बात बोलेगी: दिल्ली ‘ज़फ़र’ के हाथ से पल में निकल गई…


दिल्ली एक ऐतिहासिक नाम है। इसका भूगोल घटता-बढ़ता, फैलता-सिमटता रहा है लेकिन यह नाम शासकों और सल्तनतों के साथ जुड़ा रहा। एक अदब का शहर, जितना पुराना, उतना ही नवीन। जितना मशहूर, उतना ही बदनाम। जितना दिलदार, उतना ही बेमुरव्‍वत। दिल्ली एक राज है, तिलिस्म है और दिल्ली वह सब कुछ है जो इस हिंदुस्तान का अतीत, वर्तमान और भविष्य है। दिल्ली ने पूरे देश का नसीब लिखा है। दिल्ली कई-कई बार उजड़ी है, बसी है। दिल्ली एक निरंतर चलती प्रक्रिया है जो बनती-बिगड़ती, गिरते-सँभलती रही है। दिल्ली पर सबने राज किया है। दिल्ली एक शानदार और राजदार जगह है। इसकी मिट्टी में, आबोहवा में, कितनी ही सल्तनतों और साम्राज्यों के राज दफ्न हैं। दिल्ली शासकों की कब्रगाहों का शहर है।

दिल्ली में बदलाव की बयार हमेशा हलचल में रहती है। कभी बहुत धीरे तो कभी बहुत तेज। और कई बार इतनी तेज कि जब तक बातें समझ में आयें, यहां बदलाव हो जाता है। ‘’परिवर्तन संसार का नियम है’’ कहने वाले का ज़रूर कोई सीधा संबंध दिल्ली से रहा होगा।

दिल्ली दिलवालों की है या नहीं, लेकिन दिमाग वालों की ज़रूर है। पूरे देश के दिमाग यहां सत्ता संरचनाओं के वास्तुकार हैं। दिल्ली वास्तु का भी शहर है। मुग़लों से लेकर अंग्रेजों तक और उससे भी पहले और उसके बाद के आने वाले तमाम वास्तुकारों ने दिल्ली को संवारा है, बदला है और ढहाया है। दिल्ली ढहने का भी नाम है और ढह कर फिर से खड़े होने का भी। दिल्ली, दिल्ली की तरह क्रूर है तो इसलिए क्योंकि साम्राज्यों की सत्ता की चालाकियां इसकी रगों में दौड़ती हैं। दिल्ली दरबारों का शहर है, शायरों का शहर है, अदीबों और दरवेशों का शहर है। दिल्ली इल्म और अक्ल का शहर है।

दिल्ली ने कभी इस बात की परवाह नहीं कि वो राज्य है, राजधानी है या केंद्रशासित प्रदेश है या महज़ एक शहर है। दिल्ली में कई शहर हैं। कई शहरों का शहर है दिल्ली। दिल्ली कुछ न होते हुए भी दिल्ली है।

बहरहाल, 27 अप्रैल के बाद दिल्ली वो दिल्ली नहीं रही जो वह इससे पहले थी। इससे पहले दिल्ली एक ऐसा अर्द्ध-राज्य था जिसके पास एक विधानसभा थी। विधानसभा में विधायक थे। जैसे हर राज्य की विधानसभा को ये अख़्तियार है कि वो अपनी जनता की आकांक्षाओं के हिसाब से कानून बना सके, यहां भी थे। जनता विधायक चुनती थी, विधायक सरकार बनाते थे और सरकार विधानसभा के अंदर कानून बनाती थी। हालांकि यह भी दिल्ली की एक अवनति ही थी लेकिन इसकी भरपाई वो नई दिल्ली से कर पाती थी। नई दिल्ली का रुतबा ठीक वही है जिसकी साक्षी दिल्ली रही है।

मौजूदा दिल्ली में तीन दिल्लियाँ हैं। एक खुद दिल्ली है, एक पुरानी दिल्ली है और एक नई दिल्ली है। दिलचस्प ये है कि जो नई दिल्ली है, वो पुरानी दिल्ली की ऐतिहासिक अनुकृति है। जो निज़ाम देश की गुलामी से पहले पुरानी दिल्ली से राज चलाता था अब देश आज़ाद होने के बाद वही निज़ाम अब नई दिल्ली से चलने लगा। दिल्ली तब भी वहीं थी, अब भी वहीं। क्योंकि दिल्ली एक इलाके का नहीं बल्कि कतिपय बड़े भूगोल का नाम हो गया। दिल्ली को राज्य, अर्द्ध-राज्य या केंद्र-शासित राज्य जो भी कहें, उतना ही रुतबा नसीब हुआ।

