मशहूर लोक चित्रकार और लखनऊ विश्वविद्यालय के ललित कला संकाय (कला महाविद्यालय) की प्रो. नीता कुमार श्रीवास्तव की याद में आयोजित ‘बिटवीन द लाइंस’ शीर्षक उनके चित्रों की तीन दिवसीय प्रदर्शनी लगी। कहना होगा कि उन्हें अनूठे और सुरीले ढंग से याद किया गया। याद रहे कि पिछले बरस 28 दिसंबर को उन्होंने दुनिया से विदा ली थी। उनका जाना जैसे लोक चित्रों के आंगन का सूना हो जाना था।
उनकी पहली पुण्यतिथि पर उनकी याद में उनके मित्रों, सहकर्मियों, छात्रों और प्रशंसकों ने क्षेत्रीय ललित कला केंद्र में कार्यक्रम का आयोजन किया था। भीषण ठंड के बावजूद बड़ी संख्या में कला और सामाजिक गतिविधियों से जुड़े लोगों की मौजूदगी नीता कुमार के क़द की गवाही थी।
कार्यक्रम की शुरूआत में अग्रणी चित्रकार मो. शकील, नीता जी की घनिष्ठ मित्र और सीएमएस की उप-प्रधानाचार्य लिपिका, राज्य ललित कला अकादमी के सचिव यशवंत सिंह ने नीता जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को याद किया। प्रगतिशील धारा से जुड़े संगीत शिक्षक आशूकांति सिंहा ने बांसुरी पर नज़रुल इस्लाम और रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं को और अनूठे गायक शन्ने नकवी ने निराला की रचना को अपनी बुलंद आवाज़ में पेश करते हुए नीता कुमार को श्रद्धांजलि अर्पित की।
कार्यक्रम में नीता कुमार पर उनकी बड़ी बेटी रचना कुमार (लंदन स्कूल आफ़ फिल्म्स से स्नातक) की बनाई गई फिल्म का प्रदर्शन हुआ। इसके बाद नीता कुमार और उनके काम को लेकर कला जगत से जुड़े महत्वपूर्ण व्यक्तियों की टिप्पणियों और नीता जी की चुनिंदा कृतियों से सजी पुस्तिका का विमोचन हुआ। विमोचन मुख्य अतिथि जस्टिस शबीहुल हसनैन शास्त्री समेत कई अतिथियों के हाथों हुआ जिसमें कला महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. आलोक कुमार कुशवाहा, वरिष्ठ शिक्षक प्रो. लालजीत अहीर, नीता जी के चहेते शिष्य और नर्तक राघव, फोटोग्राफी के महारथी त्रिलोचन, सामाजिक शिक्षण में सक्रिय रूबीना मुर्तजा आदि शामिल थे।
अकादमी परिसर के बाहर आयोजित की गयी सभा के अंत में मुख्य अतिथि जस्टिस शास्त्री ने भावुक होकर नीता जी से अपने घरेलू रिश्तों और तमाम यादगार पलों को साझा किया और इसके बाद कला दीर्घा में प्रज्वलित कर चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। खास बात यह कि गैलरी में रजनीगंधा भी था। यह फूल नीता कुमार का पसंदीदा फूल था।
प्रदर्शनी के दूसरे दिन लखनऊ विवि की पूर्व कुलपति और ‘साझी दुनिया’ की प्रमुख प्रो. रूपरेखा वर्मा ने चित्रों का अवलोकन किया। कहा कि नीता कुमार की कृतियों में हाशिये से बाहर खड़ी लड़कियों और स्त्रियों की मुक्ति की आकांक्षा के दर्शन होते हैं। उनके गले अस्वाभाविक रूप से लंबे हैं गोया चेहरे उचक कर, देखने की हद को लांघ कर दुनिया देखना चाहते हैं, अपनी जगह बनाना चाहते हैं।
