स्मृतिशेष: कवि का कमरा, कवि की दुनिया


मुझ जैसे कई को हिंदी संसार में लाने वाले लेखक-कवि विष्णुचंद्र शर्मा नहीं रहे। उनकी मृत्यु की ख़बर से मैं हिल गया। विष्णुजी के जाने से मैं फिर से यतीम हो गया।

लिखने को तो किसी भी साहित्यकार पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन उस लेखन में कितना सच होता है यह तो वह साहित्यकार ही ठीक बता सकता है जबकि लिखने वाला जानता है कि उसने कितना हक़ीकत और कितना उससे बाहर लिखा है। वैसे भी यह प्रायोजित युग है जहां खबर ही नहीं, विचार भी प्रायोजित होता है। साहित्य हालांकि खबर से अलग होता है। साहित्यकार भी। विष्‍णुजी प्रयोजन की इस दुनिया से एकदम अलग थे। अकेले।

तमाम शोरगुल, आत्म-प्रशंसा और प्रचार से दूर रह कर विष्णुजी आजीवन चुपचाप अपने लेखन और सृजन कर्म में लगे रहे। जैसे मुक्तिबोध के जीवनकाल में उनका मूल्यांकन नहीं किया मठाधीशों ने और उनके जाने के बाद उन्हें खूब खोज कर पढ़ा गया, उसी तरह। उसी कवि मुक्तिबोध और विद्रोही कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम की जीवनी लिखने वाले लेखक थे विष्णुचंद्र शर्मा।

विष्णुजी की डेढ़ दर्जन से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं। हिंदी के आलोचकों ने विष्णुचंद्र शर्मा के लेखन का मूल्यांकन आज तक नहीं किया है जबकि विष्णुजी ने साहित्य की हर विधा पर लिखा है| ‘अनुभव की बात कबीर कहैं’, विष्णुचंद्र शर्मा यह जानते थे। राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचन्द और फिर नेहरू–गाँधी से होते हुए अब के मोदी-अम्बानी-अडानी के भारत को विष्‍णुजी ने करीब से देखा और परखा। विष्णुचंद्र शर्मा ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ को शांति निकेतन से हट के भी देखा था। बनारस से भूटान की यात्रा करते हुए यूरोप-अमेरिका की कविता यात्राएं की हैं। अपने दौर के खाये पीये अघाये कवि, सम्पादकों को देखा और जाना।

ऐसे अनुभवी कवि को मैंने बहुत करीब से देखा समझा है। यह मेरे लिए ख़ुशी की बात है कि मुझे इस यायावर फक्कड़ कवि का स्नेह और मार्गदर्शन मिला है। विष्णुचंद्र शर्मा से पहली बार किस तारीख को मिला था, याद नहीं। इतना याद है कि 2005 में एमए की फाइनल परीक्षा के बाद छुट्टियों में दिल्ली आया हुआ था और विष्णुजी की पत्रिका ‘सर्वनाम’ हाथ लगी। अंक था ‘लेखक का घर’। पढ़ कर जेएनयू के शापिंग सेंटर पर लगे कॉइन बॉक्स वाले फोन से उनको फोन मिलाया।

हैलो, कौन? हमने कहा– प्रणाम सर, मैं नित्यानंद गायेन हूं, अभी सर्वनाम का ‘लेखक का घर’ अंक पढ़ा। पढ़कर मुझे लगा कि यह अंक और बेहतर हो सकता था और जिनसे आपने इस अंक में लिखवाया है क्या उन्होंने लेखक के बारे में सब कुछ सही और ठीक लिखा है?

