विकास मारा गया। चौंकने की जरूरत नहीं है। चौबेपुर कानपुर अपने आप जोड़ लीजिए इसके आगे पीछे। सरकार संतुष्ट है कि चलो छुट्टी मिली। पुलिस संतुष्ट है कि चलो खेल खत्म हो गया। लेकिन जनता की समझ में नहीं आ रहा कि विकास के एनकाउंटर का करना क्या है। कोई कह रहा है सही है। कोई कह रहा है गलत है। कोई कह रहा पता नहीं। और कोई कह रहा है इनमें से कोई नहीं। विकास न हुआ यूपीएससी का पेपर हो गया। परीक्षार्थी की औकात से बाहर का पर्चा आ जाए तो अ ब स द का मतलब समझता है अंड बंड संड दंड। तो नतीजा क्या निकलता है। रिजल्ट तो रुकता नहीं। परीक्षार्थी फेल हो जाता है।
यही विकास के मामले में हुआ है। विकास तो वही कर रहा था। जो बरसों से कर रहा था। लोगों को सताना। जमीन हड़पना। गुंडागर्दी करना। पुलिसवालों को अपना गुलाम समझना। लेकिन पुलिस ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वो पूरे महकमे को सताने लगेगा। विकास नाम ही ऐसा है। आदमी ओवर कॉन्फिडेंट हो जाता है। अतिरिक्त आत्मविश्वासी।
2 जुलाई को जो हुआ वो विकास के लिए कोई गुनाह नहीं था। केवल कॉन्फिडेंस का मामला था। पुलिस के लिए भी यही था। लेकिन हो गई कॉन्फिडेंस और कॉन्फिडेंस में टक्कर। जैसे आकाशीय उल्का पिंडों की टक्कर होती है। इसमें क्या होता है। पिंड राख के छोटे-छोटे हिस्सों में बदलकर बिखर जाता है। मतलब कानपुर में जो उस दिन हुआ और जो इस दिन हुआ, यह ब्रह्मांड में घटित ऐसी ही मामूली घटनाओं की तरह है। व्यवस्था के उल्का पिंडों के टकराव की तरह। इसमें जनता के हिस्से में केवल राख होना आया था। लेकिन उसे ये नहीं पता था कि एक दिन सब धुआं-धुआं हो जाएगा।
विकास जो न कराए सो कम। जनता विकास के लालच में। विकास अपने विकास के लालच में। और विकास का विकास करने वाले अपने विकास के लालच में। लालच कहना भी ठीक नहीं। लालच नकारात्मक शब्द है। इसे तृष्णा कहना अच्छा है। मतलब चाहत। चाहत से प्रेम जैसी फीलिंग आती है। प्रेम वैसे भी समाज से लगातार कम होता जा रहा है। आप एक बार कहके देखिए कि नौकरी नहीं। रोजगार नहीं है। खाना नहीं है। दाना नहीं है। मकान नहीं, दुकान नहीं है। ट्विटर-फेसबुक पर लोग डिजिटल दोनाली लेकर दौड़ा लेंगे। मूर्ख.. सरहद पर सेना के जवान शहीद हो रहे हैं और तुम्हें नौकरी रोजगार मकान की पड़ी है?
सोचिए, ऐसे नाजुक दौर में प्रेम को बचाए रखना कितना मुश्किल काम है। और इस दौर में विकास के दिल में प्रेम का अरब सागर बहता था। नहीं.. नहीं। अरब सागर के नाम से ही कुछ लोगों के दिमाग का कम्यूनल एंटिना खड़ा हो जाता है। प्रेम का हिंद महासागर बहता था। हिंद महासागर राष्ट्रवादी लगता है।
तो विकास बहुत प्रेम करता था। पुलिस महकमे के मुखबिरों को। अपने गुंडों को। रिश्तेदार को। परिवार को। और गोली बंदूक देखकर तो वो प्रेम के मारे बौखला जाता था। बावरा मन देखने चला एक सपना…। तो विकास देश से प्यार करता था। देश विकास से प्यार करता था। सब कुछ प्यार में चल रहा था।
और जैसा कि आप जानते ही हैं, प्रेम आदमी को बागी बना देता है। तो विकास भी हो गया। आपने सुना है पिछले कुछ बरसों में कि किसी आम आदमी की, किसान की, मजदूर की, छोटे कारोबारी की बचत का विकास हुआ हो? कमाई में विकास हुआ हो? आराम में विकास हुआ हो? गाड़ी घोड़ा मकान में विकास हुआ हो?
