विष्णुचंद्र शर्मा: अनुभव पकी आंखें और सृजन का निरंतर उत्साह ही उनके जीवन की प्रेरणा रहा


अब यह ठीक से याद नहीं कि अग्रज कवि विष्णुचंद्र शर्मा के लेखन के बारे में किस तरह जानना समझना शुरू हुआ था या उनका जिक्र मुझ तक कैसे पहुंच सका था। मिलना तो बहुत बाद में हुआ। सन 2012 में, कृषक जी के साथ सादतपुर में। पर चूंकि मैं नौवें दशक के प्रारंभ से ही ‘धरती’ प्रकाशित कर रहा था तब लघुपत्रिकाओं की सूची में ‘सर्वनाम’ का जिक्र अवश्य देखा होगा जोकि बहुत पहले से निकल रही थी। संभवतः नवंबर 1972 से। तब सामान्यतया सभी लघुपत्रिकाएं सहयोगी पत्रिकाओं की सूची या परिचय प्रकाशित करती थीं। उनकी रचनाएं भी ऐसी ही पत्रिकाओं में देखी होंगी।

एक संभावना यह भी है कि श्री कंचन कुमार की पत्रिका ‘आमुख’ के माध्यम से उनसे परिचय हुआ हो। लेकिन शीघ्र ही उनके बारे में और अग्रज कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह के बारे में विजेंद्र जी से पत्राचार के मार्फत जानना हुआ। कुमारेन्द्र जी से तो 1980 में उनकी पुस्तक ‘इतिहास से संवाद’ के बहाने पत्राचार हुआ जिस पर एक छोटी टिप्पणी मैने धरती के गजल अंक में की थी। तत्पश्चात 1981 में ‘धरती’ के समकालीन कविता अंक में उनकी कविताएं भी प्रकाशित हुईं। और बहुत कुछ, सुनने को तब मिला जब मैं नांदेड़ से लौटते हुए विजेंद्र जी के यहां भरतपुर में रुका। यह मार्च 1982 की बात है। विष्णु जी से सीधा संवाद 1982 के सितंबर-अक्टूबर में हो सका तब मैं इलाहाबाद पहुंच चुका था और धरती के त्रिलोचन अंक का मैटर प्रेस में जा रहा था। इस अंक में मित्रवर अशोक त्रिपाठी का संपादन सहयोग प्राप्त था। अशोक जी की सलाह थी की कि विष्णु जी से संपर्क कर उनसे भी त्रिलोचन जी पर लिखवाना चाहिए। वे उनके बनारस के साथी थे और अभिन्न भी। अशोक भाई ने विष्णु जी को पत्र लिखा, जबाब भी आया लेकिन उनका आलेख समय पर नहीं आ सका। बहरहाल वह ‘धरती’ के अगले अंक ‘आलोचना अंक’ में प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था ‘कवि त्रिलोचन की प्रयोजनशीलता: किसान चेतना की कविता या क्रांति’। यह काफी लंबा लेख था। 32 पृष्ठों का। पत्रिका के कलेवर के हिसाब से बहुत बड़ा। विष्णु जी ने अशोक जी को सूचित किया था कि वे लेख तो देंगे पर बिना मानदेय के नहीं। तब हमारे लिए यह समझना मुश्‍किल था कि कोई वामपंथी लेखक किसी लघुपत्रिका से मानदेय मांगे। पर हमने तय किया कि हम उन्हें मानदेय भेजेंगे, हालांकि लेख भेजने के बाद उनकी तरफ से ऐसी कोई बात नहीं हुई।

छपने के बाद उन्होंने कुछ नहीं कहा, पर हमने उन्हें सौ रुपये मनी आर्डर द्वारा भिजवा दिए। तो यह प्रसंग यहां समाप्त हुआ।

अब उनके रचनाकार और व्यक्ति के बारे में जैसा मुझे लगा; काशी में 1 अप्रैल 1933 को जन्मे  विष्णु जी वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता, विचारक व साहित्यकार के साथ ही घुमक्कड़ प्रवृत्ति के व्यक्ति रहे। उन्हें कवि, कहानीकार व आलोचक के रूप में प्रमुखता से जाना जाता है। मैं उनकी रचनाओं, विशेषकर कविताओं के बारे में कुछ-कुछ अपनी राय बना रहा था जो ठीक से बन नहीं पा रही थी लेकिन उनके गद्य से मैं अधिक प्रभावित था। उनकी कविताओं की तब बहुत चर्चा भी नहीं होती थी।