उधर से विष्णुजी ने पूछा– तुम यह सब बातें एक पत्र के जरिये लिख भेजो, मैं छापूंगा अगले अंक में। फिर उन्होंने मुझसे पूछा– तुम क्या करते हो? हमने उन्हें बताया कि अभी मानवाधिकार विषय से एमए की फाइनल इयर की परीक्षा दी है। उन्होंने पूछा– आगे क्या करना चाहते हो? मैंने बताया कि इसी विषय पर शोध करने का मन है और मैं तीसरी दुनिया के देशों को इसमें शामिल करना चाहता हूं।

यह सुनकर विष्णुजी ने कहा– लातिन अमेरिकी देशों को भी क्यों नहीं शामिल करते? क्यूबा, बोलि‍विया के बारे में पढ़ो और एक दिन आओ, हमसे मिलो।

बात हुई और हम भूल गये। फिर कुछ समय बाद हमने उनकी किताब ‘अग्निसेतु’ देखी। मेरे पास पैसे नहीं थे कि उस किताब को खरीद पाता पर मैं उसे पढ़ना चाहता था क्योंकि यह विद्रोही कवि नज़रुल इस्लाम की जीवनी है और हिंदी में यह पहली किताब है। कुछ दिन बाद हमने फिर उन्हें फोन किया और मिलने की इच्छा जतायी। वे तुरंत बोले- ठीक है, आ जाओ। उन्होंने मुझे रास्ता बता दिया कि कैसे आना है|

हौज खास से विश्वविद्यालय वाली मेट्रो पकड़ कर पहले कश्मीरी गेट उतरे, फिर वहां से शेयर ऑटो में बैठकर भजनपुरा और वहां से सआदतपुर गली संख्या 5 के सामने उतर कर ई-11 पहुंचे। लोहे का एक ज़ंग लगा गेट, बड़ा सा बगीचा और बगीचे के अंदर बड़ा सा घर, जिसका सामने वाला दरवाजा खुला हुआ था और कमरे की फर्श पर एक कुत्ता बैठा हुआ था। कमरे में तख़्त था जिस पर दो पैर नज़र आ रहे थे। जैसे ही हमने लोहे के गेट को खोलने के लिए हाथ लगाया, कुत्ता तेज भौंकता हुआ दौड़ के आ गया। अंदर से आवाज़ आयी– कौन?

हमने कहा– जी, मैं नित्यानंद। विष्णुजी ने कुत्ते को ‘शेरू’ कह कर बुलाया- शेरू चलो अंदर… जाओ। मैं अंदर घुसा, शेरू अब धीरे से भौंकते हुए मुझे सूंघने लगा, फिर शांत हो गया। विष्णुजी दीवान से उठकर बाहर आ चुके थे। चेहरे पर सफ़ेद दाढ़ी, बनियान और लुंगी पहने हुए विष्णुजी ने मुझे बहुत स्नेह से भीतर ले जाकर पानी दिया, फिर खुद चाय बना लाये। जब वे चाय बना रहे थे मैं उनके कमरे को गौर से देखने लगा। खूब सारी किताबें, पत्रिकाएं और कमरे में खूब जालियां, किन्तु किताबें बहुत व्यवस्थित तरीके से सजी हुई थीं। बाहर हरा-भरा बगीचा, बगीचे में अमरूद और जामुन सहित कई फलदार पेड़ और मनीप्लांट।

चाय पीते हुए विष्णुजी ने मेरे हाथ में एक बिस्कुट देते हुए कहा– ये शेरू है, मेरा साथी, एक बिस्कुट तुम खाओ और एक इसे खिलाओ , दोस्ती हो जाएगी। हमने शेरू को एक बिस्कुट दिया और चाय पीने लगे। विष्णुजी ने मेरे बारे में विस्तार से पूछा, मसलन मैं कहां से हूं और कहां–कहां से पढाई की है। हमने उन्हें शर्माते हुए बताया अपने बारे में। उन्होंने मुझसे अगला सवाल किया– कुछ लिखते भी हो? फिर बहुत झिझकते हुए कहा हमने, जी, कविताएं लिखता हूं कभी–कभी।

मैंने उन्हें बताया कि मैं बाबा नागार्जुन से भी मिला हूं और उनकी कविताएं मुझे पसंद हैं। फिर उन्होंने अपने और नागार्जुन के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि वे ही बाबा को सआदतपुर ले आये थे और बताया कि यहीं पर बाबा के नाम पर एक जगह भी है। यहीं कथाकार महेश दर्पण रहते हैं, यहीं गज़लकार और ‘अलाव’ के सम्पादक रामकुमार कृषक रहते हैं, राधेश्याम तिवारीजी, रूपसिंह चन्देल आदि सबके बारे में बताया।