एक बात समझ लीजिए- इसका कारण विकास नहीं है। ना। कतई नहीं। क्यों? क्योंकि जब विकास ही बागी हो गया तो सरकार क्या करेगी। आप ही बताइए, विकास पर भरोसा आपको नहीं था कि हमको नहीं था कि व्यवस्था को नहीं था? एक विकास पर ही तो भरोसा था। और था किस पर! और वो भी विकास बागी हो गया। बताइए। ये कोई बात होती है!
सरकार ने विकास को छुट्टा छोड़ दिया था। तभी तो वो बरसों बरस से मौज कर रहा था। सुना नहीं आपने- भोले की फौज करेगी मौज। भक्ति की इंतिहा देखिए पट्ठा सबको बिलखता हुआ छोड़कर सावन में महाकाल के दर्शन करने पहुंच गया। नसीब देखिए। गया था महाकाल के पास। पीछे पड़ गया काल। और हो गया कमाल। ये काल का कमाल ही तो है कि पुलिस ने ऐसे छंटे हुए गुंडे के.. माफ कीजिएगा, प्रेम के पुजारी के हाथ नहीं बांधे हुए थे। और बांधे हुए थे तो एकदम फूल कुमारी की तरह। तभी तो एक साथ कई इत्तेफाक एक साथ घटित हुए।
बारिश में सड़क पर फिसलन का होना। उसी गाड़ी का फिसल जाना जिसमें विकास बैठा हुआ था। अगर गाड़ी वही थी तो। विकास के हाथ की हथकड़ी का खुल जाना या टूट जाना। अगर हथकड़ी लगी थी तो। वैसे विकास को हथकड़ी कौन लगा सकता है! फिर एसटीएफ वाले साहब की फुर्ती का लोप हो जाना। इसके बाद विकास का उनकी कमर से पिस्तौल निकाल लेना। और पचासों पुलिसवालों की मुस्तैदी के बीच से विकास का फायरिंग करते हुए भागने लगना। फिर पुलिस का जवाबी फायरिंग करना।
और गोली का ऐसी जगह पर लगना कि विकास मर जाए। लेकिन विकास मर गया। उसको मरना ही था। क्योंकि विकास की उमर लंबी होती ही नहीं है। आप देख लीजिए। बंगाल का विकास हुआ तो बिहार में नहीं हुआ। असम में हुआ तो उड़ीसा में नहीं हुआ। तमिलनाडु में हुआ तो तेलंगाना में रह गया।
विकास चीज ही ऐसी है। बागी। वो किसी के हाथ नहीं आता। आपको केवल भ्रम हो सकता है कि विकास अपने काबू में है। आपको मजा आएगा कि विकास अपना है। सियासत का है। समाज का है। राष्ट्र का है। राष्ट्रवाद का है। लेकिन सच ये है कि विकास किसी का नहीं होता क्योंकि विकास केवल एक कठपुतली है। उसे नचाया ही जाता है। इसलिए कि विकास सबको अपना लगे। और जैसे ही मदारी को लगता है कि लोग कठपुतली को ही जादूगर समझने लगे हैं, वो उसे तोड़ देता है।
तो क्या समझे? विकास न मारने से मरता है, न बचाने से बचता है। उसकी फितरत है भ्रम का खेल खेलना। ये तो आप जानिए कि ऐसे विकास का करना क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप नंद को ही मगध समझ बैठे हैं? सोचिए… सोचिए…। और विकास का इंतजार कीजिए।