31 जुलाई की तारीख जब भी आती है, कुछ घुमड़ने लगता है। यह तारीख दिल्ली की साहित्य मंडली में 2013 तक एक घटना के तौर पर दर्ज हुआ करती थी। हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद की जयंती को विमर्श के एक उदार मंच में बदल डाला था। ऐवान-ए-गालिब के बरामदे में राजेंद्र जी लड़की के पिता की तरह हर आगंतुक का स्वागत करते नज़र आते। चाय और समोसे के बीच लोग गप्पें करते। शिकायतों और मनुहार का दौर चलता। ये वो तारीख हुआ करती थी जब छोटे लेखक-बड़े लेखक, लेखक और पाठक, पाठक और प्रकाशक का भेद मिट जाया करता। राजेंद्र जी दिवंगत क्या हुए उस तारीख का रसूख भी मिटता चला गया। साहित्य के मंच से सरोकारों पर बहसों की वह सालाना परंपरा ढह चुकी है। ऐसी हर ढलान पर प्रेमचंद और प्रासंगिक हो जाते हैं।
हम कहते हैं कि दुनिया कितनी बदल गयी है। खबरें एक क्लिक पर कहीं से कहीं पहुंच जाती हैं। बात सच भी है। व्हाट्सएप ने, फेसबुक ने, ट्विटर ने, यूट्यूब ने हमारी दुनिया को मुट्ठी में बंद कर दिया है। पलक झपकते ही वीडियो वायरल हो जाता है। सरकार दबाव में आ जाती है। अफसरों को इस्तीफा देना पड़ता है।
लेकिन समाज? समाज बदला क्या? शोषण खत्म हुआ क्या? जात-पात खत्म हुआ क्या? और अगर हो गया है, फिर तो प्रेमचंद का पूरा साहित्य कूड़े में पड़ा होना चाहिए था। उसकी प्रासंगिकता खत्म हो जाती। लेकिन सच ये है कि आज से सौ साल पहले प्रेमचंद ने जो रच दिया था वो आज भी वैसे का वैसा कायम है।
हमारे सामने देश की, समाज की, जो तस्वीर टंगी हुई है उसका सच बहुत डरावना है। विकास के कालखंड में हमारे सभ्य होते जाने के दावे झूठे हैं। सोचिएगा कि कहीं एक समाज के तौर पर जात-पात और बढ़ा तो नहीं है। हम और बर्बर तो नहीं हुए हैं। अपने आसपास के दलितों के लिए, आदिवासियों के लिए, पिछड़ों के लिए, मुसलमानों के लिए, गरीबों के लिए, मजदूरों के लिए, किसानों के लिए।
प्रेमचंद की जयंती के मौके पर आज मेरा मन है कि जरा अपने आसपास की तस्वीरों को फिर से पलटा जाए। बहुत विकास हो गया है। हम बहुत सभ्य हो गए हैं। तो देखा जाए कि विकास की इस हवा में हल्कू कहां पहुंचा। होरी कहां पहुंचा है। धनिया कहां पहुंची है।
लॉकडाउन में सड़कों पर उतरे हुए काफिलों को भूले नहीं हैं तो उसमें प्रेमचंद के पात्रों को खोजिए। देखिए बच्चों को घिसटते हुए। देखिए बेईमान सत्ता और बेरहम व्यवस्था के पाटों के बीच मामूली आदमी की हैसियत को। आगरा में सजी हुई चिता से एक औरत की लाश इसलिए उठा दी गयी क्योंकि वो एक दलित थी। जिन पुलिसवालों के लिए हमने तालियां और थालियां बजायी थीं उनकी जमात से निकले हुए जोरावर रेहड़ी वालों के ठेले पलट रहे हैं। केले लूटकर खा रहे हैं। सब्जियां नालियों में गिरा रहे हैं। डंडे बरसा रहे हैं।
प्रेमचंद भारत के पहले साहित्यकार थे जिनका समूचा लेखन शोषण के समाजशास्त्र का व्याख्यान है। वो शोषण चाहे दलितों के खिलाफ हो, मजदूरों के खिलाफ हो, किसानों के खिलाफ हो या मुसलमानों के खिलाफ हो। ठाकुर का कुआं कब लिखा गया था? कुएं की जगह हैंडपंप ने ले ली, हैंडपंप की पंपिंग सेट ने और पंपिंग सेट की जगह टोंटियों ने, लेकिन न ठाकुरों की वो ठसक गयी और न ही उनके कुएं का कलंक मिटा। शंकर 1924 से लेकर आजतक सवा सेर गेहूं की उधारी चुका नहीं पाया है। मुझे लगता है कि सैकड़ों साल से जारी पूस की रात आज तक खत्म ही नहीं हुई है। बल्कि इस देश के लाखों हल्कुओं के अस्तित्व को भूख की आग ने खाक कर दिया है।
आप चाहे लांछन पढ़ लीजिए, चाहे शूद्र पढ़ लीजिए, चाहे सद्गति पढ़ लीजिए, गोदान, गबन या कर्मभूमि पढ़ लीजिए, दूध का दाम पढ़ लीजिए, कफन पढ़ लीजिए या महातीर्थ पढ़ लीजिए। आपको महसूस होगा कि ये कहानियां हमारे बीच काई की तरह कायम हैं। और हम विकसित और सभ्य होने के तमाम दावों के बावजूद उन्हें उखाड़ने में नाकाम रहे हैं।
2016 में एनसीआरबी की रिपोर्ट से देश में किसानों और किसानी की हालत का खुलासा हुआ था। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर रोज औसतन ढाई हजार लोग हर रोज किसानी किसानी छोड़ रहे थे। बात सुनने में और बुरी लगेगी। सरकार के ही मुताबिक 2016 में हर रोज औसतन 17 किसान आत्महत्या कर रहे थे। इससे सरकार की किरकिरी होने लगी तो उसने इसका हिसाब-किताब रखना ही बंद कर दिया।
मतलब किसान जिंदा रहे या मर जाए सरकार को इसका हिसाब रखने की जरूरत नहीं महसूस होती। 2019 में कृषि मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने लोकसभा में बताया था कि हमारे पास 2015 के बाद से ही किसानों की आत्महत्या का कोई आंकड़ा नहीं है। बहाना ये कि कुछ राज्यों ने इसके आंकड़े नहीं दिए। आरोप लगे कि सरकार किसानों की खुदकुशी का आंकड़ा छिपा रही है। लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता।
मैं दूसरी बात करना चाहता हूं। किसान जान दे ही रहा है, नौजवान नौकरी के लिए तरस ही रहा है, बच्चे अच्छे सरकारी स्कूल के लिए तरस रहे हैं, अस्पतालों में लूट मची हुई है। अध्यापकों को, चिंतकों को जेलों में डाला जा रहा है। छात्रों पर देशद्रोह लगाया जा रहा है। लड़कियों पर लांछन लगाए जा रहे हैं तो हमारे समय का कवि कहां है? हमारे समय का लेखक कहां है? हमारे समय के टिप्पणीकार कहां हैं? हम उसे कहां खोजें। आपने उसे देखा क्या? अगलगी के इस दौर में वो किस मचान पर बैठकर इत्मीनान से प्रेमगीत लिख रहा है?
लेखकों की अक्सर शिकायत रहती है कि लोग उन्हें सुनते नहीं। उन्हें पढ़ते नहीं। लेकिन इन सवालों से पहले जो सवाल बनता है वो ये कि जब लेखक अपने समय के सवालों से लड़ेगा नहीं तो उसे पढ़ेगा कौन? और क्यों पढ़े। उससे क्यों जुड़े।
मुझे अफसोस है कि हिंदी पट्टी का लेखक जनता के सरोकारों से मुकम्मल तौर पर कटा हुआ है आत्ममुग्ध और हीन भावना से शिकार लेखक है। या फिर कहें वो प्रेम कविताओं और चौपाइयों में अपनी मक्कारियों को छिपा ले जाने को ही अपनी उपलब्धि मानकर प्रसन्न है।
हिंदी के लेखकों कहां हो? देखो किसान जान दे रहा है। नौजवान सड़कों पर है। बेटियां चीख रही हैं। औरतें जलूस निकाल रही हैं। और तुम अपने-अपने दड़बों में बैठकर टीवी की बनाई हुई दुनिया में डूबे हो। हमारे समय के लेखकों और कवियों! तुम इतने निरपेक्ष कैसे हो सकते हो? साहित्य और कला का कोई भी विकास अपने पीछे एक समूची परंपरा लेकर आता है। यह सृजन काल-निरपेक्ष नहीं हो सकता। लेखकों तुम निकलो तो सही। पूरा हिंदुस्तान ही तुम्हारे पीछे चलने को तैयार हैं। तैयार ही नहीं है, तड़फड़ा रहा है। तुम अपने अपने खोलों से निकलो तो सही। अपनी-अपनी जकड़नों को तोड़ो तो सही। वर्ना याद रखो। होरी, धनिया, हल्कू से नजरें चुराकर तुम कुछ भी हो सकते हो प्रेमचंद नहीं हो सकते। क्योंकि प्रेमचंद होना कुछ किताबों का होना नहीं है। उन सरोकारों का होना है जिसे इंसानियत कहते हैं।
निकलो हमारे समय के लेखकों। निकलो हमारे समय के गीतकारों। निकलो हमारे समय के कवियों। जरा इस समय के साथ चलके दिखाओ। कुछ करके दिखाओ। हम तो हजारों प्रेमचंद को पढ़ने के लिए तैयार हैं। लेकिन आसमान की अटारी पर बैठकर जमीन पर लड़ते हुए लोग नजर नहीं आते हैं। एक बार जमीन पर उतरके देखिए। जमीन पर लड़ते लोग आपको पलकों के आसमान पर बैठा लेंगे।
तो लेखकों। पाठकों की शिकायत छोड़ो। प्रेमचंद को पढ़ो। क्योंकि पाठकों से ज्यादा प्रेमचंद को पढ़ने की जरूरत इस समय लेखकों को है। तो कौन आता है हिंदुस्तान का अगला प्रेमचंद बनने के लिए? लुटियन की दिल्ली की तरफ ताकते हुए लेखकों प्रेमचंद सत्ता के लंपट दरबारों में नहीं बनते, वो तो लमही की तरफ लहकती गंगा की धाराओं से टकराकर चट्टान बनते हैं।