गांधी जी के शहादत दिवस पर उनको विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए एवं उन्हें नमन करते हुए उनके द्वारा की गई पत्रकारिता पर एक नजर डालेंगे कि बापू एक पत्रकार के रूप में किस तरह अपने पेशे को निखार रहे थे। हम गांधी जी की पत्रकारिता को यंग इंडिया पत्रिका से देखने का प्रयास करेंगे ।
यंग इंडिया एक साप्ताहिक पत्रिका थी जिसे महात्मा गांधी प्रकाशित करते थे। पत्रिका अंग्रेजी में निकलती थी। गांधीजी ने अपने विचार एवं दर्शन को प्रसारित करने लिए आरम्भ किया था। इसके लेखों में अनेक सूक्तियाँ होती थीं जो लोगों के लिए महान प्रेरणा का कार्य करती थीं
वह असहयोग आंदोलन का दौर था। जलियांवाला बाग और चौरी चौरा जैसी बड़ी घटनाएं हो चुकी थीं। उसी पृष्ठभूमि में महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में विभिन्न तिथियों को तीन लेख लिखे। पहला लेख 29 सितंबर 1921 को, दूसरा लेख 15 दिसंबर 1921 को और तीसरा लेख 23 फरवरी 1922 को प्रकाशित हुआ। पहले लेख का शीर्षक था ‘टेंपरिंग विद लॉयल्टी’; दूसरा लेख था ‘द पजल एंड सॉल्यूशन’ और तीसरा लेख था ‘शेकिंग द मेन्स’। इन आलेखों में हिंसा करने वाले अपने देशवासियों की निंदा की गई थी लेकिन अंग्रेजी हुकूमत को देश को बर्बाद करने वाला बताया गया था।
इन्हीं लेखों को आधार बनाते हुए महात्मा गांधी को अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से 10 मार्च 1922 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर भारतीय दंड संहिता में बाद में जोड़ी गई राजद्रोह की धारा 124ए के तहत मुकदमा चलाया गया। इस मामले की सुनवाई एक दिन में संपन्न हुई और गांधी को राजद्रोह के अपराध के तहत छह साल की सजा सुनाई गई।
इस मुकदमे की खासियत सिर्फ इतनी नहीं है। वकील एजी नूरानी ने इस मुकदमे का वर्णन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द ग्रेट इंडियन ट्रायल्स’ में किया है। दरअसल, यह मुकदमा पूरे न्यायशास्त्र की परिभाषा को बदल कर रख देने वाला है। यहां पर गांधी कानूनी सबूत और दलीलों से नहीं लड़ रहे हैं। वे कानून के समक्ष सत्य और नैतिकता के आधार पर लड़ रहे हैं। उन्हें सजा पाना मंजूर है लेकिन सत्य के साथ समझौता करना कतई मंजूर नहीं है।
जब देश में 17वीं लोकसभा के चुनाव के मद्देनजर राजद्रोह की धारा 124ए को खत्म करने और उसे बनाए रखने की चर्चा जोर-शोर से चल रही हो तब पत्रकारिता के विद्यार्थियों को यह मुकदमा और उसका नैतिक संदेश पढ़ाया जाना चाहिए। 10 मार्च, 1922 को गिरफ्तार किए गए गांधी पर यह मुकदमा 18 मार्च, 1922 को सिर्फ एक दिन चलाया गया और उसी दिन उन्हें सजा मुकर्रर कर दी गई। चूंकि तब तक गांधी की लोकप्रियता काफी बढ़ चुकी थी इसलिए इस मुकदमे की सुनवाई अहमदाबाद के बीच में स्थित सत्र न्यायालय परिसर में न करके सरकारी सर्किट हाउस में की गई।
