बुराई का नहीं सुनना चाहते थे। इतना प्यार और ऐसी कमिटमेंट शरीरी ही नहीं, हक़ीक़ी तौर पर भी प्राय: जम्हूरियत में देखने को नहीं मिलती।
इस महबूब से मिलने से पहले तक लोग अनिवार्य तौर पर सबसे पहले अपनों के लिए वफादार होते थे। उनके कहे पर कान देते थे, उनके ख्यालों को तवज्जो देते थे और सही गलत को इस पैमाने पर आंक कर देखते थे कि अंतत: अपना है, कोई गलत सलाह तो न देगा। ये रवायत बदली और ऐसी बदली कि दुनिया की मशहूर और प्रभावशाली पत्रिका तक ने इसे नोटिस किया, हालांकि नये तरह से और नये आभूषणों से महबूब को नवाज़ा। आप सभी को बधाई। यह भले केवल एक व्यक्ति के बारे में, उसकी उपलब्धियों के बारे में हो, पर इस पर हक़ आप सब का है। मेहनत भी आप सब की है। इस व्यक्ति के पीछे कितनों की ताक़त है। कितनों ने इसे सिर आँखों पर बैठा रखा है। बधाई उन सबको भी।
इस महबूब को आज टाइम मैगज़ीन ने दुनिया के 100 ताकतवर लोगों की अपनी फेहरिस्त में इस बिनाह पर शुमार किया है कि ‘’यह जम्हूरियत में रहते हुए भी अकेले सरकार चला कर दिखा सकता है।‘’ इस पर किसी आलोचना का कोई फर्क नहीं पड़ता। यह ऐसे फैसले लेता है जिसका जोड़ हाल फिलहाल के इतिहास में किसी तानाशाह में भी नहीं मिलता। इसने सामासिक संस्कृति और बहुलतावाद के लिए दुनिया में प्रेरणा रहे हिंदुस्तान जैसे देश को गहरे अंधेरे में पहुंचा दिया है।
टाइम मैगजीन के संपादक ने खुद इनके बारे में लिखा है कि ‘’नरेंद्र मोदी ने सबको संदेह के घेरे में ला दिया है। मुसलमानों को निशाना बनाकर बहुलतावाद को नकारा है। महामारी उनके लिए असंतोष को दबाने का साधन बन गयी है और दुनिया का सबसे जीवंत लोकतन्त्र और गहरे अंधेरे में चला गया है।‘’
टाइम मैगज़ीन के संपादक लार्ज कार्ल विक ने लिखा है कि ‘’एक लोकतन्त्र के लिए मूल बात केवल स्वतंत्र चुनाव नहीं हैं, चुनाव केवल यह बताते हैं कि किसे सबसे ज़्यादा वोट मिले। लेकिन इससे ज़्यादा महत्व उन लोगों के अधिकारों का है जिन्होंने विजेता को वोट नहीं किया।‘’
टाइम मैगज़ीन के संपादक ने ‘डिवाइडर इन चीफ़’ के बारे में किसी भारतीय से नहीं लिखवाया, बल्कि बाकलम खुद मोर्चा लिया है। अब ट्रोल्स के लिए बड़ी चुनौती यह है कि आतिश तासीर की जगह लार्ज कार्ल विक के सामने हिन्दुत्व का लोहा कैसे मनवाया जाए। इसे दुनिया में डंका बजना भी माना जा सकता है, बशर्ते अब तमाम आशिक़ों को यह हलफ़ देना होगा कि हमने अपने महबूब से यही तो चाहा था। होगा तुम्हारे लिए ये बदनामी का सबब, पर हमारे लिए यही उपलब्धि है।
और क्या चाहिए? आखिर जिस दिशा में काम किया है उसकी चर्चा अब गैर की महफिलों में पहुँच गयी न? और आपको क्या लगता था कि भारत सरकार के लेटरहेड पर रिपब्लिक ऑफ इंडिया की जगह भारत एक हिंदुराष्ट्र लिख दिये जाने से दुनिया जान जाती क्या? दुनिया को अगर टाइम मैगज़ीन ने ही बता दिया, तो इसका मतलब यही न हुआ कि जिसे हमने जिस काम के लिए चुना उसने वह काम पूरी शिद्दत से किया।
अगर बरसीं और कपिला पशु आहार के मिश्रण से खुराक न बन पा रही हो तो ट्रोल्स मेरी सेवाएं ले सकते हैं। बदनामी को नामी-गिरामी में बदलने का हुनर हमें भी आता है। और हम चाहते हैं कि आप इस ख्याति को ऐसे ही पेश करें ताकि आपके महबूब का मनोबल न टूटे और वह ज्यादा ताक़त से अपने इस मिशन में जुड़े रहें। जब टाइम ने कह ही दिया है कि उन्हें किसी की परवाह नहीं, तो यही तो उनकी ताक़त है।