मैं सुन रहा था और सोच रहा था लेखक के कमरे के बारे में। लेखक का कमरा ऐसा ही होना चाहिए। मैंने उनसे कहा– मुझे अग्निसेतु चाहिए। उन्होंने अग्निसेतु और मंजरी उपन्यास की एक–एक प्रति मुझे दी और कहा– पढ़कर मुझे पत्र लिखोगे। मैंने कहा- जी। फिर उन्होंने कहा- अगली बार जब आओ तो तुम क्या लिखते हो वो लेते आना। मैंने कहा जी गुरूजी। फिर उन्हें प्रणाम कर मैं वहां से निकल आया। रास्ते भर सोचता रहा कि एक इतने बड़े कवि-सम्पादक के मन में मुझ जैसे युवा के लिए पहली ही मुलाकात में इतना प्रेम और स्नेह! बड़े लेखक की यही पहचान होती है।

आज न विष्णुजी हैं, न ही उनका वो पुराना घर। वो घर अब मित्र निधि बन गया है।

मेरा एमए का रिजल्ट आ गया, मैं पास हो गया। मैंने फोन पर विष्णुजी को सूचना दी। वे बहुत खुश हुए और मुझे आने के लिए कहा। मैंने कहा अभी नहीं आ सकता, कुछ दिन बाद आऊंगा। अभी मुझे पांडिचेरी जाना है। उन्होंने कहा ठीक है, पर जब भी दिल्ली आओ मुझसे मिलो अपनी कविताओं के साथ।

मैं दिल्ली से चला गया। यूनिवर्सिटी से सभी ज़रूरी काम खत्म कर जनवरी 2006 में फिर दिल्ली आया। आते ही पहले मैंने अग्निसेतु को पढ़ना शुरू कर दिया। अग्निसेतु को पढ़ते हुए विष्णुजी के भीतर बसे नज़रुल को महसूस किया मैंने। उस किताब में डायरी के पन्ने में उन्होंने नज़रुल से मिलने का अनुभव चित्रण किया, उसे पढ़कर मैं भावुक हो उठा। अग्निसेतु को लिखने के लिए कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी में उनका घंटों तक अध्ययन करना, बांग्ला पढ़ना सीखना एक प्रेरणादायक उपलब्धि थी मेरे लिए। अग्निसेतु पढ़ने के बाद मैंने उन्हें फोन पर बताया कि ऐसी जीवनी मैंने अब तक नहीं पढ़ी थी और पढ़ते हुए बहुत भावुक हो गया था। ऐसा कभी राजेन्द्र यादव का ‘सारा आकाश’ पढ़कर हुआ था मेरे साथ। ‘शेखर: एक जीवनी’ पढ़कर भी हुआ था, किन्तु नज़रुल की बात ही कुछ और है। विष्णुजी खुश हुए और कहा– तुम बहुत भावुक हो, अपने संघर्ष से लड़ना सीखो और कविताएं लिखो।

कुछ दिनों बाद फिर मैं उनसे मिलने गया। अब मैं उनके ज्यादा करीब था। इस बार रसोई में जाके चाय मैंने बनायी और हमने खूब बातें की। यह सिलसिला यूं ही चलता रहा। फिर एक दिन उन्होंने मुझे पत्र लिख कर ‘सर्वनाम’ के लिए एक कविता भेजने को कहा। मैंने अपनी एक कविता ‘गेंद हूं’ उन्हें भेज दी। मुझे लगा उन्हें पसंद नहीं आएगी, पर जब ‘सर्वनाम’ का 80वां अंक डाक से मेरे पास आया, उस लिफाफे के ऊपर लिखा था कवि श्री नित्यानंद गायेन। मैं बहुत खुश हुआ। पत्रिका निकालकर देखा, कवर पेज पर मेरी वो कविता छपी थी। किसी साहित्यिक पत्रिका में छपने वाली वह मेरी पहली कविता थी। उससे पहले कई समाचार पत्र–पत्रिकाओं में मेरे कई लेख/रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी थी पर पहली प्रकाशित कविता वही थी।