उस मुकदमे का वर्णन न्यायमूर्ति शीतल अपनी किताब ‘ट्रायल आफ गांधीजी’ में बेहद रोचक ढंग से करते हैं। वे लिखते हैं कि जब गांधी जी अदालत में आए तो वहां तकरीबन 200 लोग मौजूद थे। उनके न्यायालय में प्रवेश करते ही आरएस ब्रूमफील्ड समेत सारे लोग खड़े हो गए। गांधी जी ने जब अदालत में स्थान ग्रहण किया तो सरोजिनी नायडू बगल में बैठीं। सरोजिनी नायडू को लक्ष्य करके उन्होंने कहा कि तुम मेरे बगल इसलिए बैठी हो ताकि मैं कमजोर न पडूं। लग रहा है कि यह एक किस्म की फैमिली गैदरिंग है। उस समय अदालत में यंग इंडिया के प्रबंधक उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर भी मौजूद थे। रजिस्ट्रार ने चार्ज पढ़े और एडवोकेट जनरल सर थामस स्ट्रैंगमैन ने कहा कि रोलैट एक्ट और जलियांवाला बाग कांड के विरुद्ध यंग इंडिया में छपे तीनों लेखों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। एजी ने कहा कि जज महोदय को इन लेखों और बांबे, मालाबार और चौरी चौरा की घटनाओं को जोड़ कर देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि लेख में अहिंसा की शिक्षा दी गई है जबकि समाज में हिंसा फैल रही है। ऐसी स्थिति में अहिंसा का क्या मतलब रह जाता है।
वकील के आरोपों के जवाब में गांधी ने कहा: ‘’मैं अपराध स्वीकार करता हूं। मैं या तो उस शासन के समक्ष समर्पण कर दूं जिसने देश को बर्बाद किया है या अपनी जनता को पागल हो जाने दूं। इसलिए मैं सबसे ज्यादा दंड स्वीकार करने को तैयार हूं।”
गांधी ने कहा कि आइपीसी कानून की धारा 124ए को आईपीसी की सभी राजनीतिक धाराओं में राजकुमार का दर्जा हासिल है। हालांकि तमाम राजनीतिक धाराओं का मकसद जनता की आजादी को कुचलना है लेकिन राजद्रोह की इस धारा का विशेष उद्देश्य है। गांधी ने कहा कि ‘’मैं अपराध स्वीकार करता हूं, बल्कि मुझ पर लगे आरोपों में बादशाह को लक्ष्य करने का उल्लेख हटा दिया गया है। उसे भी शामिल किया जाना चाहिए।‘’
इस मुकदमे के नैतिक पहलू पर टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति शेलाट कहते हैं कि यहां गांधी सुकरात के बराबर हो जाते हैं क्योंकि वे कानून के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए सच्चाई को उससे ऊपर मानते हैं। वे सत्य के लिए कानून तोड़ने के कर्म को सहज स्वीकार करते हैं। सजा सुनाते हुए जज ब्रूम्सफील्ड लिखते हैं कि अभियुक्त बेहद पढ़ा-लिखा है। उसकी समाज में बहुत प्रतिष्ठा है। हम उसे कानून के तहत सजा दे रहे हैं लेकिन अगर सरकार उनकी सजाएं माफ करती है तो उसे सबसे ज्यादा खुशी होगी।
गांधी गिरफ्तार करके 21 मार्च को पुणे की येरवदा जेल में भेज दिए जाते हैं। वहां कठोर यातना सहते हुए उन्हें लिखने-पढ़ने का अवसर मिलता है। इसी कारावास के दौरान वे अपनी दो प्रसिद्ध पुस्तकें ‘सत्य के प्रयोग’ अथवा आत्मकथा और ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ लिखते हैं। इस दौरान उन्होंने जितना अध्ययन किया उन किताबों की सूची बहुत लंबी है। बाद में उन्हें एपेंडिसाइटिस की बीमारी होती है और एक अंग्रेज डाक्टर उनका आपरेशन करता है और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें छोड़ दिया जाता है।
