ज़िंदगी, अभिनय, मंच, भूमिका जैसे शब्दों को लेकर बहुत अच्छे फलसफे रचे गए हैं। शेक्सपियर से लेकर मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा और रंगमंच की दुनिया में इन कुछ अल्फ़ाज़ को मिलाकर खूब दृश्य और संवाद रचे गए। दर्शकों, पाठकों को उन सभी दृश्यों ने बहुत अंदर तक खुद से कनेक्ट किया। खतो-किताबत में, भाषणों में, आपसी बातचीत में, आपसी मान-मनुहार में इनका धड़ल्ले से उपयोग हुआ। अपनी बात को कहने के लिए इन अल्फ़ाज़ से बनी पंक्तियों या वाक्यांशों का अकसर सहारा लिया गया।
इनमें सबसे रूढ़ हो चुका बयान हम सब जानते हैं, कि ज़िंदगी एक विराट रंगमंच है और यहां सभी की अपनी-अपनी भूमिका है। हमें उसे निभाना है और मंच छोड़कर चले जाना है। अभिनय जो होता है, असल में हकीक़त और अफ़साने के बीच की एक महीन डोर पर चलता है। अभिनय करने वाले को पता है कि वो अभिनय कर रहा है। देखने वाले को पता है कि वो अभिनय देख रहा है। जो हो रहा है वह वास्तव में हो नहीं रहा है। होने का अभिनय है। फिर भी अभिनेता और दर्शक दोनों अपनी-अपनी भूमिकाओं में कहीं किसी जगह ऐसे डूब जाते हैं जहां असल जिंदगी और अभिनय के बीच का फासला खत्म हो जाता है और दोनों के बीच एक तादात्म्य स्थापित हो जाता है। यहीं पहुँचकर कला अपनी श्रेष्ठत्ता साबित कर लेती है। यह उत्कर्ष, कला का अभीष्ट हो जाता है।
इस फलसफे का फैलाव हमारे वास्तविक जीवन में इस कदर है कि अब हमें इसका अनुभव लेने किसी कला-दीर्घा में जाने की ज़रूरत नहीं है। नाट्यशास्त्र में कहा जाता है कि एक अच्छा प्रेक्षक वह है जो नाटक देखते हुए भी यह जान रहा हो कि यह नाटक किया जा रहा है। नाटक करने वाले इस विधा में प्रशिक्षित होते हैं। उनके भाव-विन्यास ‘सीखे हुए का प्रदर्शन’ है। वह अपने चरित्र से उतनी ही दूर हैं जितना एक प्रेक्षक उस नाटक के मंचन से। अगर आप उसमें डूब गए और उसे वास्तविकता मान बैठे तो आप कला के अच्छे रसिक नहीं हैं बल्कि आप महज़ एक भावुक इंसान हैं। सहृदय नहीं। सहृदय होने की अर्हताएँ हैं, जिसके लिए आपको अपने से परे देखने की सलाहियत सीखना होती है। सहृदय हो पाना भी एक सतत प्रशिक्षण का हासिल है। इसके लिए हमें अपने जीने और जिये जाने को तटस्थ भाव से देखने की काबिलियत अपने अंदर पैदा करना पड़ती है।
अपने से परे यानी जिसे फिल्मांकन की भाषा में ‘एरियल व्यू’ कहा जाता है- में पारंगत होना कतिपय मुश्किल तो है, लेकिन इतना भी नहीं कि आप इसे हासिल न कर पायेँ।
नाट्यशास्त्र में ही एक प्रयोग पर अकसर चर्चा होती है जिसमें एक दादा अपने पोते के साथ भूत का खेल, खेल रहा है जहां दादा भूत बन जा रहा है। वह अपने चेहरे के भाव बदलता है। आँखें बाहर निकाल लेता है। हाथों की भंगिमाएँ बदल लेता है। अपनी चाल में जबर्दस्ती कुछ भुतहा भाव लाने की चेष्टा करते हुए पोते को डराने की कोशिश करता है। पोता भी डरने का अभिनय करता है। कुछ देर तक स्थिति यूं ही चुहल में चलती रहती है। फिर दादा अपनी उसी भाव-भंगिमा में स्थिर हो जाता है। अब पोता अपने दादा को वापस पाना चाहता है, लेकिन दादा है कि अब भी भूत बना हुआ है। बच्चा बेतहाशा डर जाता है क्योंकि अभिनय की एक अवधि होती है। अभिनय जब वास्तविकता बन जाये तब बच्चे, जो मन से निश्छल होते हैं वो डर जाते हैं, वयस्क जो हैं वो शुरू में डरते हैं फिर बेपरवाह हो जाते हैं।