विष्णुजी ने मुझसे कहा कि मानवाधिकार पर कुछ लिख कर ‘जनसत्ता’ में अशोक शास्त्री को भेजो और कुछ कविताएं ‘जनपक्ष’ में भेज दो। मैंने दोनों जगह भेज दी। जनवरी 2006 के ‘जनसत्ता’ के एक अंक में मुद्दा कॉलम में मेरा लेख छपा। शीर्षक था– लोकतंत्र और मानवाधिकार। इसकी सूचना भी सबसे पहले मुझे विष्णुजी ने फोन पर दी। सुबह–सुबह मेरे पास फोन आया– जनसत्ता में तुम्हारा लेख छपा है, अच्छा लिखा है तुमने!

इस लेख को पढ़कर मुझे भोपाल की एक सामाजिक संस्था ने नौकरी के लिए बुलाया। मुझे नौकरी मिल गयी और मैं भोपाल चला गया। उस संस्था में मैंने एक साल तक नौकरी की और जब देखा कि वहां बहुत कुछ गड़बड़ हो रहा है, तो मैंने संस्था के खिलाफ़ लिखना शुरू कर दिया और संस्था एक साल तक पूरे मध्यप्रदेश में मेरा ट्रांसफर करती रही पर मैंने उनके खिलाफ़ अपनी मुहि‍म जारी रखी। इसके दसवें महीने में मुझे वो नौकरी छोड़ देनी पड़ी। नौकरी छोड़ने के बाद मैंने उस संस्था की अनियमितताओं के खिलाफ़ खुलकर सर्वनाम में लिखा, जिसे पढ़कर विष्णुजी ने अपने ‘खुला पन्ना’ में लिखा था कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।

अब सर्वनाम का सम्पादन रजत कृष्ण कर रहे थे। मैं पूरी तरह से बेरोजगार। खूब कविताएं उग आयीं। उन्हें कागज पर उतार दिया और कुछ समय के लिए अपनी एक दोस्त के कहने पर हैदराबाद चला गया। हैदराबाद से दो हिंदी अख़बार निकलते हैं- डेली हिंदी मिलाप और स्वतंत्र वार्ता। एक दोस्त की मदद से मिलाप की ‘राजभाषा पत्रिका’ में मुझे अनुवादक और सह-उपसंपादक की नौकरी मिल गयी। कुछ ट्यूशन भी मिले। अब कुछ राहत मिली। मैं अब खुश था, किन्तु मुझे विष्णुजी याद आते रहे। उनके पत्र मिलते रहे लगातार।

वे अपने हर पत्र में मुझसे कहते– तुम्हारा संघर्ष ही तुम्हें एक मजबूत कवि बना सकता है। अपने संघर्ष से निरंतर लड़ो। यही बात मैंने मध्य प्रदेश में आदिवासियों और किसानों के बीच काम करते हुए उनके जीवन से सीखी थी।

2009 में दिल्ली आया। अपनी कविताएं लेकर एक दिन उनसे मिलने गया। इस बीच कई पत्रिकाओं में मेरी कुछ कविताएं प्रकाशित हो चुकी थीं और विष्णुजी मेरी कविताएं पढ़ कर बहुत खुश होते थे। मैंने अपनी कविताओं की फाइल उन्हें दे दी। उस दिन हमने साथ भोजन किया। मैंने जाने से पहले उन्हें फोन कर दिया था। उस दोपहर जब मैं पहुंचा तो देखा कि विष्णुजी थाली में भोजन लिए मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मेरी आँखें गीली हो गयीं। मैंने खुद को संभालते हुए उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने कहा– इन्सान रहने दो, देवता मत बनाओ। दोस्त बने रहो। मैं नि:शब्द!