प्रदर्शनी के तीसरे दिन कला-संस्कृति और समाज के आपसी रिश्तों पर केंद्रित परिचर्चा का आयोजन हुआ। परिचर्चा की शुरूआत करते हुए प्रगतिशील चित्रकार और कला महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो आलोक ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया कि अभिव्यक्तियों को सीमित और संकीर्ण बनाया जा रहा है।
लेखक और विचारक रामकृष्ण ने कहा कि सृजन से गुज़रते हुए मनुष्य ने ख़ुद को जानवर से मनुष्य में बदला, क्रियाशील बनाया और मनुष्यता का विकास किया। सामूहिकता, प्रेम, परस्पर निर्भरता, सहयोग जैसे मूल्यों को पैदा किया। सृजन नहीं तो संस्कृति भी नहीं। आम लोगों की दुख-तकलीफ़ों, चाहतों या संघर्षों को स्वर, शब्द या आकार देनेवाला ही सच्चा कलाकार होता है। इसकी घेराबंदी करना अब तक के मानव विकास को पीछे धकेलना है।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति से जुड़े किसान नेता शिवाजी राय ने कहा कि किसान आंदोलन में केवल किसान ही मौजूद नहीं हैं। उसमें भगत सिंह के चित्र हैं तो गोरख पांडे जैसे जनवादी कवियों के गीत भी हैं। कलाकार पेंटिंग, पोस्टर, फिल्म, नाटक से किसान संघर्ष में ऊर्जा भर रहे हैं। कला का यही धर्म है।
नीता कुमार: सृजन भी, विध्वंस भी
बहुत मुश्किल और पेचीदा काम है नीता कुमार श्रीवास्तव की तस्वीर उकेरना, उनके किरदार को शब्दों में ढालना और उसे समग्रता में पेश कर पाना। किसी को देखने-समझने का सबका अपना नज़रिया और तरीक़ा होता है। कबीराई अंदाज़ से मालामाल रहे मरहूम शायर कहते हैं- हर शख़्स में मौजूद हैं कई एक आदमी/ जिस शख़्स को भी देखना कई बार देखना।
तो पहली बात। मैं नीता जी की इज़्ज़त करता रहा बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि उनसे डरता रहा। एकाध मौक़े पर भले ही उनसे नोंकझोंक हुई लेकिन अमूमन उनके सामने अपनी घिग्घी ही बंध जाया करती थी। बहुत जगह मैं अकड़ू हूं लेकिन उनके सामने सारी ऐंठन झटके में उड़नछू हो जाया करती थी और इसके सिवा कोई चारा नहीं बचता था कि उनकी हां में हां मिलायी जाये। ना जाने क्यों? वह अपने परम मित्र की जीवन संगिनी थीं, शायद इसलिए। लेकिन यह अधूरा सच है इसलिए कि मैं अकेला तो ऐसा था नहीं। बड़े-बड़े तीसमारखां उनके सामने बौने हो जाया करते थे। उनके सामने किसी की कोई बिसात नहीं थी- पति और बेटियों की भी नहीं। तो यही ज़्यादा सच है कि वह बेहद रौबदार थीं और हद दर्ज़े की जिद्दी भी।
प्रो. धर्मेंद्र कुमार जी से अपनी पुरानी दोस्ती है। तब से जब वह कला महाविद्यालय के छात्र हुआ करते थे। शादी के बाद नीता जी भी दोस्त बनीं। लेकिन वह हमारी पुरानी दोस्ती के बीच दीवार भी बनीं, कई बार। दोस्ती कहां टूटती है बशर्ते दोस्ती हो? बस इतना हुआ कि घर आनाजाना थम गया। हम बाहर मिलते रहे- बदस्तूर, बिना नागा। जब-तब घर के पिछड़े गेट से घुसपैठ कर आंगन के कोने की आड़ में भी हमारी गुपचुप बैठकी होती रही।
