जिन्हें अपनों ने छोड़ दिया, उन्हें ‘आग देने वाले’ योद्धाओं का इतिहास अभी बाकी है!


क्या क्वांटम मेकैनिक्स और डीएनए की बात करने वाला समाज अपने सामान्य जीवन में भी वैज्ञानिक सोच रखता हैं? वर्तमान समय के इस कोरोना महामारी में इस सवाल के जवाब को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत हैं अन्यथा इस संक्रमणकाल का इतिहास जब पढ़ा जाएगा तो वह शायद अधूरा और सच से परे होI

अख़बारों में प्रकाशित एक खबर के अनुसार बिहार के सिवान जिले में पदस्थापित एक जज ने अपने पिता के शव का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया क्योंकि पिता की मृत्यु कोरोना संक्रमण से हुई थी और जज को डर था कहीं कोरोना वायरस का संक्रमण परिवार के अन्य सदस्यों में न फैल जाए। इसलिए जज ने अपने पिता के शव को लेने से ही इनकार कर दिया। बाद में जिला प्रशासन के हस्‍तक्षेप के बाद शव का अंतिम संस्कार परिवार से बाहर के लोगों द्वारा किया गया। बिहार के ही सासाराम शहर के सदर अस्पताल में इलाज के दौरान एक महिला की मृत्यु कोरोना संक्रमण से होने के बाद परिवार के सदस्य- जिसमें महिला का बेटा भी शामिल था- लाश को छोड़कर  भाग जाते हैं। बाद में अस्पताल प्रशासन द्वारा शव का अंतिम संस्कार करवाया गया। इसी शहर के लगभग पैंतीस साल के एक व्यक्ति की मृत्यु कोरोना संक्रमण से होने के बाद शव का अंतिम संस्कार श्‍मशान घाट पर मौजूद डोम जाति के लोगों द्वारा पूरा करवाया गया। इस कार्य के लिए उन्हें एकमुश्‍त रकम (जैसे किसी काम को पूरा करने का एक पैकेज) दी गयी!

ये तमाम मरने वाले लोग हिन्दू धर्म को मानने वाले थे इसलिए इनका अंतिम संस्कार भी हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज के अनुसार हुआ। ऐसा नहीं हैं कि देश में केवल यही तीन घटनाएं इस तरह की हैं जिसमे शवों का अंतिम संस्कार परिवार से बाहर के सदस्यों द्वारा किया गया, बल्कि देश के लगभग हर भाग से इस तरह की घटनाएं देखने और पढ़ने को मिली हैं।

हिन्दू धर्म में यह मान्यता है कि शव को जलाने के लिए आग डोम जाति के लोगों से ली जाती है। इस आग को देने के लिए वे पैसे भी लेते हैं। हिन्दूवादी व्यवस्था के जातिगत समीकरण में डोम जाति को सबसे निचले पायदान पर रखा जाता है और इन्हें ‘अछूत’ माना जाता है। इन्हें शूद्र की श्रेणी में समझा जाता है, लेकिन शव को जलाने के लिए आग इन्हीं से ली जाती हैं तभी दाह संस्कार संपन्न होता है। हिन्दूवादी व्यवस्था एक तरफ तो इसे ‘अपवित्र’ मानती है लेकिन दाह संस्कार के लिए इनके द्वारा दी गयी आग को हिन्दू परम्परा का हिस्सा मानती है।

ऊपर वर्णित घटनाएं यह दर्शाती है कि कोरोना संक्रमण से लोग कितने भयभीत थे और अब भी हैं। लोगों को लगता है कि शव के साथ रहने से उन्हें भी कोरोना संक्रमण हो सकता है। वैसे इस तरह से संक्रमण के फैलने को लेकर अभी कोई ठोस जानकारी नहीं है। अगर शव के छूने से कोरोना होने का खतरा होता तो सबसे ज्यादा कोरोना से प्रभावित श्‍मशान घाट पर मौजूद शव को जलाने के लिए आग देने वाले लोग होते और एम्बुलेंस के ड्राइवर भी, जो मरीजों और कोरोना संक्रमण से मरे लोगों के शव ढो रहे थे। ऐसी कोई भी रिपोर्ट हालांकि किसी भी मीडिया में नहीं आयी जिसमें यह जानकारी दी गयी हो कि कोरोना संक्रमण का प्रभाव आग देने वाले इस समुदाय के लोगों और एम्बुलेंस के चालकों पर पड़ा हो।

जिस समाज में लोगों ने अपने नजदीकी परिजनों के शव का अंतिम संस्कार इस डर से नहीं किया कि कहीं उनके  शरीर में भी कोरोना वायरस न घुस जाए, उसी समाज में उस समुदाय के लोगों ने मरे हुए लोगों को ‘मुक्ति’ दिलाने का काम किया जिन्‍हें यह हिन्दूवादी समाज ‘अपवित्र’ समझता है।

जब कोरोना संक्रमणकाल का इतिहास लिखा जाएगा तब इस खास समुदाय के लोगों का का वर्णन जरूर होना चाहिए जिन्‍होंने श्‍मशान घाट पर शव के अंतिम संस्कार में अपनी भूमिका बिना किसी डर के निभायी अन्यथा इतिहास सच से परे होगा। कोरोना संक्रमण के पहले चरण में जिस तरह से मजदूरों के साहस और संघर्ष को याद किया जाएगा उसी से तरह श्‍मशान घाट पर ‘आग देने वाले’ इन ‘योद्धाओं’ को भी नहीं भूलना चाहिए और इनके योगदान को भी इतिहास में जगह मिलनी चाहिए। यह बात हिन्दूवादी व्यवस्था को चलाने वाले ‘ठेकेदारों’ को भी समझने की जरूरत है।

विश्लेषण की जरूरत इस पर भी है कि दलितों और पिछड़ों को इतिहास में जगह कम या नहीं मिलती है जबकि समाज में इनका योगदान अन्य के मुकाबले कहीं ज्यादा रहता है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध नाइजीरियाई उपन्यासकार चिनुआ अचिबे लिखते हैं- “जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य गाथाएं गiयी जाती रहेंगी।”


अमित चमड़िया पेशे से पत्रकार हैं और पत्रकारिता शिक्षण से भी सम्बद्ध हैं


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