चर्चा के केंद्र में बाबा नागार्जुन, बाबू केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन जी, शमशेर जी और मुक्तिबोध थे। मुक्तिबोध को छोड़कर बाकी कवि उनसे अगली पीढ़ी के थे लेकिन मुक्तिबोध तब जीवित नहीं थे। तब विष्णु जी के स्वभाव के बारे में बहुत सी बातें साहित्य जगत में प्रचलित थीं। वह बहुत गुस्सैल हैं। कभी भी किसी भी बात पर नाराज हो जाते हैं वगैरह। पर मैं यह नहीं जानता था, मेरा उनसे कोई सीधा वास्ता भी नहीं था क्योंकि इनसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ साथ बाद वाली पीढ़ी भी चर्चा में आ चुकी थी। अतः इस बात से खिन्न होना स्वाभाविक भी था। उनके समवयस्क विजेंद्र जी, कुमारेन्द्र, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर भी बहुत प्रसन्‍न नहीं थे, हालांकि रघुवीर सहाय दिनमान के संपादक होने के कारण लाभ की स्थिति में थे और केदारनाथ सिंह नामवर जी के चलते चर्चा में आगे थे। विष्णु जी का मिज़ाज़ इन सबसे अलग था।

वह कहते थे कि अपनी शर्तों पर जीवन जीने के कारण मैं दिल्ली में एक गुमनाम साहित्यकार बनकर रह गया क्योंकि मैंने कभी किसी की चापलूसी नहीं की, सिर्फ अपने मन की करता था। वे घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे। उनका जन्म काशी में हुआ और आशियाना राजधानी दिल्ली में बनाया। उन्होंने अपनी शर्तों पर बनारस से दिल्ली तक का सफर तय किया था। वह दिल्ली में अशोक जी (सं- आज, वाजपेयी नहीं), प्रभाकर माचवे व दिल्ली में आए नए लेखकों के संगसाथ रहने लगे थे। विष्णु जी के अनुसार ‘नौकरी नहीं थी इसलिए खर्चा चलाने के लिए अशोक जी और माचवे जी मेरे लिए काम खोजते थे। वे ही उनके लिए प्रकाशक भी ढूंढते थे।’ 1972 में पत्नी के साथ विष्णु जी यमुनापार के सादतपुर क्षेत्र में आ गए। वजीराबाद पुल के आगे वहां जंगल था। जहां उन्होंने मकान बनाया वहां दिल्‍ली से बाहर के लोग और आसपास के गांव वाले ही दिखते।

1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था तब उन्होंने तत्काल नाम से एक कविता संग्रह तैयार किया था। उस समय नामवर सिंह जेएनयू में हिंदी विभाग और भाषा विभाग के प्रमुख थे। वे उन्हें अपनी कविताएं पढ़ाने गए थे। उनकी ‘कविताएं सुनने से पहले उन्होंने दो कप कॉफी मंगवाई और 32 पेज पढ़ने के बाद कहा कि विष्णु इस समय देश में बड़ा दबाव चल रहा है। न जाने तुम्हारी ये कविताएं छपने से क्या बवाल हो जाए।

जब वह किताब छपी तो मेरे पीछे सीआइडी वाले पड़ गए थे। मेरी इस किताब की 14 प्रतियां सीआइडी ने भी खरीदी थी। दिल्ली में कांति मोहन, रामदीप गुप्ता, भगवान सिंह व रमा सिंह भी मेरे करीबी मित्र थे।

विष्णु चंद्र शर्मा

उनका परिचय क्षेत्र विस्तृत था। उनकी रांगेय राघव, मनमोहन ठाकौर, रुस्तम सैटिन, जगत शंखधर, विद्यासागर नौटियाल से लेकर विजेंद्र और मलखान सिंह सिसौदिया तक मित्रता थी। रमाकांत श्रीवास्तव तो दिल्‍ली में उनके बहुत निकट थे। सादतपुर में चित्रकार-कवि हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक और महेश दर्पण उनके करीबी थे। महेश जी ने तो अपने परिवार सहित उनके शारीरिक रूप से अशक्त हो जाने के बाद भी बहुत खयाल रखा। विशेषकर कोरोना काल में उन्हें अच्छी तरह संभाला। गत वर्ष ‘दृश्य- अदृश्य’ नाम से महेश जी का विष्णु जी पर जीवनीपरक एक बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास आया है जो विष्णु जी के जीवन और चरित्र को समझने में तथ्यात्मक रूप से बहुत सहायक है।