शाम हुई। वे मुझे लेकर सआदतपुर की गलियों में घूमने निकले। कृषक जी से मिलवाये। महेशजी के घर गये। फिर दूध और सुबह के नाश्ते के लिए ब्रेड और पनीर लेकर हम दोनों घर लौट आये। विष्णुजी ने रात के भोजन के लिए दोनों के लिए नमकीन दलिया और सब्जी बनायी। फिर मेरी कविताओं की फाइल लेकर भीतर के कमरे में चले गये और मैं बाहर वाले कमरे में बैठकर टीवी पर समाचार देखने लगा। दो घंटे बाद ठीक 9 बजे हमने रात का भोजन किया और फिर वे भीतर चले गये। मैं बाहर के कमरे में सो गया। शेरू मेरे साथ था। बाहर वाला कमरा बगीचे से सटा हुआ था तो मच्छर बहुत थे। वैसे भी एक बेचैनी भी थी कि मेरी कविताओं पर सुबह उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी!

जैसे–तैसे मेरी रात बीती और आधी रात तक विष्णुजी के कमरे की बत्ती जलती रही। सुबह उठके हम चाय पीकर फिर टहलने निकले। कहीं सड़क पर गड्ढा देख मैंने उनका हाथ पकड़ना चाहा कि कहीं गिर न जाएं वे, उन्होंने हाथ झटक दिया। ऐसा कभी बाबा नागार्जुन को करते देखा था। ये लेखक का आत्मविश्वास था कि उन्हें किसी सहारे या सहानुभूति की आवश्यकता नहीं। हम टहलकर लौट आए। नाश्ता किया हमने और विष्णुजी ने मेरी फाइल मुझे देते हुए कहा– इसमें मैंने कविताओं का चयन किया है, तुम्हारा पहला संग्रह ‘संकल्प’ प्रकाशन के साथ आएगा!

रजत ‘संकल्प’ से पांच संग्रह एक साथ छापेंगे जिनमें एक तुम्हारा भी होगा– अपने हिस्से का प्रेम। मैंने उनसे कहा– आप भूमिका लिख दीजिए। उन्होंने मना करते हुए कहा- यह ठीक नहीं होगा। इस संग्रह की भूमिका तुम्हारी पीढ़ी का ही कोई लिखे तो बेहतर। हमने रजत भैया को कहा और उन्होंने मेरी किताब की भूमिका लिखी।

उन्होंने कहा ये कविताएं टाइप करवा कर रजत को भेज दो। हमने भेज दिया। इस तरह से 2011 में मेरा पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। इस तरह से हिंदी कविता की दुनिया में मुझे विष्णुचंद्र शर्मा ले आए।

मैं वापस हैदराबाद चला गया। वहीँ से अपना लेखन करता रहा और लगातार विष्णुजी से पत्राचार होता रहा। विष्णुजी मेरे साथ बनारस और बंगाल में मेरे गाँव और शांति निकेतन की यात्रा करना चाहते थे। उधर मैं तेलंगाना आन्दोलन पर लगातार लिखता रहा और ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ से भी जुड़ा रहा। हैदराबाद में सरकारी तंत्र की नज़र मुझ पर थी। बेनामी नम्बर से फोन आने लगे। पूछताछ होती रही। हम लिखते रहे।

2012 की छुट्टियों में मैं दिल्ली आया और विष्णुजी के साथ बनारस की पहली यात्रा पर हम निकल पड़े। उससे पहले सर्वनाम के 100वें अंक के लोकार्पण के लिए मैं विष्णुजी के साथ छत्तीसगढ़ के बागबाहरा की यात्रा कर चुका था जहां हमारी किताबों का भी लोकार्पण होना था। वहीं पहली बार कवि–सम्पादक रजत कृष्ण, भास्कर चौधरी, सूरज प्रकाश, केशव तिवारी, संतोष अलेक्स, ललित सुरजन, प्रभाकर चौबे, ओम भारती, विजय सिंह, विजय राठौर जैसे अनेक वरिष्ठ कवि–लेखकों से मिला था।