मज़ेदार बात यह है कि इस सूची में शाहीन बाग की दादी बिलकीस बानो को भी जगह मिली है और वो इसलिए कि उसने जम्हूरियत की हद में रहते हुए इस व्यक्ति के मंसूबों के खिलाफ़ अपने नागरिक अधिकारों का दृढ़ता से पालन किया। यह शेर और बकरी के जंगली कानून के दो सिरों का मिलन है जो एक ही सूची में जगह पा रहा है। बिलकीस के बारे में जो फीचर लिखा गया, वो राणा अयूब ने लिखा है और क्या खूब लिखा है।
इससे ट्रोल्स को हालांकि थोड़ा सुविधा मिली है कि लार्ज कार्ल विक की जगह राणा अयूब की तरफ आइटी सेल की दुनाली मोड़ी जा सकती है। इसमें लिखा है कि ‘’बिलकीस ने अधिनायकवाद की तरफ तेज़ी से फिसलते जा रहे देश में, अलोकप्रिय सच बोलने के कारण जेलों में धकेले जा रहे एक्टिविस्टों और छात्र नेताओं को उम्मीद और ताक़त दी और देश की औरतों को शाहीनबाग जैसा ही शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने की प्रेरणा दी है।‘’
जिसके लिए अपनों से कन्नी काटी और अपने ही घरों में, दोस्तों में, दफ्तरों में खुद को देशद्रोहियों या टुकड़े-टुकड़े गैंग या सिकुलर या लिब्राण्डु जैसे पतितों से घिरा पाया, आज की इस उपलब्धि पर उन्हें गर्व तो होगा ही। बस, बिलकीस दादी ने ज़ायका खराब कर दिया। नाम तो दोनों का हुआ। फिर क्या फ़र्क पड़ता है गर एक का नाम ‘बदनामी’ है और दूसरे का ‘संघर्ष’!
कल ही यह बात सामने आयी थी कि नरेंद्र मोदी ने कितने देशों की कितनी यात्राओं पर कितना सरकारी धन बर्बाद किया। देश के महालेखाकार इस पैसे के सदुपयोग को टाइम मैगज़ीन के लिखे रूपी आउटकम की तरह देखें और अपनी रपट में इसका खास उल्लेख करें कि जिन प्रयोजनों से दुनिया की यात्राएं की गयी थीं, उनका संज्ञान दुनिया ने लिया है और नरेंद्र मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने हैं जिन्हें इस तरह के अलंकारों से नवाज़ा गया है। हेन्स प्रूव्ड दैट फण्ड्स यूटिलाइज्ड प्रॉपरली!
इस बीच में कहीं आयुष्मान भाई भी सूची में जगह पा गये और उन्हें भी इसलिए जगह मिली कि एक प्रोफेशनल इंटरटेनर होने के बावजूद उनके सामाजिक सरोकार मुखरता से प्रकट होते हैं। वो स्टीरियोटाइप को तोड़ते हैं। आयुष्मान अपने सामाजिक सरोकारों से देश के इस आयु-वर्ग और पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
बताइए, आयुष्मान ने भी कश्ती वहीं डुबो दी जहां पानी कम था। स्टीरियोटाइप के धातु को गलाकर जिस महबूब के कपड़े सीये जाते हों, समाज में हर स्तर पर नफरत के लैंपपोस्ट गाड़े जाते रहे हों, ये बंदा उसी धातु से समाज में बराबरी, मोहब्बत और दोस्ती की रेलगाड़ी बनाने में सफल हो गया। धिक्कार तो भाई अब ऊपर से आएगा कि क्या झक मार रहे थे! सारा ध्यान एसएसआर पर लगाओगे तो यही होगा! आयुष्मान सेंध मार कर भाग गया। और तो और वहीं मारा जहां पहले से चोट थी!
आज तो भाई मुख्यधारा की मीडिया की खैर नहीं और आइटी सेल की भी नहीं। चूक तो हुई है और गंभीर हुई है। सरदार शाबाशी तो नहीं देगा, बरखुरदार।