कच्‍छ कथा-2: यहां नमक मीठू क्‍यों है?


… तो लालजी के घर चाय पीने के बाद हम जान गए कि कच्‍छ में नमक को मीठू कहते हैं। हमारे अहमदाबाद के एक पत्रकार मित्र जिन्‍होंने दो दिन बाद हमें रास्‍ते में ज्‍वाइन किया, बताते हैं कि अहमदाबाद जैसे मेट्रो में भी अगर आप मीठा मांगेंगे तो सामने वाला आपको नमक डाल कर दे देगा। मीठे के लिए आपको शक्‍कर बताना होगा। बहरहाल, ये बड़ी अजीब बात है कि किसी वस्‍तु के गुण के ठीक उलट उसका नाम है। आखिर इसकी वजह क्‍या हो सकती है?

कच्‍छ के रण में नमक का खेत: पानी पर जमी बर्फ की परत को तोड़ता मजदूर

दरअसल, कच्‍छ के रण में, यानी छोटे कच्‍छ और बड़े कच्‍छ दोनों को मिलाकर कुल 80,000 के करीब नमक मज़दूर काम करते हैं। साल्‍ट कमीशन की रिपोर्ट में ये संख्‍या 45000 बताई जाती है, लेकिन इस संख्‍या की सच्‍चाई हमें लालजी के घर पहंच कर ही पता चलती है। लालजी और उनके पिता दोनों नमक बनाते हैं। अगर इस प्रक्रिया में हम लालजी की मां और पत्‍नी समेत बच्‍चों के सक्रिय सहयोग को छोड़  भी दें, तो एक परिवार में बाप और बेटे को मिला कर औसतन दो नमक मजदूर होंगे। चूंकि नमक बनवाने वाली कंपनी का ठेकेदार लालजी के पिता को मदूर के रूप में नहीं गिनता क्‍योंकि उनका अनुबंध बढ़ाया नहीं गया, लिहाजा परिवार में ऑफिशियली एक ही मजदूर हुआ। यानी औसतन हर परिवार में एक आदमी मुफ्त में नमक बना रहा है। ये एक अलग बात है कि दो व्‍यक्तियों के काम करने से नमक बनाने की दर दोगुनी हो जाती है और एक परिवार द्वारा भरे गए बोरों की संख्‍या बढ़ जाती है।

दो खेतों के बीच की मेड़ और उस पर जमा नमक

अब आते हैं कच्‍छ के सेठिया कहे जाने वाले नमक ठेकेदारों की मनमानी पर। खाराघोड़ा में इकलौती सरकारी कंपनी जो नमक बनाती है, उसका नाम है हिंदुस्‍तान साल्‍ट लिमिटेड। लालजी का परिवार पीढि़यों से एचएसएल के लिए काम करता रहा है, लेकिन उसे तनख्‍वाह कंपनी नहीं देती। कच्‍छ के 80,000 मजदूरों यानी एक परिवार में औसतन पांच आदमी मानने पर चार लाख लोगों की किस्‍मत तय करते हैं सेठिया। ये सेठिया नमक कंपनी के ठेकेदार होते हैं। इनमें अधिकतर पाटड़ी और आसपास के इलाकों के रहने वाले हैं और अगड़ी जाति के हैं। सरकारी और निजी कंपनियों के बीच छोटे रण की ज़मीन बंटी हुई है (बड़ा रण ईको सेंसिटिव क्षेत्र है, लिहाजा यहां नमक का कमर्शियल उत्‍पादन तकरीबन नहीं के बराबर होता है)। इसी ज़मीन पर कई-कई किलोमीटर के फासले पर आपको नमक मजदूरों के झोंपड़े दिख जाते हैं। पीढि़यों की बरसात और तूफान झेल कर खड़े इन झोंपड़ों का एक आपसी रिश्‍ता होता है, ठीक वैसे ही जैसे सेठियों के बीच मुनाफे का रिश्‍ता होता है। यही वजह है कि आज तक सेठियों और मजदूरों के बीच ऐसी आपसी समझ कायम है कि मजदूर सरकार को तो गाली देता है, लेकिन सेठिया के खिलाफ एक शब्‍द नहीं बोलता।
सेठिया यानी नमक कंपनी का ठेकेदार मजदूरों को एक बोरा नमक बनाने पर (एक बोरा बराबर 100 किलो) 18 रुपए देता है। एक मजदूर परिवार साल में आठ महीने काम करता है क्‍योंकि मानसून के चार महीनों में रण में पानी भर जाता है और इन्‍हें पलायन करना पड़ता है। आठ महीने में एक मजदूर औसतन 800 किलो नमक पैदा करता है। इसक कीमत हुई 144 रुपए। अब इसमें आप क्रूड ऑयल का दाम जोड़ लीजिए जो ठेकेदार इन्‍हें जेनसेट चलाने के लिए देता है। एक दिन में करीब दस से बारह घंटे पानी पंप करने के लिए जेनसेट चलाना होता है। अधिकांश मजदूर परिवारोंके पास कोई खेती नहीं है, इसलिए खाली के चार महीनों में वे रण के बाहर जाकर नमक के ठेकेदारों के यहां नमक भरने का काम करते हैं। हालांकि लालजी के मुताबिक ये चार महीने बैठकर खाने के अलावा वे कुछ नहीं कर सकते क्‍योंकि काम मांगने वाले ज्‍यादा होते हैं और काम कम।