गांधी अखबारों के नियमित पाठक 19 साल की उम्र में इंग्लैंड पहुंचने के बाद बने। भारत में अपने स्कूली जीवन के दौरान उन्होंने अखबार नहीं पढ़ा। वे इतने शर्मीले थे कि किसी की मौजूदगी में उन्हें बोलने में भी झिझक होती थी। 21 की उम्र में उन्होंने पहले नौ लेख शाकाहार के ऊपर एक अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द वेजिटेरियन’ के लिए लिखे। इसमें शाकाहार, भारतीय खानपान, परंपरा और धार्मिक त्यौहार जैसे विषय शामिल थे। उनके शुरुआती लेखों से ही यह आभास हो जाता है कि उनमें अपने विचारों को सरल और सीधी भाषा में व्यक्त करने की क्षमता थी।
दो साल के अंतराल के बाद गांधी ने एक बार फिर से पत्रकारिता की कमान थामी। इसके बाद उनकी लेखनी ने जीवन के अंत तक रुकने का नाम नहीं लिया। उन्होंने कभी भी कोई बात सिर्फ प्रभाव छोड़ने के लिए नहीं लिखी, न ही किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। उनके लिखने का मकसद था सच की सेवा करना, लोगों को जागरूक करना और अपने देश के लिए उपयोगी सिद्ध होना।
दक्षिण अफ्रीका आने के तीसरे दिन ही उन्हें कोर्ट में अपमानित किया गया। उन्होंने इस घटना का विवरण एक अखबार में लेख लिखकर सबको दिया और रातोंरात सबके चहेते बन गए। 35 की उम्र में उन्होंने ‘इंडियन ओपिनियन’ की जिम्मेदारी संभाली और इसके जरिये उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में मौजूद भारतीयों को एकजुट करने का काम किया। इसका गुजराती संस्करण भी ‘फीनिक्स’ के साथ ही प्रकाशित होता था। गुजराती संस्करण में खानपान संबंधी लेखों के अलावा महान व्यक्तियों की कहानियां और चित्र प्रकाशित होते थे। हर संस्करण में गांधीजी का लिखा लेख जरूर होता था। सहायता के लिए एक संपादक भी था लेकिन सारा बोझ गांधी के कंधे पर ही होता था।
वे लोगों के विचारों को बदलना चाहते थे, भारतीयों और अंग्रेजों के बीच मौजूद गलतफहमियों को दूर करना चाहते थे और साथ ही भारतीयों की कमियों की तरफ भी उनका इशारा होता था। वे अपने लेखों में पूरी ताकत झोंक देते थे। दक्षिण अफ्रीका में शुरू किए गए सत्याग्रह की उपयोगिता लोगों को समझाने के लिए उन्होंने विस्तृत लेख लिखे।
उनके लेखों से विदेशों में मौजूद उनके पाठक दक्षिण अफ्रीका में चल रही स्थितियों से वाकिफ होते रहते थे। उनके प्रतिष्ठित पाठकों में भारत में गोपाल कृष्ण गोखले, इंग्लैंड में दादाभाई नौरोजी और रूस में टॉलस्टॉय शामिल थे। दस सालों तक गांधी ने इन साप्ताहिकों के लिए अथक मेहनत की। उन्हें हर संस्करण के प्रकाशन के बाद हर हफ्ते दो सौ से ज्यादा पत्र आते थे। वे उन सबको ध्यान से पढ़ते थे और फिर उन्हें अपनी पत्रिका में शामिल करते थे ताकि ‘इंडियन ओपिनियन’ के पाठकों को उनसे फायदा हो।
गांधी समझ गए थे कि अखबार उनके विचारों को फैलाने का सबसे ताकतवर जरिया हो सकते थे। वे एक सफल पत्रकार थे लेकिन उन्होंने कभी भी पत्रकारिता को अपनी आजीविका का आधार बनाने की कोशिश नहीं की। उनकी राय में पत्रकारिता एक सेवा थी।
पत्रकारिता कभी भी निजी हित या आजीविका कमाने का जरिया नहीं बनना चाहिए और अखबार या संपादक के साथ चाहे जो भी हो जाय लेकिन उसे अपने देश के विचारों को सामने रखना चाहिए, नतीजे चाहे जो हों। अगर उन्हें जनता के दिलों में जगह बनानी है तो उन्हें एकदम अलग धारा का सूत्रपात करना होगा।
महात्मा गांधी