27 अप्रैल के बाद इस बड़े भूगोल का विलय, वय में सबसे छोटी लेकिन बल में सबसे धनी, नई दिल्ली में हो गया। अब यहां की विधानसभा महज़ एक इमारत का नाम है। एक शक्तिहीन इमारत का। यहां की जनता को नई दिल्ली ने अपने बाहुपाश में जकड़ लिया है। नई दिल्ली का एक नुमाइंदा अब दिल्ली की जनता पर राज़ करेगा।

यह तय तो हो चुका था 24 मार्च को ही, लेकिन बीच में बंगाल के चुनाव आ गए और मामला थोड़ा साइड कर दिया गया, लेकिन तयशुदा मामले को लागू करने का एक नाटकीय उद्यम बीते दो रोज़ में हुआ। दिल्ली में ऑक्सीज़न, वेंटिलेटर, हस्पताल, बिस्‍तर, दवाइयों आदि की कमी दरपेश हुई। कोरोना संक्रमितों की संख्या में अकस्मात उछाल दर्ज़ किया गया। मरीज हलकान होते दिखलायी पड़ने लगे। नई दिल्ली और दिल्ली के बीच रोमांचक छुपा-छुपाई और आइस-पाइस का खेल हुआ। कुछ लोगों ने इस खेल में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का भी नज़ारा देखा।

दोषारोपण की बॉल कभी इधर, कभी उधर। देखने वालों को यह फुटबॉल की तरह नहीं बल्कि बैडमिंटन की शटल की तरह भी दिखी, जो ग्राउंड पर इधर-उधर आवारागर्दी करने नहीं जाती बल्कि सीधे प्रतिद्वंदी के पास आती-जाती है। इसका सीधा प्रसारण कोरोना की भयावहता के बीच भी मुसलसल जारी रहा। देश में आइपीएल से ज़्यादा रोमांच बीते सात साल में दिल्ली और नई दिल्ली की इस धींगामुश्ती में आता है। मीडिया के लिए भी यह सबसे मुफीद खेल रहा है। इसमें हार नहीं है, जीत भी नहीं है, बस खेल है। और इस खेल के सीधे प्रसारण से एक फायदा देश दुनिया को यह होता रहा है कि बाकी जो ऐक्टर्स, प्लेयर्स हैं, उन्हें दिखाने का दबाव नहीं रह जाता। मीडिया पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि आप विपक्ष को नहीं दिखाते। विपक्ष मतलब दिल्ली की सरकार मतलब आम आदमी पार्टी। पक्ष मतलब केंद्र की सरकार मतलब भाजपा।

इस खेल में रोमांच का चरम आया जब दिल्ली सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के अमले के लिए सर्वसुविधायुक्त 100 बिस्तर एक होटल में तत्काल प्रभाव से बनाने का आदेश दे दिया। इस खबर से न केवल दिल्ली सरकार की किरकिरी हुई बल्कि माननीय उच्च न्यायालय की भी थू-थू हो गयी। लोग यहां बिना ऑक्सीज़न के मर रहे हैं और आपके लिए 100 बिस्तर एडवांस में तैयार हो रहे हैं! उच्च न्यायालय, जो पहले से ही इस नाटक के सूत्रधार के रूप में मौजूद था या संभव है नहीं था, उसकी भूमिका का सही लाभ ले लिया गया, उसने आनन-फानन में अपना पक्ष पेश कर दिया कि इस संबंध में एक बैठक ज़रूर हुई थी और इस तरफ दिल्ली सरकार का ध्यान आकृष्ट ज़रूर किया गया था लेकिन ठीक यही नहीं कहा गया था जो दिल्ली सरकार ने कर दिया।