तीन पीढ़ी पुरानी राजदूत अब भी
यहां की लाइफलाइन है

जो नमक सेठिया इनसे खरीदता है, उसे प्रति बोरा (एक बोरा बराबर 100 किलो) 92 रुपए की दर से कंपनी को बेचता है। मार्जिन हुआ हर सौ किलो पर 74 रुपए। एक मजदूर अगर आठ सौ किलो नमक बनाता है तो प्रति मजदूर मार्जिन हुआ करीब 600 रुपए और 80,000 मजदूरों के हिसाब से कुल मार्जिन पांच करोड़ के आसपास बैठता है। अगर सरकारी आंकड़ा 45000 मजदूरों का भी मानें तो मामला करोड़ों में ही है। तो एक ओर जहां 18 रुपए में पांच लोगों का परिवार चलना है, वहीं इस 18 रुपए से करोड़ों का कारोबार फल रहा है।

अब आइए हमें मिलने वाले नमक पर। हमें जो नमक मिलता है, उसकी औसत कीमत 13 रुपए किलो है। ये नमक कंपनी में प्रोसेस्‍ड होता है, इसमें आयोडीन मिलाई जाती है और पैक कर के बेचा जाता है। माना कि इस नमक से हर सौ किलो पर कंपनी को मिलते हैं 1300 रुपए, तो ठेकेदार की पेमेंट काट कर बचा 1208 रुपया। अगर 1208 रपए सिर्फ नमक को प्रोसेस करने और आयोडीन डालने के बनते हैं, तो सवाल उठता है कि कच्‍छ के करीब एक लाख मजदूर बिना आयोडीन वाला नमक खाकर पीढि़यों से कैसे जिंदा हैं…? और सिर्फ जिंदा भर नहीं, वे संतुष्‍ट भी हैं और नमक को मीठू भी कहते हैं…?

थोड़ी सी ज़मीं, थोडा आसमां: जि़ंदगी का मीठा नमक

दरअसल, सेठिया के करोड़ों और कंपनी के  अरबों के मार्जिन के बावजूद उनके लिए नमक बस नमक ही रह जाता है, जबकि सिर्फ 18 रुपए क्विंटल पर अपना परिवार चलाने वाले लालजी जैसे हजारों परिवारों के लिए नमक मीठू हो जाता है। जि़ंदगी में असली नमक यहीं देखने के मिलता है… न कोई आयोडीन, न पैकेजिंग, ना ही लाग लपेट। सीधा और साफ सफेद नमक… बगैर किसी मार्जिन का। ज़ाहिर है, ऐसे नमक को मीठू नहीं तो और क्‍या कहेंगे, तो अनंत खारेपन के बीच जि़ंदगी में मिठास घोले हुए है… सोचिए, और अगले अध्‍याय का कीजिए इंतज़ार…

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4 Comments on “कच्‍छ कथा-2: यहां नमक मीठू क्‍यों है?”

  1. इतना जिंदा लिखा है कि तुमसे नफरत करने को जी कर रहा है। मैं एक नंबर का इडियट हूं। तुमने साथ चलने का प्रस्ताव रखा था और मैं चल भी सकता था लेकिन न तुमने कसके जोर दिया और न मैंने अपने आपको धक्का। फिर भी सेठियों की ड्योढ़ियों पर साहूकारी का नमक खून की तरह चमकता देख रहा हूं। मजदूर अपने लहू को मीठू न कहे तो क्या कहे? नमक तो सिर्फ एक तासीर का नाम है…

  2. खारेपन के बाद भी, कोई मिठास न होने के बावजूद साथ बनाए हुए हैं हम.
    कृपया शब्‍द पुष्टिकरण हटाने पर विचार करें.

  3. आपके दोनों article बहुत ही बढ़िया है. नमक मजदुर के व्यथा, संघर्ष को उजागर करने के लिए तहदिल से शुक्रिया
    हम नमक मजदर (जो नमक उत्पादक है) जी अगरिया कहते है उनके बच्चों की पढाई के लिए रण में स्कुल चलते हैं साथ साथ अगरिया इस शोषण से कैसे बहार आ सकें इसके लिए उनको संगठित कर सशक्त बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
    अगर आप वापिस मुलाकात ले तो अगरिया ने उनसके शोषण चक्र को तोडने के लिए जो प्रयास किये है… सरकार को जवाबदेही बनाया है… वह आपको दिखाएंगे …
    पंक्ति
    अगरिया हीत रक्षक मंच
    email:ahrmgujarat@gmail.com
    Blog : http://www.saltpanworker.blogspot.com

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