काशी में रंगकर्मी ब.व. कारंत से ‘कवि’ पत्रिका के कारण उनकी मित्रता हुई। वह बताते हैं- ‘वहां के कारंत अपने आप में एक सजीव लय हैं। वह हिंदी में एमए कर रहे थे और संगीत में औंकारनाथ ठाकुर के शिष्य भी थे। बनारस में दशाश्वमेघ से और आगे जाकर छोटा सा कमरा था उनका। उनके जीने का अलग ही ढंग था। वह किचन में बर्तनों को इस तरह सजाकर रखते थे जैसे स्टेज पर पात्रों को खड़ा कर रहे हों। अपने कामकाज निबटा कर वह घाट-घाट होते हुए काल भैरव तक आते थे। अपनी जीविका चलाने के लिए वह कुछ चटाइयां ले आते थे। इन चटाइयों को वह बेचते थे।’

वहां उनके पास बाबा नागार्जुन अक्सर आया करते थे। वे यहीं सादतपुर में आकर ठहरते थे। वह यह वाकया सुनाते थे कि विष्णुचंद्र शर्मा ने उन्हें बताया था कि उन्हें दिल्ली की सड़क पर जब भी लाल बहादुर शास्त्री देखते थे तो तुरंत गाड़ी रोककर पुछते थे ‘तुम्हारा सामान कहां है? चलो मेरे साथ’, लेकिन वह कभी उनके साथ नहीं गए। वह कहते थे कि त्रिलोचन की एक कविता है – दर्द कहां ठहरा सांसों-सी गली में लेटा रहा अर्थात दिल्ली की जिंदगी में हर कवि दर्द की गली में घूमने वाला था और मैं उनके दर्द का हिस्सेदार था।’ वे चाहते थे कि त्रिलोचन जैसा बड़ा कवि उनके इलाके में आकर बस जाए। जब यह संभव न हुआ तो अपने घर के पिछले हिस्से में उनके लिए एक कमरा बनवा दिया। लेकिन फक्कड़ त्रिलोचन के पांव वहां नहीं टिके।

उन्होंने नवंबर 1957 में मुक्तिबोध की एक शीर्षकहीन कविता को ‘कवि’ में कविता शीर्षक से छापा था और इस पर नामवर जी से विशेष रूप से लिखवाया था। बाद में उनकी दो कविताएं और छापी जिनका नामकरण बाद में ब्रह्मराक्षस हुआ। तो मुक्तिबोध का पत्र आया- ‘आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं, आपने मेरी जो कविताएं प्रकाशित कीं उसमें प्रूफ की बहुत-बहुत गलतियां हुई हैं। एक तो मेरी कविताएं वैसे ही जड़ हैं, दूसरे उनमें यदि ऐसी भूलें रह जाएं तो वे और अपठ्य रह जाती हैं।’

विष्णु जी ने कविता, उपन्यास, कहानी, जीवनी, संस्मरण व आलोचना की करीब 32 पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने मौन शांत सेंदूर जल का, आकाश अविभाजित है, तत्काल, अंतरंग (कविता संग्रह), तालमेल, चाणक्य की जय कथा, दिल को मला करें (उपन्यास), अपना पोस्टर, दोगले सपने(कहानी संग्रह), मुक्तिबोध की आत्मकथा, कबीर की डायरी, बंगाल के विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम की जीवनी लिखी। काल से होड़ लेता शमशेर, समय साम्यवादी आदि अनेक आलोचना और जीवनीपरक पुस्तकें लिखीं। चुप हैं यों संस्मरण की अद्भुत पुस्तक है।

वह एक अच्‍छे आलोचक थे। विजयमोहन सिंह की पुस्तक ‘भेद खोलेगी बात ही’ की समीक्षा करते हुए विष्णुचंद्र शर्मा ने लिखा है: “जहाँ पुस्तक समीक्षा हिंदी में एक उबाऊ और व्यर्थ का लेखन बन चुकी है, वहां विजय मोहन की पुस्तक समीक्षा इस तलाशहीन दौर में एक उर्वर विचारशीलता की उपज है… बहुत कम लेखक हैं जो पुस्तक समीक्षा लिखते समय पूरे समकालीन विश्व पर सोचते हैं। जैसे विजय मोहन सोचते हैं कि “इलियट सही अर्थों में केवल फोर क्वार्टर्स में ही रिल्के के निकट पहुँच सका।” समकालीन चिंतन की यह स्वाभाविक प्रक्रिया विजय मोहन में ही मिलती है।”

