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रंजीत वर्मा |
गुंटर ग्रास की दुनिया भर में चर्चित कविता पर कल यानी रविवार 22 अप्रैल को हिंदी अखबारों ने खूब छापा। कई दिनों बाद, याद नहीं कि ऐसा पिछली बार कब हुआ था, किसी हिंदी के अखबार ने कविता को दो पन्ने दिए तो किसी अन्य ने पूरा एक पन्ना। सेलिब्रिटी नाम के बहाने ही सही, अखबारों में कविता का लौट आना स्वागत योग्य है। कवि रंजीत वर्मा का यह आलेख कल राष्ट्रीय सहारा में दो पन्ने में छपा था। सिर्फ कविता नहीं, बल्कि उसके बहाने साहित्य के भीतर और बाहर की समूची राजनीति की पड़ताल करता यह लेख विषय को समझने के लिहाज से काफी अच्छा है और एक ऐसे वक्त में जब हिंदी के स्वनामधन्य तथाकथित बड़े लेखकों को सांप सूंघा हुआ है, बल्कि कुछ ज्यादा समझदार लेखक अखबारों में लिख कर इसे कविता ही नहीं मान रहे (जनसत्ता में अशोक वाजपेयी), रंजीत वर्मा का यह आलेख एक सार्थक हस्तक्षेप की तरह हमारे समक्ष् आता है।
राजनीतिक कविता कुछ नहीं होती बल्कि कविता महज कविता होती है। गुंटर ग्रास की कविता ‘जो जरूर कहा जाना चाहिए’ अपने राजनीतिक मिजाज के कारण कविता के वैश्विक परिदृश्य में हलचल पैदा कर रही है। इस कविता को लेकर बेचैनी देखी जा सकती है। विष्णु खरे का पत्र ’ज़ाहिल इस्राइल विरोधियों को नहीं दिखता ईरान का फासीवाद’ (ब्लॉग ‘जनपथ डॉट कॉम’ पर) को ऐसे ही तबके का प्रतिनिधि पत्र माना जा सकता है जो तर्क या कुतर्क से राजनीतिक कविता का विरोध करना अपना धर्म समझता है। ’जो जरूर कहा जाना चाहिए’ कविता में गुंटर ग्रास अब तक अपने चुप रहने पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि ‘..अब तक मैं खामोश क्यों रहा? इसलिए क्योंकि मेरी पैदाइश की धरती/जिस पर जमे हैं कभी न मिटने वाले कुछ दाग/रोकती थी मुझे कहने से वे सच/इस्राइल नाम के उस राष्ट्र से जिससे बिंधा था मैं/और अब भी चाहता ही हूं बिंधे रहना/फिर आज क्या हो गया ऐसा/कि सूखती दवात और बुढ़ाती कलम से/मैं कह रहा हूं ये बात/कि आणविक शक्ति से संपन्न इस्राइल से/ इस नाजुक दुनिया के अमन-चैन को खतरा है?’ सीधे तौर पर वे मान कर चल रहे हैं कि पश्चिम जिस तरह से ईरान को घेरने की कोशिश कर रहा है और जिसमें उनका देश जर्मनी भी शामिल है, वह पूरी दुनिया को एक युद्ध की ओर धकेलने की तरह है। कविता का अंत आते-आते उन्हें अपना वजूद भी खतरे में घिरा नजर आता है, तभी वे कहते हैं ‘तमाम लोग/रह सकें मिलजुल कर/दुश्मनों के बीच/और जाहिर है, हम भी/जिन्होंने अब खोल दी है अपनी जुबान।’ अपनी इन अंतिम पंक्तियां से गुंटर ग्रास ऐसे समय की ओर संकेत करते हैं, जहां राजनीतिक सच बोलना राजनीतिक जुर्म माना जाने लगा है और जिसकी सजा कड़ी से कड़ी हो सकती है, फिर भी वे चुप न रह पाने की वजह बताते हुए कविता में कुछ पहले की पंक्तियों में कहते हैं ‘क्योंकि यह कहा ही जाना चाहिए/कल हो सकता है बहुत देर हो जाए।’