कोई चार साल पहले ऐसे ही कालखंड का वाक़या है। नीता जी आवाज़ लगाती अचानक गैलरी में आ धमकीं और भगदड़ सी मच गयी। धर्मेंद्र जी गैलरी की ओर भागे तो मैं उस आड़ से सटे शौचालय की ओर। वह आंगन तक पहुंच गयीं। सब कुछ इतना तेज़ी से हुआ कि दरवाज़ा उढ़काने तक का समय नहीं मिला और मैं सिमट कर दरवाज़े के पीछे खड़ा रह गया। कहते हैं कि आपात काल में बुद्धि तेज़ चलती है। सो फ़ौरन मोबाइल को खामोश किया कि कहीं (ख़तरे की) घंटी न बज जाय। लुकाछिपी की इस हालत में कोई पच्चीस मिनट गुज़ारने पड़े। लगा जैसे समय की रफ़्तार सुस्त पड़ गयी हो और हाथ-पैर सुन्न, गला रूखा हो चला। बाद में तो ख़ैर यह वाक़या मुस्कुराने का सबब बन गया।
नीता जी से चल रही खटपट के ऐसे ही दूसरे कालखंड का वाक़या है। अचानक उनकी बड़ी बेटी रोचना कुमार का फ़ोन आया। कहा कि मम्मी-पापा की शादी की सालगिरह पर आयोजन है और उसमें मुझे भी पहुंचना है। मेरे लिए यह न्यौता टूटे संवाद को जोड़ने का भी मौक़ा था। तब भी बेढबी की हद देखिये कि आयोजन में हम तीन यार एक साथ और सबसे बाद पहुंचे- धर्मेंद्र जी, *पारिजात नागर और मैं। पारिजात के हाथ में फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता था जबकि मेरे हाथ में गुलाब का बस एक फूल। दूसरे तोहफ़ों की तरह थैंक यू कहते हुए उन्होंने गुलदस्ता लिया और दूसरे को थमा दिया लेकिन मेरे गुलाब को झुक कर स्वीकारा, और मेरी ख़ैरियत भी पूछी। देर तक वह गुलाब थामे रहीं जैसे कह रही हों कि हमारी बोलचाल बंद ही कहां हुई थी…..बेवकूफ़ कहीं के!
मैं ललित कलाओं के मामले में लगभग अनपढ़ हूं। तो भी दर्शक के रूप में नीता जी के काम को जितना समझा, उसे बहुत संक्षेप में यों बयान कर सकता हूं; नीता जी के चित्रों में रंगों की धमाचौकड़ी नहीं है, कोई उथलपुथल नहीं है और कोई चटकमटक भी नहीं। रंग इत्मीनान में लिपटे हैं, पूरे अनुशासन में हैं, संतुलित हैं। परिवेश और आकृतियां स्थिरचित्त हैं, निर्विकार हैं, निर्दोष हैं, तनाव मुक्त हैं, शोरशराबे से दूर हैं- चाहे उड़ते पंछी ही क्यों न हों। इसे रेखांकित किए जाने की ज़रूरत है कि उनकी कृतियों में पारंपरिक बिंबों को आधुनिक स्पर्श देती लोकशैली की आधारभूमि पूरे ठाठ-ठसक के साथ है। उसका प्रभाव आंखों को ठंडक पहुंचाने, जी को सुकून देने का काम करता है। इन्हीं तमाम ख़ूबियों के चलते वह अपने दौर के महत्वपूर्ण चित्रकारों की क़तार में खड़ी दीखती हैं।
नीता जी के साथ यह उलटबांसी ज़रूर नत्थी रही कि कैनवास पर वह संभावनाओं से लबरेज़ हैं और कैनवास से बाहर उलझावों की शिकार, सुलझने की गुंजाइश को अंगूठा दिखाते हुए। यही दिखा कि चित्रों से बाहर की उनकी दुनिया में जीवन के तमाम रंग गुत्थमगुत्था हैं, अस्थिर हैं, भ्रमित हैं, अनजानी आशंकाओं की गिरफ़्त में हैं और अतिवादिता का शिकार हैं। ठीक अपनी कृतियों की तरह वह जितनी सहज और सरल थीं, उतनी ही टेढ़ी और घुमावदार भी थीं। कभी वह माहौल को ख़ुशनुमा बनाती गुनगुनी बयार थीं तो कभी सब कुछ उखाड़ फेंकने पर आमादा गुस्सैल अंधड़। वह मनमौजी थीं और उनका मन बहुत अस्थिर रहता था- इस पल ओस में भीगा खिलखिलाता गुलाब तो उस पल लाल-पीला होता धधकता शोला, कभी दरियादिल तो कभी सितमगर, इधर बेरहम चट्टान तो उधर बहता निर्मल पानी- चित और