“स्पीच इज़ सिल्वर एंड साइलेंस इज़ गोल्ड”- इतिहास में बोलने वालों को इस कथन के बहाने जिस तरह से हतोत्साहित किया गया है, ऐसा लगता है कि इस राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और यहाँ तक कि धार्मिक दुष्काल में यह कहने वाले को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए।
इस कहावत को दुनिया के सामने लाने का श्रेय थॉमस कार्लाइल को जाता है जिन्होंने पहली दफ़ा 1831 में अंग्रेज़ी भाषा में इसका प्रयोग किया। कहावत का पीछा करने पर यह स्पष्ट नहीं होता है कि यह बात किसके लिए कही गयी होगी। आज से दो साल पहले भी क्या लोग इतना बोलते रहे होंगे? कहावतें किन भू-राजनैतिक संदर्भों में जन्म लेती हैं, कहना तब मुश्किल हो जाता है जब किसी ऐसी कहावत को चलन में आये दो सौ साल बीत चुके हों।
यह कहना भी मुश्किल है कि इन दो सौ वर्षों में मौन की भाषा वाकई बेअसर हो चुकी है। ‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्’ को कहे हुए भी सदियाँ बीत चुकी हैं। संस्कृत भाषा में सब कुछ सदियों पुराना होता है। कई बार अपने अल्पज्ञान से ऐसा लगता है कि संस्कृत में कुछ नया रचा ही नहीं गया या कुछ रचा ही नहीं जा रहा, सिवा इस भ्रम के कि भारतवर्ष कभी विश्वगुरु था और जिसका आधार थे हमारे शास्त्र, वेद, पुराण, उपनिषद और कुछ महाकाव्य। जिस तरह संस्कृत ने अपना समाज खो दिया है और समाज ने अपनी संस्कृत, लगता है इस कहावत ने भी अपना असर खो दिया हो।
नवाज़ देवबंदी साहब ने खामोशी को अपने एक शेर में बेहतर तो बताया है, लेकिन ऊल-जुलूल बोलने के मुकाबले में। वे कहते हैं, “ऐसी-वैसी बातों से तो अच्छा है ख़ामोश रहो, या फिर ऐसी बात कहो जो ख़ामोशी से अच्छी हो।” वो ताकीद करते हैं कि आँय-बाँय-साँय बकने से बेहतर है कि चुप रहो। जिस काबिल नहीं हो, वो काम न करो। मसलन, जब मिशन चंद्रयान के प्रक्षेपण में देश के अन्तरिक्ष-विज्ञानी लगे हुए हों, उनकी मेहनत का इम्तिहान हो रहा हो, वहां कुछ भी अंट-शंट बोलने न पहुँच जाओ। दूर से देखो और देखते वक़्त भी खामोश रहो क्योंकि तुम अन्तरिक्ष-विज्ञान का ककहरा भी नहीं जानते। मसलन, जब अर्थशास्त्री कुछ बोल रहे हों तो बिना कुछ बोले उस बात पर कान दो। जिस मामले में कोई ज्ञान ही नहीं है उस पर क्या बोलना? यहां खामोश रहना बड़प्पन और महात्म्य का विषय है। इसके इतर, इन हरकतों पर जिन्हें बोलना चाहिए उनका खामोश हो जाना अंतत: उसी के हौसले बढ़ाता है जिसके लिए यह सीख थी कि कुछ भी मत बोलो! बहरहाल…
हमारे पूर्वजों ने खामोशी की महिमा का एक से बढ़कर एक बखान किया है। लगता है कि हम मुंह खोलकर जैसे कोई बड़ा पतित काम कर रहे हों। हाल के संदर्भों को याद करें, जब मनमोहन सिंह पर थोक के भाव में घोटालों के आरोप लगे थे और वे अपने स्वभाव के अनुसार उन पर कुछ बोलते नहीं थे। उनके मुंह में करीब-करीब माइक ठूँसकर जब उनसे जवाब मांगा गया तब उन्होंने शब्दों के प्रति चिर-परिचित मितव्ययिता दिखाते हुए एक नामालूम-से शायर की जानिब एक शेर कहा था, “कई जवाबों से अच्छी है ख़ामुशी मेरी, न जाने कितने सवालों की आबरू रक्खे”। यहां उन्होंने ‘कई’ शब्द की जगह ‘हजारों’ शब्द का इस्तेमाल किया था। यह भूल थी या तात्कालिक राजनैतिक संदर्भ, इस पर एक गंभीर शोध दरकार है। बहरहाल…