हिंदुस्तान और पूरी दुनिया में आधुनिक सभ्यता का सबसे बड़ा रंगमंच है राजनीति। इसकी मौजूदगी हर व्यक्ति की ज़िंदगी में कई स्तरों पर है। कोई इस मौजूदगी को पहचान लेता है। अधिकांश लोग इसे पहचानने की चेष्टा नहीं करते या उन्हें गैर-ज़रूरी लगता है या वो अपनी ज़िंदगी की जद्दोजहद में इस कदर जूझते रहते हैं कि उन्हें इसकी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वो उस शक्ति को जानें जिससे उनकी ज़िंदगी का संचालन हो रहा है।
आम दर्शक यानि एक नागरिक सीधा मंच पर हो रहे नाटक के दृश्य देखता है। उसके पीछे जो रिहर्सल चला, कलाकारों को जो प्रशिक्षण मिला, कहानी या नाटक कैसे लिखा गया, किसने लिखा, किसके इशारे पर ये कलाकार अभिनय कर रहे हैं, इस सब से उसे कोई मतलब नहीं होता। यह मतलब न रहना ही राजनीति के इस नाटक की सफलता है, वरना सारे दर्शक आलोचक हो जाएंगे और हर उस बात से, हर उस पहलू से वास्ता रखने लगेंगे जो उस विराट नाटक को रचे जाने के पीछे काम कर रहा था। यहां राजनीति के नाटक मात खा जाएंगे।
एक कोरा भावुक इंसान नाटक में डूब जाता है। वह रोते हुए कलाकार के साथ रोने लगता है। हँसते हुए के साथ हंसने लगता है। जिसे नाटक में विलेन बताया गया, वह उसे ही विलेन मानने लगता है। एक तरह के सम्मोहन में कैद होकर वह उस निर्देशक के इशारे पर चलने लगता है। यहां निर्देशक केवल अपने प्रशिक्षित कलाकारों को ही नहीं बल्कि दर्शकों को भी संचालित करने लगता है।
इसी दर्शक दीर्घा में बैठे लोग जिन्होंने एक सहृदय प्रेक्षक होने की काबिलियत पा ली है, उस निर्देशक के इशारे पर चलने से इंकार कर देते हैं। नाटक में उनका हस्तक्षेप शुरू हो जाता है। अब निर्देशक को और कलाकारों को भी पता चलने लगता है कि कुछ दर्शक हैं जो उनके अभिनय में बिना कुछ बोले भी दखल दे रहे हैं। वे उन पर नज़र रख रहे हैं। उनकी नज़र में ऐसा कुछ है जिससे मंझे हुए कलाकार भी कई बार विचलित होने लगते हैं। नाटक चलता रहता है। हस्तक्षेप भी चलता रहता है। इससे कला भी समृद्ध होती है, नाटक भी, अभिनेता या कलाकार भी, निर्देशक भी और अंतत: दर्शक भी। ऐसे कुछ सहृदय दर्शकों/प्रेक्षकों के बिना कला की यात्रा पूरी नहीं होती।
हमारे जीवन में राजनीति के विराट रंगमंच पर अब ऐसे सहृदय प्रेक्षकों की भारी कमी होती जा रही है। इसीलिए राजनीति के नाटक का पूरा संचालन एक निर्देशक के हाथों में आ गया है। हमने दखल लेने की अर्हताएँ खो दी हैं। अब हम केवल दर्शक हैं। जो दिखाओ, हम देख लेंगे। जो सुनाओ, हम सुन लेंगे। मीडिया इस राजनीति के रंगमंच का प्रस्तोता है। कल वह अमिताभ बच्चन की सुबह की पहली टट्टी के बारे में बता रहा था, हमने देख लिया। उन्हें अच्छी नींद आयी, हमने सुन लिया। सचिन पायलट के साथ अन्याय हुआ, हमने पढ़ लिया। विकास दूबे मारा गया, हमने जान लिया। मंहगाई बढ़ गयी, डीजल के दाम पेट्रोल से ऊपर निकल गए, बैंकों का एनपीए बढ़ गया, देश की अर्थव्यवस्था अब मंदी में नहीं बल्कि अवसाद में चली गयी है- ये सब कुछ हमने एक खबर की तरह ग्रहण कर लिया। जो दिया जा रहा है हम लेते जा रहे हैं।
बीते छह साल से राजनीति के इस रंगमंच ने एक ही स्थिति में हमें डाला हुआ है। बीच-बीच में कुछ रोमांच आते हैं। लोगों की तकलीफ़ों को देश का प्रधानमंत्री लतीफों में पैक करके हमें दे देता है। हम ग्रहण करके चले आते हैं और पिछले सत्तर वर्षों को कोसने लग जाते हैं। नाटक यूं ही अनवरत बिना बाधा के चलता रहता है। चल ही रहा है। दर्शक अब महज़ दर्शक नहीं है, बल्कि तमाशबीन है जो गली-नुक्कड़ पर चल रहे गाली-गलौज का मज़ा ले रहा है। सहृदय बनाने के सारे प्रशिक्षण केन्द्रों पर जबर ताले लटके हुए हैं। अगर कोई होगा भी, तो यह तमाशबीन जनता उसे इसलिए पीट देगी कि वो उससे अलग क्यों है!