अब हम साथ-साथ बनारस की यात्रा पर थे। मैं बहुत गर्व महसूस कर रहा था कि मैं बनारस में ‘कवि’ के सम्पादक के साथ घूम रहा हूं। अस्सी से लेकर गौदोलिया तक, फिर दशाश्‍वमेध घाट से पैदल अस्सी घाट तक। इस उम्र में भी इतनी ऊर्जा! घाट की खड़ी सीड़ियों पर चढ़ना! मैं हैरान था। उनकी इस ऊर्जा के पीछे उनका मनोबल और खुद पर उनका विश्वास ही था। कभी अपनी पत्नी को याद करते हुए उन्होंने कहा था– पुष्पा आज भी कहीं बसी हुई है मेरे भीतर। बनारस की उस पहली यादगार यात्रा में मुझे विष्णुजी ने वाचस्पतिजी से मिलवाया। लोलार्क द्विवेदी जी से मिलवाया। हम सारनाथ भी गए। मैं अद्भुत आनंद में था। फिर एक सुबह हमने गंगा में नौका विहार किया।

नाव पर घूमते हुए उन्होंने मुझे सभी घाटों के बारे में बताया। वो जगह दिखायी जहां बैठकर नामवर सिंह बांसुरी बजाते थे। शहर में घूमते हुए शहर के बारे में बताया। वो जगह दिखायी जहां से पुलिस ने उन्हें कभी छात्र नेता के रूप में हिरासत में लिया था। वो जगह भी दिखलायी मुझे विष्णुजी ने जहां ‘भेड़िये’ कहानी के लेखक भुवनेश्वर गिर पड़े थे। वो जगह जहां नागार्जुन कंधे पर रख कर अपनी किताबें खुद ही बेचा करते थे। इस तरह से एक पूरा नया इतिहास भर कर मेरी वो पहली बनारस यात्रा पूरी हुई। अब बाकी था उनको लेकर बंगाल यात्रा की, पर 2014 में नये तेलंगाना राज्य का गठन हो गया और मेरी नौकरी भी जाती रही। मैं अख़बार छोड़कर एक निजी कॉलेज और स्कूल में पढ़ाने लगा।

2014 में मैं दिल्ली चला आया और विष्णुजी को लेकर गर्मियों में अपने गाँव पहुंच गया। उन्हें मेरा गाँव बहुत पसंद आया। उन्होंने दर्जनों कविताएं लिखीं और मुझसे कहा कि वो कविताएं मैं महाश्वेता देवी को भेज दूं। वो कविताएं उन्हें भेजी गयीं, पर उनके जीवनकाल में हमें कोई जवाब नहीं मिला महाश्वेता देवी की ओर से।

विष्णुजी यात्राओं को लेकर बहुत उत्साहित रहते थे किसी नये यात्री की तरह। दस साल पहले विष्णुजी रूस भी जाना चाहते थे। हमने पासपोर्ट बना लिया था। बाकी औपचारिकताएं भी पूरी हो गयी थीं। महेश दर्पण जी और अनिल जनविजय हमारी यात्रा की तैयारी कर रहे थे। फिर पैसों की कमी के कारण मैंने मना कर दिया और उनकी वो यात्रा कभी पूरी नहीं हुई।

विष्णुचंद्र शर्मा को न सिर्फ उनके लेखन से मैंने समझा और जाना है, बल्कि उनके साथ रहकर भी मैंने उन्हें करीब से जाना है। एक बार मैंने उनसे ऐसे ही कह दिया था कि आप कभी मेरे बारे में कुछ लिखते ही नहीं कहीं। उन्होंने कहा था– मेरे बिना लिखे ही जब तुम्हारी कविताएं छप रही हैं तो मेरे लिए इससे बड़ी ख़ुशी की बात और क्या है?

विष्णुजी के लेखक के भीतर एक सहृदय विराट मनुष्य का निवास है। मैंने जब ‘मुक्तिबोध की आत्मकथा’ पढ़ी तो जाना कि लेखक यूं ही नहीं बना जाता। हिंदी साहित्य के लिए विष्णुचंद्र शर्मा ने अपना सम्पूर्ण जीवन दिया है। हिंदी साहित्‍य ने बदले में उन्‍हें क्‍या दिया, यह प्रश्‍न अब तक नहीं पूछा गया। वे अपनी अंतिम यात्रा पर भी निकल लिए।


नित्यानंद गायेन पत्रकार और कवि हैं


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