विजयमोहन सिंह लिखित सार्त्र की जीवनी ‘सार्त्र: असंभव विकल्पों की तलाश’ के संदर्भ में विचार करते हुए उन्होंने लिखा है: “विजय मोहन का विचारक लगातार सार्त्र और सिमोन, दर्शन और रचना और साहित्य-सिद्धान्त लिखकर समय की अवधारणा में ऊँचा उठता गया।”

विष्णु जी ने 31 अगस्त 2013 को कवि पत्रिका के पुनर्प्रकाशन के अवसर पर जो चंद्रभूषण की कविताओं पर केंद्रित अंक था, गांधी शांति प्रतिष्ठान में कविता समूह (जसम) और ‘कवि’ पत्रिका की ओर से ‘आज के समय में कविता की भूमिका’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में यह कहा था कि ‘बिना राजनीति के आप परिवर्तन नहीं कर सकते। जो अपनी राजनीति को जानते हैं, वही खतरे को भी जानते हैं। आज कवियों के भीतर जो मध्यवर्ग है, वह कहां ले जा रहा है और उनके भीतर की काव्य चेतना उन्हें कहां ले गई है, इस पर विचार करना जरूरी है। पुरस्कारों के लिए नहीं, जनता के लिए कविता लिखने, पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनाना होगा।’

उन्होंने कहा कि ‘आज के समय में कवियों के भीतर जो हताशा और खालीपन है, उससे मुक्ति तभी मिलेगी, जब कवियों का देश के विभिन्न इलाकों में चल रहे संघर्षों से संवेदनात्मक रिश्ता बनेगा।’ उन्होंने कहा कि ‘काव्यशास्त्र का संघर्ष जनता की जिंदगी के संघर्ष से अलग नहीं हो सकता।’ उन्होंने बताया कि किस तरह 1957 में जब ‘कवि’ पत्रिका उनके संपादन में निकली, तो तमाम भारतीय भाषाओं और जनभाषाओं के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का सहयोग उन्हें मिला। सभी बड़े रचनाकार उसमें छपे। नये रचनाकारों को भी यथेष्ट स्थान मिला। पत्रिका 1960 में बंद हो गई। इसके एक दशक बाद नवंबर 1972 से उन्होंने सर्वनाम का संपादन प्रकाशन किया जो 2006 तक चला। 2012 में सर्वनाम छत्तीसगढ़ के युवा प्रतिभाशाली कवि रजत कृष्ण को सौंप दी जो अब तक लगातार उसे प्रकाशित कर रहे हैं।

उम्र के नवें दशक तक लेखन में सक्रिय रहे विष्णु चंद्र शर्मा नई पीढ़ी के लिए एक सतत प्रेरणा का स्रोत हैं। ‘कवि’ और ‘सर्वनाम’ जैसी पत्रिकाओं के जरिए जहां उन्होंने एक विरल संपादकीय दृष्टि प्रदान की वहीं समय समय पर ऐसे प्रश्न भी खड़े किए जिनसे मुठभेड़ करना हर किसी के बूते की बात नहीं रही। एक तरफ वह कबीर, निराला, राहुल और त्रिलोचन के बाद मुक्तिबोध, नजरुल, नागार्जुन और शमशेर को सामने रखकर अपने साहित्य समय को नया आकार देते हैं तो दूसरी तरफ भरसक घुमक्कड़ी के दौरान पूरी दुनिया की यात्रा करते हुए नए-नए अनुभव बटोरते दिखाई देते हैं। उनकी कहानियां, उपन्यास, नाटक, संस्मरण और कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि साहित्य की सरल घारा में बहने के बजाय बड़े रचनाकार अपनी धारा का निर्माण स्वयं करते हैं। पुरस्कारों और जोड़ तोड़ की राजनीति से दूर यह साहित्य साधक अपनी कुटी में जिस तरह आजीवन नित नए अध्ययन और रचना प्रयोग करता रहा उसे देखकर लगता है कि अनुभव पकी आंखें और रचनासृजन का निरंतर उत्साह ही उनके जीवन की प्रेरणा रहा।

गत दो वर्षों में कोरोना ने देश दुनिया के कई नामी गिरामी लोगों को हमसे छीना, अब इसमें विष्णुचंद्र शर्मा का भी नाम शामिल है। उनकी स्मृति को सलाम।



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