जनाब! कंटेम्प्ट नामक ब्रम्हास्त्र से लैस आप वाकई इतने मासूम हैं कि आपके कहे को आदेश में बदले बिना किसी सरकार को नींद आ जाएगी? खैर, आपने अपना धर्म निभाया और दिल्ली सरकार ने आपद्धर्म निभाया। जब किसी के पाँव के नीचे आपकी गर्दन दबी हो उसके पाँव सहलाने में ही फायदा है, ऐसा मुंशी प्रेमचंद ने कहा था। दिल्ली सरकार ने ठीक वही किया जो गोदान के मुख्य पात्र होरी ने किया था। खैर…

ताज्जुब, अब शुरू होता है। जब वह आदेश बाहर आया और उस पर तमाम मुबाहिसे के बाद यह फैसला सुना दिया गया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने उच्च न्यायालय की चापलूसी की है और राज्य की जनता के साथ भेदभाव किया है और उच्च न्यायालय ने यह कह दिया कि दिल्ली सरकार अब भरोसा खो चुकी है। इस तेज़ तूफान के थमने के बाद उस आदेश को पुन: पढ़ा गया। उसमें लिखा था कि यह आदेश लेफ्टिनेंट गवर्नर यानी केंद्र सरकार के नुमाइंदे की अनुशंसा के साथ जारी किया गया है यानी अगर पाप हुआ तो इस पाप के दो भागीदार थे, सज़ा एक को मिल गयी। हालांकि संविधान के लिहाज से यहां भी भेदभाव हो गया, लेकिन यहां संविधान की पड़ी किसे है भाई जो रातोंरात दिल्ली को अपने अधीन ले लिया गया।

एक दिन शोक संतप्त रहने के बाद उम्मीद थी कि केजरीवाल जी इस आदेश को लेकर टीवी पर आएंगे और जैसा कि वो हर बात दिल्लीवालों को बताते हैं, उनकी राय लेते हैं, इस पर भी लेंगे लेकिन कमाल ये है कि वो अभी टीवी पर केवल यही बताने 8 से 10 बार आ रहे हैं कि हमें कोरोना को हराना है। इस आदेश के संबंध में कुछ नहीं कहा कि मेरे प्रदेशवासियों, आज आपका चहेता मुख्यमंत्री बलि का बकरा बन गया है।  

इस लानत-मलानत और हुज्जत ने तत्काल गृह मंत्रालय का रुख किया। इस हुज्जत ने नई दिल्ली को मौका दे दिया और जो काम बंगाल चुनावों की व्यवस्तता और कोरोना के कुप्रबंधन के लिए ठीकरा फोड़ने के सुभीते की वजह से अटका हुआ था, उसे अंजाम दे दिया गया। अब नए कानून के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सीधा केंद्र का राज होगा। विधानसभा रहेगी और ठीक उसी तरह रहेगी लेकिन उसे सब काम नई दिल्ली के एक नुमाइंदे से पूछकर करना होंगे।

क्या अब हम उम्मीद करें कि इस धींगामुश्ती से मुक्त होकर दिल्ली के हालात में त्वरित सुधार होगा? केंद्र ने इस विषम परिस्थिति में दिल्ली पर दावा ठोका है। ज़रूर कुछ सोच समझकर किया होगा वरना केंद्र की सरकार तो अब भी यह मानने को तैयार नहीं है कि कोरोना की इस विभीषिका में उसका कोई योगदान है!

दिल्लीवासियों को खुश हो जाना चाहिए और दिल्ली के बाहर गैर-भाजपा शासित राज्यों को सावधान। अब ज़रूरी नहीं है कि सत्ता का साम्राज्य विस्तार केवल विधायक खरीद कर ही हो, कोरोना से निपटने की अक्षमता के नाम पर भी हो सकता है। दिल्ली ने नया रास्ता दिखलाया है। कुछ हो न हो लेकिन उत्तर प्रदेश की तरह यहां कल से ऑक्सीज़न और अन्य सुविधाओं की कमी नहीं होगी।

क्या पता कुछ समय के लिए दिल्ली को इससे लगे राज्य उत्तर प्रदेश के अधीन कर दिया जाय? आपको क्या लगता है ये वापिस उन्हीं सल्तनतों का दौर नहीं आ गया जहां मसल पावर देखकर मनसबदारियां तय होती थीं? देखिए, क्या होता है। अब जब दिल्ली बदले तो नज़र रखिएगा। बहुत तेज़ी से बदलती है।



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