पट में कोई भेद नहीं। वह जैसी दिखती थीं, उससे उलट भी हो जाया करती थीं। व्यवहार, आचरण और समझ के स्तर पर परस्पर विरोधी ध्रुवों के बीच उनका आना-जाना लगा रहता था। कहें कि वह पूर्वानुमानों से परे थीं। कब, कहां और किससे क्या कह बैठें, कोई भरोसा नहीं था उनका। बेशक़, उन्हें आसानी से पट्टी पढ़ाई जा सकती थी लेकिन उनसे पार पाना इतना आसान भी नहीं था। इतनी जटिल थीं नीता जी, अबूझ पहेली थीं नीता जी।
लेकिन हां, नीता जी के तमाम रंगों में यह रंग सबसे अव्वल था कि वह कमाल की धुनी थीं। पीछे पड़ गयीं तो पड़ गयीं। इसी मिजाज़ के चलते उन्होंने पाक कला पर महारत हासिल की। ज़ायके पर तगड़ी पकड़ बनायी और पकवानों में बख़ूबी प्रयोग भी किये। मेरी जीभ इसकी गवाह है। वह ऐसे चाव से खिलाती थीं गोया खानेवाला उन पर अहसान कर रहा हो। इस मायने में वह ख़ालिस देसी थीं।
यह 1994 की बात है। इंसानी बिरादरी की ओर से बाराबंकी के देवा ब्लाक में लंबी यात्रा निकलनी थी। विषय था- बाल अधिकार। इसके लिए धर्मेंद्र जी ने बैलगाड़ी को झोंपड़ी का आकार दिया और नीता जी ने उसकी लोक शैली में अनोखी सज्जा की। यह थकाऊ काम उन्होंने बिना थके पूरा किया, इस कदर उसमें रम गई थीं। तीन साल बाद देवा ब्लाक में ही इक्का यात्रा निकली। विषय था- महिला अधिकार। इक्के की सजावट के लिए उन्हें कुछेक दिन देवा जाना पड़ा। देवा पहुंचतीं कि काम पर जुट जातीं। छक कर मेहनत करतीं लेकिन अपनी थकन और मेहरबानी का तनिक भी इज़हार नहीं करतीं। यह उनका बड़प्पन था।
कहना होगा कि धुन के इसी पक्केपन ने आगे चल कर कला गांव की परिकल्पना रची और उसकी नींव धरी, नाम के अनुरूप उसे लोक रस से सराबोर किया, चर्चित बना दिया। यह सबसे पहले और सबसे अधिक जुनूनी नीता जी का कारनामा था।
अचरज होता है कि इतना रचनात्मक व्यक्तित्व आख़िर विध्वंसक कैसे हो सकता है। औरों की छोड़िये, वह तो ख़ुद को भी ख़ूब छकाती-सताती थीं। इसी फ़ितरत ने उनकी सेहत पर हमला बोला। जैसे वह किसी की परवाह नहीं करती थीं, वैसे ही अपनी सेहत के मामले में भी बेहद लापरवाह थीं। एहतियात और परहेज़ को जैसे उन्होंने अपने शब्दकोश से खदेड़ रखा था। वह अपनी मर्ज़ी की मालकिन थीं, चाहे सब कुछ जाये भाड़ में। इसी ज़िद में उन्होंने अपनी मौत को ख़ुद दावत दी।
किसी को भी ऐसा गुनाह नहीं करना चाहिए। इससे बचने का सीधा सा रास्ता है कि समाज और लोगों को बार-बार देखा जाये, और उससे पहले ख़ुद को देखा-समझा-परखा जाये, लगातार। कबीर साहब की यह बानी गांठ बांध कर रखी जाये कि- जीवन केरा बुलबुला आस मानुस की जात/ देखत ही छिप जायेगा ज्यों तारा प्रभात। नीता जी के किरदार की समीक्षा का यही सबक़ है।
*नीता जी के बाद पारिजात नागर (लखनऊ विवि के मानव शास्त्र संग्रहालय के प्रभारी और अमृतलाल नागर के पौत्र) ने भी दुनिया छोड़ी। दोनों कई मामलों में इकजैसे थे। हां मगर, भरपूर रचनात्मक ऊर्जा के बावजूद नीता जी से ठीक उलट वह धुन के बहुत कच्चे थे।
(प्रो. नीता कुमार के व्यक्तिव और कृतित्व पर केंद्रित पुस्तिका से)