जब उन्होंने ‘इंडियन ओपिनियन’ की जिम्मेदारी संभाली उस समय उसकी प्रसार संख्या 400 थी और वह अपना असर खो रहा था। कुछ महीनों तक गांधी को इसमें 1200 रुपये प्रतिमाह निवेश करना पड़ा। कुल मिलाकर इस प्रक्रिया में उन्हें 26,000 रुपये का नुकसान हुआ। इतने बड़े नुकसान के बावजूद एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने अखबार में प्रकाशित होने वाले सारे विज्ञापनों पर रोक लगा दी ताकि वे अपने विचारों को ज्यादा से ज्यादा स्थान दे सकें। उन्हें पता था कि अगर वे विज्ञापन लेते रहे तो वे अपने विचारों और सच की सेवा और आजादी को बनाए नहीं रख पाएंगे। उन्होंने अपनी पत्रिका का प्रसार बढ़ाने के लिए किसी गलत तरीके का इस्तेमाल नहीं किया, न ही कभी दूसरे अखबारों से स्पर्धा की।
भारत में भी वे इन सिद्धांतों पर कायम रहे। तीस साल तक उन्होंने बिना किसी विज्ञापन के अपना प्रकाशन जारी रखा। उनकी सलाह थी कि हर राज्य में विज्ञापन का सिर्फ एक ही तरीका होना चाहिए, ऐसी चीजें प्रकाशित हों जो आम लोगों के काम की हों। ‘यंग इंडिया’ का संपादकीय संभालने के बाद वे एक गुजराती अखबार निकालने के लिए उत्सुक थे। अंग्रेजी का अखबार निकालने में उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी। उन्होंने हिंदी और गुजराती में ‘नवजीवन’ के नाम से नया प्रकाशन शुरू किया। इसमें वे रोजाना लेख लिखते थे। उन्हें यह बात बताने में गर्व का अनुभव होता था कि नवजीवन के पाठक किसान और मजदूर हैं जो कि असली हिंदुस्तान है।
काम के अतिशय बोझ के चलते उन्हें देर रात तक या फिर सुबह से ही काम करना पड़ता था। वे अकसर चलती ट्रेन में लिखते थे। जब उनका एक हाथ लिखने से थक जाता तो वे दूसरे हाथ से लिखने लगते। तमाम व्यस्तताओं के बीच भी वे रोजाना तीन से चार लेख लिखते थे।
भारत में उन्होंने कोई भी अखबार घाटे में नहीं चलाया। अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के अखबारों की प्रसार संख्या 40 हजार के आसपास थी। जब उन्हें जेल हो गई तब इनकी प्रसार संख्या 3000 तक आ गई। जब वे पहली बार जेल से बाहर निकले तो उन्होंने हर संस्करण में अपनी आत्मकथा छापने का सिलसिला शुरू किया। यह तीन साल तक लगातार प्रकाशित होता रहा और इसने पूरी दुनिया में हलचल पैदा की। गांधीजी ने लगभग सभी भारतीय अखबारों को अपनी जीवनी छापने की छूट दे रखी थी।
जेल में रहते हुए उन्होंने एक और साप्ताहिक ‘हरिजन’ का प्रकाशन शुरू कर दिया। ‘यंग इंडिया’ की तरह ही इसकी भी कीमत एक आना थी। यह अछूतों को समर्पित था। वर्षों तक इसमें कोई राजनीतिक लेख प्रकाशित नहीं हुआ। पहले इसे हिंदी में निकाला गया। गांधी को जेल में रहते हुए हफ्ते में तीन लेख लिखने की छूट थी। इसका अंग्रेजी संस्करण शुरू करने के प्रस्ताव पर उन्होंने अपने एक मित्र को चेतावनी दी, ‘खबरदार यदि आपने अंग्रेजी संस्करण निकाला। हरिजन जब तक पूरी तरह स्थापित न हो जाय, पढ़ने लायक लेख न हों और ट्रांसलेशन स्तरीय न हो तब तक नहीं। हिंदी संस्करण के साथ संतोष करना बेहतर है, आधा-अधूरा अंग्रेजी संस्करण निकालने के। मैं तब तक ऐसा नहीं कर सकता जबतक कि यह अपने पैरों पर खड़ा न हो जाय।’