69 पंक्तियों की इस कविता ने इस्राइल को बेचैन कर दिया पर ईरान इसे हाथों-हाथ ले रहा है। माना जा रहा है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद के इतिहास में इस कविता से पहले किसी भी महत्वपूर्ण जर्मन बुद्धिजीवी ने इतने साहसपूर्ण ढंग से इस्राइल पर कभी हमला नहीं किया था। हालांकि बाद के साक्षात्कार में गुंटर ग्रास ने कहा है कि इस्राइल पर हमला करना उनका मकसद नहीं है बल्कि वे नेतन्याहू की नीतियों का विरोध कर रहे हैं जबकि इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इस कविता पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए अपना वक्तव्य जारी किया कि ‘ईरान से इस्राइल की तुलना करना शर्मनाक है।’ फिर आगे कहा कि ‘यह कविता इस्राइल के बारे में कम और ग्रास के बारे में ज्यादा कहती है… यह इस्राइल नहीं, ईरान है, जो दुनिया की सुरक्षा और शांति के लिए खतरा है। यह ईरान है, जो दूसरे देशों को नेस्तनाबूद करने की धमकी देता है।’ ग्रास पर उन्हीं की शैली में पलटवार करते हुए कहा है कि ‘जो जरूर कहा जाना चाहिए वह यह कि यूरोपवालों की यह परंपरा है कि हत्या के कर्मकांड वाले ईस्टर पर्व के पहले यहूदियों को दोषी ठहरा दो।’
जर्मनी में भी गुंटर ग्रास की कविता किसी को रास नहीं आ रही क्योंकि वहां का दक्षिणपंथ हो या वामपंथ, सभी इस्राइल के समर्थक हैं। अपने ऊपर हो रहे इस चौतरफा हमले से दुखी होकर अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि कोई भी कविता की अंतर्वस्तु पर बात नहीं कर रहा बल्कि बदजुबान मुहिम जैसा सब कुछ है जिसमें कहा जा रहा है ‘उसकी छवि हमेशा के लिए ध्वस्त कर दी गई।’
हालांकि ग्रास के लिए यह नयी बात नहीं है। 2006 में जब उन्होंने अपनी आत्मकथा ’प्याज छीलना’ में रहस्योद्घाटन किया था कि दूसरे विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में वे हिटलर की युवा सेना में शामिल थे, तब भी सर्वत्र उनकी भर्त्सना हुई थी। आज ऐसा कहने वालों की कमी नहीं कि गुंटर ग्रास को यह अधिकार ही नहीं है कि वह किसी यहूदी राज्य के खिलाफ कुछ बोलें। सिमॉन वाइजनथॉल सेंटर के निदेशक ने कुछ इस प्रकार से प्रतिक्रिया दी- ’टीन का ड्रम जो वह पीट रहे हैं, वह अंदर की कोई नैतिक आवाज नहीं है बल्कि यहूदी लोगों के खिलाफ उनके अंदर बैठा दुराग्रह है।’
कविता में एक जगह वे अपील करते हैं- ‘..आसन्न खतरा बरपाने वालों के लिए होगी एक अपील भी/कि वे हिंसा छोड़, जोर दें इस बात पर/इस्राइल की आणविक सामर्थ्य और ईरान के ठिकानों पर-दोनों देशों की सरहदों को मान्य एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी की रहे निगरानी/स्थायी और अबाधित।’
अब इसका क्या किया जा सकता है कि इस्राइल को यह पसंद नहीं आ रहा कि ईरान के साथ उस पर भी नजर रखी जाए। कवि के सामने भी यह सच है और वह अपनी चुप्पी को अच्छी तरह समझ भी रहा होता है। लेकिन कब तक? ‘स्याही की अंतिम बूंद’ के आते-आते उसे लगता है कि अब नहीं कहे तो बहुत देर हो जाएगी और वह कह पड़ता है ‘जो जरूर कहा जाना चाहिए।’ जिसका अपने यहां अकाल है। सवाल चाहे भाषा का हो या दिन-ब-दिन कठिन होती जा रही इस जिंदगी से दूर होते जा रहे साहित्य का। इस तरह का कोई संघर्ष तो आज भी हिंदी साहित्य की चिंता में शामिल नहीं हो पाया, जबकि शोषण और दमन, लूट और हत्याओं के बीच हमारी रातें दु:स्वप्नों से भर चुकी हैं। जन्म शताब्दियों का गुबार बैठाने वालों को सामाजिक त्रासदी कचोटती नहीं, यह जानकर उन्हें निराशा हो रही होगी कि गुंटर किस मुस्तैदी से परमाणु बमों को भी अपना निशाना बना लेते हैं। उनकी निराशा तब और बढ़ जाएगी, जब वे जानेंगे कि जिनका उन्हें इंतजार है, उनको रफा-दफा करने की तैयारी जन्म शताब्दियों के बहाने शुरुआत में ही कर ली गयी थी। सिर्फ हमारे ही जैसे लोग थे, जो इन बातों से अनजान थे। कुछ अन्य महत्वपूर्ण रचनाकारों के अलावा जिन चार प्रमुख हिन्दी कवियों की जन्म शताब्दियां थीं, उनमें सबसे कम चर्चा नागार्जुन पर हुई, जबकि आम पाठक उन्हें अपने दिल के ज्यादा करीब पाता है। इसके उलट, सबसे ज्यादा बात अज्ञेय पर हुई, जिन्हें जनता की व्यापक चिंताओं का कवि नहीं माना जाता, यह उनके प्रशंसक भी मानते हैं।
ऐसा किसी संयोग के कारण नहीं हुआ बल्कि यह साबित करने के लिए हुआ कि सरोकार का कवि होने भर से कोई कवि बड़ा नहीं होता बल्कि पावर सपोर्ट से होता है, जो अज्ञेय के पास है। इधर जन्म शताब्दियां ठंडी पड़ गयी हैं, उधर ग्रास ने कविता से आग लगा दी पर अज्ञेय पर पावर सपोर्ट कुछ-न-कुछ कर रहा है। उनकी रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति के ठीक पहले सबसे बड़ा कार्यक्रम कोलकाता में हुआ, जिसकी रिपोर्ट अखबारों में आयी। रिपोर्ट के अनुसार, ऐसा लगा कि वहां जो भी वक्ता थे, उन सबने अपने-अपने ढंग से अज्ञेय की विशिष्टता को पकड़ने की कोशिश की और सभी ने उन्हें अंत में महान पाया। उन्होंने भी महान पाया, जिन्होंने चालीस साल पहले अज्ञेय के कविता संग्रह ‘कितनी नावों में कितनी बार’ की समीक्षा करते हुए उन्हें ‘बूढ़ा गिद्ध’ कहा था। आज वे बता नहीं पा रहे हैं कि उन्होंने तब अज्ञेय को बूढ़ा गिद्ध क्यों कहा था? इस संदर्भ में वे सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि ‘जब उनको लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है तो उन्होंने भी अज्ञेय का विरोध किया’। वह ‘कुछ गड़बड़’ क्या है, वे आज भी या तो समझ नहीं पा रहे हैं या शायद समझा नहीं पा रहे हैं। और आज वह ‘कुछ गड़बड़’ कैसे खत्म हो गया, यह भी बता पाने में वे असमर्थ हैं। खैर, खबरों के अनुसार उन्होंने हिन्दी को कई शब्द दिये, जैसे कि ‘पूर्वग्रह’ वगैरह लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि हिन्दी में पहले से ‘पूर्वाग्रह’ शब्द था, जैसा कि नामवर सिंह ने उनके वक्तव्य के कुछ दिन पहले कहा था। बहरहाल, दोनों ही यह नहीं बता पा रहे हैं कि ‘पूर्वाग्रह’ की जगह ‘पूर्वग्रह’ लिखने से हिन्दी की कौन-सी समस्या सुलझ गयी, जिससे उनके महान होने का पता इनको चला।
मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पांडेय कहते हैं कि 1947 में हुए देश विभाजन की त्रासदी पर अज्ञेय को छोड़कर किसी ने नहीं लिखा। विडम्बना देखिए कि वे जिन कविताओं को अज्ञेय की विशेषता के रूप में चिह्नित कर रहे हैं, वे उनकी उसी राजनीतिक समझ से पैदा हुई है, जो नाथूराम गोडसे के पास थी। जिसने महात्मा गांधी की हत्या की थी, क्योंकि वह विभाजन से उद्वेलित हो गया था और उसे लगता था कि अगर गांधी चाहते तो विभाजन को रोक सकते थे। अज्ञेय ने अपना गुस्सा या दुख या खीझ कविता के जरिये प्रकट की। राजनीतिक धरातल पर दोनों एक ही जगह खड़े हैं। अस्सी के दशक की शुरुआत में उनकी ‘जय जानकी यात्रा’ और ‘भागवत भूमि यात्रा’ इसी राजनीतिक सोच का परिणाम थी, जिसकी अगली कड़ी विश्व हिंदू परिषद की ‘राम जानकी धर्म’ यात्रा कही जा सकती है और अंतिम कड़ी के रूप में रथ यात्रा का स्मरण किया जा सकता है, जिसका समापन बाबरी मस्जिद के ध्वंस के साथ हुआ। 1947 के राजनीतिक विभाजन के मुकाबले यह सांस्कृतिक विभाजन कहीं ज्यादा मर्मांतक रहा, जो दिलों में फांक कर गया। यह स्थिति उसी राजनीतिक विचार से पैदा हुई, जिस विचार के प्रणेता बने अज्ञेय ने भारत विभाजन पर ‘शरणार्थी’ श्रृंखला की ग्यारह कविताएं लिखी थीं। जो कविताएं परंपरा को इतने रूढ़ ढंग से व्यक्त कर रही हों, उनको पढ़कर कैसे कहा जाए कि ‘अज्ञेय अपनी सभी कविताओं में परंपरा को तोड़ते हुए नई परंपरा का निर्माण करते हैं’ जैसा कि कवि अरुण कमल ने वहां कहा। आखिर ऐसा कैसे संभव है कि मार्क्सवादी सोच रखने वाला कवि या आलोचक प्रतिक्रियावादी कवि को लेकर इस तरह से सोचे। शायद इसलिए कुछ लोगों ने विचार और व्यवहार के इस फांक को गंभीरता से लिया और कहा कि वैचारिक सम्मति के अनुरूप ही कवि का व्यवहार भी होना चाहिए। लेकिन ज्यादातर लोगों ने इसे साहित्य के लिए उस तरह खतरनाक नहीं माना और कई ख्यात कवियों का हवाला देते हुए साहित्य में छूट की वकालत की। बाद में यह छूट बड़ी महंगी साबित हुई।
लेकिन इस प्रवृत्ति ने आज हिंदी साहित्य को ऐसे अंधे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से आगे निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखता। कल नाथूराम गोडसे की जन्मशती भी आ सकती है तो सोचना चाहिए कि क्या वे तब भी इसी तरह बोलेंगे! कुछ भी हो सकता है। बोल सकते हैं वे। अज्ञेय हिंदूवादी नहीं थे और आरएसएस विरोधी थे। यह साबित करने के लिए दिनमान के 8 दिसम्बर, 1968 के अंक में उनका लिखा संपादकीय इन दिनों जहां-तहां जवाब के तौर पर दिखायी दे रहा है। इस संपादकीय में उन्होंने लिखा, ‘मुस्लिम मजलिस की कार्रवाइयों और मनोवृत्ति की हम भर्त्सना करते हैं। बिना किसी लाग-लपेट के हम उसे संकीर्ण, समाज विरोधी और राष्ट्रीयता के विकास में बाधक मानते हैं। उसकी कार्रवाई बंद करने के साथ कोई शर्त हो, यह हम ठीक नहीं समझते क्योंकि वह काम हर अवस्था में गलत है।’ यहां जो शर्त वाली बात कही गयी है, उसका संदर्भ इसके ठीक पहले वाले पैराग्राफ में है, जिसमें अज्ञेय ने मुस्लिम मजलिस के फरीदी साहब के उस बयान का हवाला दिया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी कार्रवाइयां बंद कर दे तो वह भी अपना काम बंद कर देंगे।’ अज्ञेय को चाहिए था कि वे आरएसएस को सलाह देते कि वे अपनी कार्रवाइयां बंद कर दे लेकिन वे मुस्लिम मजलिस पर ही बिफर गये। इतना ‘गलत’ होकर भी वह कोई शर्त रख रहा है, यह बात अज्ञेय को बर्दाश्त नहीं हुई। इसी संपादकीय में उन्होंने अपने बारे में साफ लिखा है कि ‘वे हिंदू हैं और बने रहना चाहते हैं। साथ ही, यह भी आगे लिखा कि ‘इन पंक्तियों का लेखक इस पर गर्व भी करता है।’
जिस लेखक की यह पृष्ठभूमि हो उसकी कहानी ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’ कोई भी पढ़ेगा तो उसे साम्प्रदायिक ही कहेगा, जैसा कि असद जै़दी ने कहा। यह बंटवारे के वक्त की कहानी है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि एक अमीर मुस्लिम औरत गरीब मुस्लिम औरत को डिब्बे में चढ़ने से रोकती है। कुछ प्रगतिशील विचारक हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह वर्ग भेद की कहानी है। अगर अज्ञेय के पास वर्ग-दृष्टि होती तो उनकी नजर उन रेलों पर भी जाती, जो पाकिस्तान से भारत आ रही थीं और वह देखती कि यहां अमीर हिंदू औरत, गरीब हिंदू औरत को डिब्बे में चढ़ने से रोक रही है और इस तरह वह बताती कि धर्म के नाम पर आई इस आपदा के बावजूद वर्गीय चरित्र समाप्त नहीं होता। अज्ञेय गुंटर ग्रास नहीं थे। वे चाहे जिस राजनीतिक विचारधारा के रहे हों, यह आज हमारे लिए खतरा नहीं है। इसलिए वे हमारी चिंता के केंद्र में भी नहीं हैं बल्कि वे हैं, जो उन्हें सही ठहराने का रास्ता तलाश रहे हैं। सच पूछिए तो खतरा इनसे ही है। इनमें मार्क्सवादी भी हैं, जिन पर हमें भरोसा था कि ये कदम से कदम मिलाकर मुश्किलों में भी साथ चलेंगे। लेकिन आज जबकि यह देश शोषण और दमन, सरकारी लूट और राज्य हिंसा की गिरफ्त में बुरी तरह जकड़ा हुआ है, इन्होंने सच बोलने का जोखिम उठाने की जगह व्यावहारिकता का रास्ता अपनाया। आज जबकि यह देश कर्ज में डूबे ढाई लाख किसानों की आत्महत्याओं और सकल घरेलू उत्पाद की एक चौथाई के बराबर की संपत्ति के मालिक बन बैठे सौ अमीरों के बीच गहरी-चौड़ी खाई में तब्दील हो चुका है, इन्होंने सच बोलने का जोखिम उठाने की जगह व्यावहारिकता का रास्ता अपनाया। आज जबकि यह देश विस्थापितों के रुदन और खदान माफियाओं की खुली लूट के बीच एकतरफा जंग का रणक्षेत्र हो गया है, इन्होंने एक बार फिर सच बोलने का जोखिम उठाने की जगह व्यावहारिकता का रास्ता अपनाया- तो भला इससे बड़ा अपराध और क्या हो सकता है? आखिर वे अज्ञेय की कविताओं में वह कौन-सा सूत्र तलाश रहे हैं, जो आत्महत्या कर रहे किसानों के परिवारों को दुख और हताशा के गर्क में डूबने से बचा लेगा? वे आखिर अज्ञेय की कविताओं में वह कौन-सी जमीन तलाश रहे हैं, जो विस्थापित किये जा रहे लोगों के पावों को सुस्ताने भर भी जगह दे देगी? आखिर वे वहां कौन-सी रोशनी तलाश रहे हैं, जो अंधेरे में फेंक दिये गये करोड़ों लोगों को भटकने से बचा लेगी? जाहिर है, वे वहां ऐसा कुछ नहीं तलाश रहे हैं बल्कि वे इन तलाशों से हम सब को दूर ले जाने का उपक्रम कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं, यह समझना मुश्किल नहीं। दरअसल, वे नहीं मानते कि गरीबों और आदिवासियों के खिलाफ भारत सरकार ने न सिर्फ युद्ध का एलान कर रखा है बल्कि वह दो लाख पैरा-मिलिट्री टुकडि़यों को इस युद्ध में उतार भी चुकी है।
यह आज की बात नहीं है। इस बात के तीन साल बीत चुके हैं, घुटनों तक खून में डूबे तीन साल। ऐसे हिंसक समय में जबकि कवियों को चाहिए था कि वे अपनी कविताओं में उस बीज को बचाते, जो इस युद्ध में कभी सब कुछ खत्म नहीं होने देता, कइयों ने खुद को मध्यवर्ग की उपभोक्तावादी इच्छाओं और उनकी पूर्ति के लिए कशमकश में लगी जिंदगियों के गीत रचने, फिर उन गीतों/कविताओं के प्रकाशनों, लोकार्पणों, मेलों और उत्सवों तक सीमित कर लिया है पर विडंबना देखिए कि वे इसे सीमित होना भी मानने को तैयार नहीं। वे सजधज कर साहित्य उत्सव में पहुंच जाते हैं। वहां जब विदेशी लेखिकाओं को सिगरेट, शराब पीते देखते हैं तो निम्न मध्यवर्गीय हीनभावना से ग्रस्त हो जाते हैं। फिर उनका पूरा समय इस कोशिश में निकल जाता है कि कैसे इस हीन भावना से निकलें। वे सोच नहीं पाते कि छलकती शराब, बिछी हुई कालीन, चमकती रोशनी के पीछे किसका पैसा लगा है। इनमें से कुछ मुख्य प्रायोजक कंपनियां ऐसी हैं, जो हत्यारी हैं, जैसे कि रियो टिंटो, तब भी इन पर कोई असर नहीं होगा। आप कहते रहिए इस कंपनी का उसूल कि यह दुनिया भर की फासीवादी और नस्लवादी सरकारों से गठजोड़ कर अपने खनन के धंधे को चमकाये रखने में विश्वास करती है, इनके कान में जूं नहीं रेंगने वाली। प्रायोजकों में शेल कंपनी भी है, जिस पर नाइजीरिया के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा की हत्या का आरोप है। जब लेखक की हत्यारी कंपनी से इन्हें कोई गुरेज नहीं तो किसी का नाम लेकर आप उन्हें कैसे उद्वेलित कर लीजिएगा? लेखकों, कवियों की ऐसी भारतीय जमात से आखिर आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं! लेकिन हमारे बीच के कई कवि गाले साहित्य उत्सव में जाने को भी उतने ही उत्सुक नजर आये, जितनी उत्सुकता से उन्हें यहां साहित्य उत्सव में जाते देखा गया। दरअसल, वे किसी प्रकार का नैतिक या सामाजिक दबाव कभी अपने ऊपर महसूस नहीं करते। वे खुद को राजनीति से बाहर का आदमी बताते हैं लेकिन सत्ता से सबसे ज्यादा लाभ लेने वाले भी यही होते हैं।
दरअसल, वे यह वहम फैलाये रखना चाहते हैं कि मार्क्सवादी होना ही राजनीतिक होना होता है, जो वे नहीं हैं और इस तरह वे खुद को कला-संस्कृति का सच्चा संवाहक बताते हैं लेकिन वास्तविकता में ये राजनीतिक आखेट पर निकले रचनाकार हैं। इनके निशाने पर सबसे निचले पायदान पर खड़े लोग हैं, जो अपने हक की लड़ाई लड़ रहे होते हैं। उनके दुख को अपने उपभोक्तावादी दुख की चादर से ढंकने की कला में वे माहिर होते हैं। अगर उनके ही शब्दों में कहा जाए तो ये कला के गैर-राजनीतिक पुजारी हैं, जो कला की राजनीतिक जमीन की लड़ाई लड़ रहे लोगों को बेदखल करने की मुहिम में हर वक्त लगे रहते हैं। उनके यत्न जितने पुराने हैं, उतनी ही पुरानी उनकी हार है। लेकिन अब बौखला कर वे पूंजी की शरण में चले गये हैं। पूंजी को भी ऐसे अवसर की तलाश बहुत दिनों से थी। समय ही कुछ ऐसा है। पूंजी आज सबसे ज्यादा जुल्म ढा रही है, इसलिए उसे भी ऐसे लोगों की सबसे ज्यादा जरूरत आ पड़ी है, जो उनकी महिमा के बखान करने की कला में महारत हासिल किये हुए हों। वैसे भी पुरानी कहावत है कि पूंजी कभी अकेली नहीं आती। वह अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाती है। यह कोई संयोग नहीं है कि साहित्य की दुनिया में वे अचानक किसी सितारे की तरह उभर आते हैं। बिना सेलिब्रेटी के पूंजी एक कदम भी नहीं चल सकती। इसका मतलब यह नहीं कि वह सेलिब्रेटी की गुलाम होती है बल्कि वह अपने हिसाब से अपना सेलिब्रेटी खुद तैयार करती है। गुलजार और जावेद अख्तर ऐसे ही तैयार किये गए लोग हैं।
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ग्रास को कविता नहीं, बयान जारी करना चाहिए था |
अशोक वाजपेयी को उन्होंने दूसरी कतार में तैनात कर रखा है। इनकी प्रतिबद्धता पर उन्हें संदेह नहीं है बल्कि उनकी योग्यता को लेकर वे संशय में हैं। फाउंडेशन के पैसे से साहित्य का माहौल पूंजी के अनुकूल करके उन्हें अपनी योग्यता का परिचय देना होगा। उत्सवी विचारों को साहित्यिक मूल्यों में बदलना आसान नहीं। उन्हें जल-जंगल-जमीन की लड़ाई को साहित्य से बाहर करने का काम कर दिखाना होगा, जिसका उन्होंने बीड़ा तो उठा लिया है लेकिन यह उन्हें भी पता है कि यह ग्रीन हंट बड़ा जोखिम भरा काम है। हिंदी कोई जनपद की बोली नहीं है कि इसका आप अन्य तरह से भी इस्तेमाल कर लें। समृद्ध होने की जगह इसके मर जाने का खतरा है यहां। आखिर कहां दिखाएंगे आप हिंदी की सार्थकता। दिमाग पर जोर डालिए और सोचिए कि क्या कभी किसी मां ने हिंदी में लोरी गाकर अपने बच्चे को सुलाया है, क्या हिंदी में सोहर गाकर कभी किसी मां ने अपनी बेटी का ब्याह रचाया है, क्या कभी किसी किसान औरत ने खेतों में काम करते हुए हिंदी में रोपनी या कटनी के गीत गाये हैं? नहीं ऐसा कभी नहीं हुआ। ऐसा कभी हो भी नहीं सकता। हिंदी राजनीति के गर्भ से पैदा हुई है। इसका साहित्य तभी तक जीवित है, जब तक कि यहां राजनीतिक अभिव्यक्ति जीवित है। जब तक राजनीतिक अभिव्यक्ति है, तब तक हिंदी को शोषितों और पीड़ितों की भाषा बने रहने से कोई नहीं रोक सकता। घटाटोप अंधेरे के बीच प्रेमचंद से लेकर मुक्तिबोध और नागार्जुन होते हुए गोरख पांडेय और आलोक धन्वा तक जो तीक्ष्ण रेखा दिखायी देती है, वही हिंदी की जीवन रेखा है। पूंजी कभी हिंदी में अपने गीत नहीं गा सकती। भले ही जीवन-रेखा पर वह खतरे की तरह मंडराती रहे लेकिन वह कभी उसे मार भी नहीं सकती।
लेखकों, कवियों की ऐसी भारतीय जमात से आखिर आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं। दरअसल, वे किसी प्रकार का नैतिक या सामाजिक दबाव कभी अपने ऊपर महसूस नहीं करते। वे ग्रास नहीं बन सकते क्योंकि खुद को राजनीति से बाहर का आदमी बताते हैं, हालांकि सत्ता से सबसे ज्यादा लाभ लेने वाले भी यही होते हैं।