ख़ामोशी को लेकर एक अलग तरह का पवित्रता-बोध और वैराग्य-भाव है अपने समाज में। आम तौर पर ख़ामोश या शांत रहना संतों का गुण माना जाता रहा है। ऐसे संत जो मौन में डूबे हुए खुद में परमात्मा को तलाशते रहते हैं। महानगरों में ऊबे हुए लोगों का नया ठिकाना आजकल बौद्ध धर्म का विपश्यना बनता जा रहा है। बीते कुछ वर्षों में यह फैशनेबल काम हो चला है। साधना इसमें होगी ज़रूर, पर लोग बताते हैं कि खुद में डूबने और उतराने की ये बढ़िया जुगत है। इन फैशनेबल अभ्यासों के चलन से उस बेखुदी को बड़ी ठेस पहुंची है जो अपना ही इंतज़ार करवा लेती थी। बकौल मीर तक़ी मीर, “बेखुदी ले गयी कहां हमको, देर से इंतज़ार है अपना”।
अब लोग बेखुदी में नहीं हैं। खुद के अलावा कुछ सूझता नहीं है। जब खुद ही खुद हैं तो जीने की सहूलियतें भी चाहिए और कहते हैं आज के दौर में जीने के लिए चुप्पी से बेहतर कोई रास्ता नहीं। इधर आप बोले नहीं कि उधर व्हाट्सएप्प की भाषा में आपका ‘लोया’ होना तय है। ‘लोया हो जाना’ कतिपय समकालीन विमर्श में केन्द्रीय मुहावरा बन चुका है। किसी का ‘लोया हो जाना’ उसके भीतर सबसे बड़ा डर पैदा कर सकता है।
ध्यान से देखें, तो हमें आजीवन शांत रहना, खामोश रहना ही तो सिखाया जाता है। खासकर उन्हें, जो इस व्यवस्था में सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं। जब सीमोन द बोउवा कहती हैं कि स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनायी जाती है, तो उस बनायी गयी स्त्री को प्राथमिक पाठ चुप रहना ही तो सिखाया जाता है। ता-ज़िंदगी चुप रहना स्त्री को लंबे प्रशिक्षण से प्राप्त होता है जिसके लिए घर –परिवार, नाते-रिश्तेदार, धर्म, समुदाय, शास्त्र दिन-रात लगे रहते हैं। यही प्रशिक्षण तथाकथित छोटी जात वालों को दिया जाता है, कि ‘भले’ लोगों के सामने चुप रहना है।
चपरासी को क्लर्क के सामने चुप रहना है, बच्चों को शिक्षक के सामने चुप रहना है, महिला को पुरुष के सामने चुप रहना है। चुप रहने का प्रशिक्षण और अभ्यास कम से कम हिंदुस्तान जैसे जन्मना विभेदकारी समाज में एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। जिसको चुप रहने का अभ्यास जितना ज़्यादा होगा वह उतना ही बड़ा धर्मात्मा (धर्म की आत्मा से संचालित या धर्म ही जिसकी आत्मा हो) साबित होगा। चुप रहने का यह महात्म्य हमारे रक्त में ऐसा घोला गया है कि जब वो बेदर्दी से सिर काटने ही लगें तो हम बस इतना कह सकें कि हुज़ूर, आहिस्ता, आहिस्ता!!! (ग़ालिब के मशहूर शेर का गद्य रूपांतरण)। यहां नाना पाटेकर का वह संवाद अचानक याद पड़ता है जो लोकप्रिय सिनेमा में मौन की संस्कृति के खिलाफ़ एक जिंदा दस्तावेज़ बन चुका है। उसे फिर से देखा और सुना जाये…
2014 से देश में फ़िजा बदली है। अब खामोशी महात्म्य का नहीं, मखौल का विषय बन गयी है क्योंकि जिसे महात्मय दिखाना था वो तो बोले ही जा रहा है, अनवरत। उसे न थॉमस कार्लाइल के कहे “साइलेंस इज़ गोल्ड” की परवाह है न नवाज़ देवबंदी की और न ही हजारों सवालों की आबरू की। इसके उलट, जिसे बोलना चाहिए था उसने एक अवसादग्रस्त खामोशी ओढ़ ली है। इसके लिए चुप रहना या खामोश रहना कहने से बेहतर होगा ‘चुप्पी साध जाना’। वो भी चुनी हुई चुप्पी!