उन्होंने शुरुआत में तीन महीने तक 10,000 कॉपी प्रकाशित करने का लक्ष्य रखा था। दो महीनों के दौरान ही यह अपने पैरों पर खड़ा हो गया। बाद में यह विचारों का बेहद लोकप्रिय पत्र बनकर उभरा। लोग इसे किसी मनोरंजन के लिए नहीं पढ़ते थे बल्कि गांधीजी से निर्देश लेने के लिए पढ़ते थे। यह हिंदी, उर्दू, गुजराती, तमिल, तेलुगू, उड़िया, मराठी, कन्नड़, बंगाली भाषाओं में प्रकाशित होता था। गांधी अपने लेख हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती और उर्दू में लिखते थे। उनके अखबारों में कभी कोई सनसनीखेज समाचार नहीं होता था। वे बिना थके सत्याग्रह, अहिंसा, खानपान, प्राकृतिक चिकित्सा, हिंदू- मुस्लिम एकता, छुआछूत, सूत कातने, खादी, स्वदेशी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और निषेध पर लिखते थे। वे शिक्षा व्यवस्था के बदलाव और खानपान की आदतों पर जोर देते थे। वे कठोर टास्कमास्टर थे। उनके सचिव महादेव देसाई को अक्सर ट्रेन के शौचालय में बैठकर काम करना पड़ता था ताकि गांधीजी के काम समय पर पूरे हो सकें।
उनके सहयोगियों को एक-एक ट्रेन के स्टेशन पर पहुंचने का समय और पोस्टल डिस्पैच का समय पता रहता था ताकि गांधीजी के लेखों को समय से पहुंचाया जा सके। एक बार गांधी ट्रेन में यात्रा कर रहे थे और ट्रेन लेट होने के कारण उनका लेख समय से डिस्पैच नहीं हो सका लिहाजा संदेशवाहक ने उनका अंग्रेजी लेख भेज दिया और वह अहमदाबाद की बजाय मुंबई से समय रहते प्रकाशित हो गया।।
गांधी को भारत में पहली बार ‘यंग इंडिया’ में उनके आक्रामक लेख के कारण जेल हुई। उन्होंने कभी भी सरकार द्वारा जारी किसी भी प्रतिबंध को नहीं माना। जब उन्हें अपने विचारों को लिखने से रोका गया तो उन्होंने लिखना ही बंद कर दिया। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि वे जब चाहेंगे, अपने पाठकों को अपने विचारों से अवगत करवा देंगे और अपनी बात को प्रसारित कर लेंगे। उन्हें पता था कि उनके अखबार को भले ही दबा दिया जाय पर उनके जिंदा रहते विचारों को नहीं दबाया जा सकता। उन्हें भरोसा था कि प्रिंटिंग रूम या कंपोजिटर के अभाव में भी उनके हाथ से लिखे कागज के टुकड़े उनके लिए बेहतर हथियार होंगे।
गांधीजी 1919 में एक साप्ताहिक ‘सत्याग्रह’ के नाम से निकालते थे जो रजिस्टर्ड नहीं था। सरकार के आदेशों की अवहेलना करके वे ऐसा कर रहे थे। एक पन्ने का यह पत्र एक पैसे में बिकता था।
वर्षों तक खुद एक शानदार पत्रकार होने के नाते वे पत्रकारिता और उसकी परंपराओं पर पूरे अधिकार से बोलते थे, ‘अखबारवाले बीमारी के वाहक बनते जा रहे हैं। अखबार तेजी से लोगों के गीता, कुरान और बाइबिल बनते जा रहे हैं। एक अखबार यह अनुमान तो लगा सकता है कि दंगे होने वाले हैं और दिल्ली में सभी लाठियां और चाकू बिक गए हैं। एक पत्रकार की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को बहादुरी का पाठ सिखाए न कि उनके भीतर भय पैदा करे।‘
लेखक ग्रेटर नोएडा स्थित गलगोटियाज यूनीवर्सिटी में पत्रकारिता के छात्र एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं