आर्टिकल 19: मुंह छुपाये गिद्धभोज की ताक में मीडिया और सरकार की छाती पर रोटी दलता किसान


दिसंबर की तीसरी तारीख भारत के इतिहास में किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए भयावह शर्मिंदगी से भरी हुई थी। किसान संगठनों के नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इंतजामिया छप्पनभोग ठुकरा दिया था और अपनी लायी हुई रोटियां अखबार पर रखकर विज्ञान भवन के कॉरिडोर में बैठ गये थे।

अगर आपको डर लगता है या फिर आप शर्मिंदगी नाम के भाव से परिचित हों, सार्वजनिक जीवन में सदाचार और संवेदना नाम के व्यवहार को समझते हों, तो विज्ञान भवन में माथे से रोटी को लगाती हुई किसान की तस्वीर पिछले कई दशकों की सबसे ज्यादा विचलित करने वाली तस्वीर है। इसके दो दिन पहले नरेंद्र मोदी गंगा के बीच लेज़र शो देखते हुए ताक धिनाधिन कर चुके थे। सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर के त्रिकोण के बीच तनी इन दोनों तस्वीरों पर दुर्दांत पत्रकारिता की फंतासियां फिल्म सिटी के स्टूडियो से निरंतर जारी हैं।

हरियाणा के किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी विज्ञान भवन की फर्श पर खाने बैठ गए

आप किसानों के किसी भी मोर्चे पर चले जाइए। एक लक्ष्मण रेखा साफ दिखायी देती है। इस लक्ष्मण रेखा के एक तरफ किसान हैं, उनका संघर्ष है, उनके गीत हैं, उनकी लोकतांत्रिकता है, भगत सिंह का रंग दे बसंती चोला है और दूसरी तरफ जनरल डायर के हुक्म के इंतजार में बैठी हुई पुलिस है, उस पुलिस की बर्बरता को वीरता में बदलने वाले पत्रकार हैं, फिल्म सिटी से भेजे हुए नैतिकता के सुपारी किलर हैं और उनकी आपाद जहालतें हैं। इस लकीर का जिक्र इसलिए करना पड़ रहा है कि आप स्थिति को ठीक-ठीक समझ सकें।

पहली दिसंबर की शाम सिंघु बॉर्डर पर जी न्यूज का एक रिपोर्टर एक वाकथ्रू करते हुए खालिस्तान का जिक्र ले आता है। जाहिर सी बात है उसने किसानों के बीच जाने की कोई कोशिश नहीं की थी। खालिस्तान का जिक्र आते ही ट्रैक्टर ट्रॉलियों से कोई चार नौजवान उछलकर उसके सामने खड़े हो जाते हैं और खालिस्तान का जिक्र लाने का कारण पूछते हैं। रिपोर्टर कोई जवाब नहीं दे पाता। कैमरा बंद हो जाता है। वहीं पर एबीपी न्यूज का एक संवाददाता खड़ा होता है। उसने भी किसानों के बीच जाने की कोई कोशिश नहीं की।

सर्दियों में शाम जल्दी ढल जाती है। इसके बाद किसानों का अरदास शुरू हो जाता है जो बाद में संगत से खाने की पंगत में बदल जाता है। उस समय भाषण बंद हो जाता है और राजनीतिक बातें थमने लगती हैं। मुझे महाभारात का युद्ध याद आता है जिसमें नियम तय किया गया था कि सूरज ढलने के बाद किसी पर कोई हमला नहीं किया जाएगा और दोनों खेमों की आवाजाही में कोई रोकटोक नहीं होगी। लगभग सवा छह बजे ठीकठाक अंधेरा हो गया था। मेरी नज़र किसानों की संगत के किनारे खड़ी एक महिला संवाददाता पर जाती है। उनके हाथ में चैनल का कोई माइक नहीं था और चेहरे पर आंख तक मास्क चढ़ा हुआ था। हमें लगा कि सोशल मीडिया का कोई संसाधनविहीन पत्रकार होगा, लेकिन जब हम लोग जब पास गए तो उन्हें पहचानने में देर न लगी।

वो वही थीं जिन्होंने कंगना रणौत का घर गिराये जाने वाले प्रकरण में बुलडोजर थ्रू करके बहुत नाम कमाया था। वो बहुत धीमे स्वर में अंग्रेजी में पीटूसी कर रही थीं। मैं चूंकि सुबह से वहीं मौजूद था इसलिए दावे के साथ कह सकता हूं कि उन्होंने वहां मौजूद किसी किसान से कोई बात नहीं की थी। वो बहुत जल्दी में रही होंगी। चोरी से पीटूसी करके जल्दी से फिल्म सिटी के लिए रवाना हो गयीं।

लगभग ऐसी ही कहानी टिकरी बॉर्डर की भी है। नौजवान तख्तियां लेकर घूम रहे हैं कि हम आजतक, रिपब्लिक, ज़ी न्यूज़ और टीवी9 भारतवर्ष का बहिष्कार करते हैं। कोई किसान इनसे बात नहीं करेगा। इसके कारणों में जाने का कोई अर्थ नहीं। इसकी वजह सबको पता है, लेकिन जो इन किसानों के बीच जाने पर ही समझ में आता है वो ये कि जनमत निर्धारण में टीवी चैनलों की प्रासंगिकता ध्वस्त हो चुकी है। न तो किसानों के लिए उनकी कोई भूमिका रह गयी है और न ही सरकार के लिए।

बीजेपी ने बार-बार टीवी चैनलों के पर्दे के पीछे छिपकर किसानों पर वार किया। पहली बार तब जब किसान पंजाब समेत छह राज्यों से दिल्ली के लिए हजारों के जत्थे में रवाना हुए। यह माना नहीं जा सकता कि ब्यूरो रिपोर्टरों को इसकी हवा न लगी हो, लेकिन नोएडा फिल्म सिटी के दफ्तरों को वही दिखाना था जो बीजेपी के लिए मुफीद था। तो पहले तो उसने नोटिस ही नहीं लिया। ढाई से ज्यादा किसान संगठनों की अपील को एक दो पिट्ठू पत्रकार हवा में उड़ा दें तो समझ में आता है लेकिन सैकड़ों पत्रकार और दर्जनों टीवी चैनल इसे हवा में उड़ा दें तो समझ में आता है कि बूटी कहां से आयी है। किसानों ने इसकी कोई परवाह नहीं की।

दूसरी बार तब जब किसानों को रोकने के लिए खट्टर सरकार ने बर्बरता की सारी हदें तोड़ डालीं। टीवी चैनलों ने भरसक इसे छिपाने की कोशिश की लेकिन सोशल मीडिया ने ऐसा दबाव बनाया कि टीवी चैनलों के दिखाने न दिखाने से फर्क पड़ना ही बंद हो गया। तीसरी बार तब जब किसानों को रोकना मुश्किल हो गया तो सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया और निशांत चतुर्वेदी जैसे एंकरों ने आंदोलन में खालिस्तान का कोण तलाशना शुरू कर दिया। याद कीजिए मनोहर लाल खट्टर से पहले सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया ने ये शुरुआत की थी। किसानों ने इसकी भी कोई परवाह नहीं की।

इसके बाद किसानों के आंदोलन को शाहीन बाग से जोड़कर देशविरोधी साबित करने की कोशिश। यह लंपटता भी नहीं चली। पांचवीं फूहड़ता टीवी ने तब की जब किसानों ने सरकार की रोटी चाय ठुकरा दी और वार्ता के बीच लंगर से प्रसाद मंगवाया। इंडिया टीवी के रजत शर्मा तो इससे बहुत बेचैन हो गये थे और उन्होंने इसे बातचीत से भागने का बहाना साबित करने की कोशिश की।

यहां तक किसान समझ चुके थे कि उसे अपनी बात रखने के लिए टीवी की जरूरत नहीं है। उल्टा टीवी उसकी मांगों और वैचारिकी के गिद्धभोज की ताक में बैठा है। यह अचानक नहीं है कि किसानों ने अपने मैदानों में टीवी चैनलों के बहिष्कार का पोस्टर छाप दिया है। इससे किसान कतई परेशान नहीं है। उसकी बात जहां तक पहुंचनी चाहिए वहां तक अब ज्यादा बेहतर तरीके से पहुंच रही है, लेकिन इससे बीजेपी के लिए बहुत मुश्किल खड़ी हो गयी है क्योंकि वो किसानों को दहशतगर्द, खालिस्तानी, गुंडा-मवाली साबित करने की अपनी चाल में सफल नहीं हो पा रही है। बीजेपी के इस दुख से टीवी बहुत दुखी है। उसके दांत चियारते हुए एंकर अभी भी दिन रात लगे हुए हैं सुपारी का वादा निभाने में, लेकिन अब यह असंभव है।

गौर कीजिए। खिसियाए हुए टीवी चैनलों ने शुक्रवार की सुबह से ही हैदराबाद नगर निगम के नतीजों में ही अपनी क्रूरता की प्राण प्रतिष्ठता करनी शुरू कर दी थी। 11 बजते-बजते तो बात यहां तक पहुंच गयी थी कि बीजेपी की जीत का सेहरा अमित शाह पर बंधेगा या जेपी नड्डा के। योगी का कितना हिस्सा होगा और मोदी का कितना। दो घंटे के भीतर बीजेपी की जीत का जश्न मनाने चैनलों के न्यूजरूम में मुर्दनी छा गयी थी। उछलते हुए एंकर निढाल पड़ गये थे। उनका रंग उतर गया था।

यहां एक और बात को समझने की कोशिश कीजिए। दिल्ली को पांच दिन से किसानों ने हर तरफ से घेर रखा है। चीजों की किल्लत होने लगी है। कारखाने कच्चे माल की आमद के बगैर बंद पड़े हैं। जल्दी ही दूध, फल, सब्जी, अंडा, चिकन की भी कमी महसूस होने लगेगी। किसी टीवी चैनल ने अपने किसी बड़े एंकर को किसान आंदोलन के बीच शो करने के लिए नहीं भेजा है जबकि शाहीन बाग के आंदोलन के अंत तक चैनलों को इतनी शर्म आयी थी कि वो वहां पहुंचे। इसकी वजह बहुत साफ है। चैनल जानते हैं आंदोलनों को सांप्रदायिकता के रंग में रंगने में उनके माहिर एंकरों ने किसानों को अपने खेल का मोहरा बनाने की कोशिश की तो उनका बचा-खुचा नकाब भी उतर जाएगा। इस आंदोलन ने मोदी और उनके लठैत चैनलों को बहुत सीधा संदेश भेजा है- किसान को खालिस्तान और मुसलमान समझने की भूल की तो आपको हमारे ईमान का रंग देखना होगा। सरकार और टीवी वाले दोनों इसी से डरे हुए हैं।



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