चुप्पी साधना एक पीड़ादायी क्रिया है। चुप्पी बहुत चयनित क्रिया भी है जो प्राय: डर, भय, लोभ या लिहाज से पैदा होती है। जो लोग आजकल पेट्रोल-डीज़ल के बढ़े हुए दामों पर चुप्पी साधे हुए हैं वो जरूरी नहीं है कि दाल में नमक ज़्यादा या कम हो जाने पर थाली न फेंक रहे हों। भय का हासिल, अनिवार्य रूप से भय ही होता है। वो, जो थाली फेंकता है, असल में उस भय को स्थानांतरित करने की कोशिश करता है, जिससे वो ग्रसित है।
वो खुद को यकीन दिलाना चाहता है कि दुनिया में कोई तो है जिससे मैं नहीं डरता। निज़ाम से डरता हूं क्योंकि उसके पास यूएपीए है, उसके पास देशद्रोह की एक औपनिवेशिक दंड संहिता है, उसके पास तनख्वाह काट लेने या नौकरी से बर्खास्त कर देने की शक्ति है, उसके पास मीडिया है, उसके पास पुलिस है, उसके पास हम जैसे करोड़ों चुप्पी साधे लोगों का समर्थन है जिसे वो खुद बड़बोलेपन में ‘जनादेश’ कहता है। ये बात अलग है कि जिन्होंने आपको समर्थन दिया उनमें आदेश देने की कुव्वत नहीं है। आपने उनके समर्थन को वोट में तब्दील किया और आपने उसके दम पर हमें और निरीह बना दिया। बावजूद इसके, थाली फेंकने वाले लोगों के पास कुछ है जो निज़ाम से इतर है और वो है उसके काउंटर पार्ट को चुप्पी साधने का करवाया गया निरंतर अभ्यास!
यही अभ्यास अब देश के जनतंत्र पर भारी पड़ रहा है। चुप्पी के इस महात्म्य और पवित्रता-बोध को पीछे छोड़ देने की ज़रूरत है। हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं जहां वॉयस यानी आवाज़ ही हमारी रक्षा कर सकती है। लोया हो जाने का डर कहां नहीं? क्या घरों में महिलाएं या गांवों-कस्बों में दलित चुप्पी के अभ्यास के बावजूद लोया नहीं हो जाते? तोड़ भी दीजिए चुप्पी! बोलिए, कहिए, सुनिए, सुनाइए, चिल्लाइए! दोस्तों के बीच, घर में, फोन करते वक़्त, दफ्तर में! और अगर इसका अभ्यास नहीं है तो आईने के सामने खड़े होकर खुद से खुद के लिए बोलिए… देखिएगा, अच्छा लगेगा फिर। हवा चलने लगेगी! रूत, बदलने लगेगी!
लेख बहुत उम्दा। अच्छा लगा अंग्रेजी का सहारा लेकर कहना चाहूंगा ‘more power to your pen. सादर