क्रांतिकारी कवि वरवर राव |
प्रेमचंद जयंती पर हंस के सालाना कार्यक्रम में आए कई लोग जानते थे कि अरुंधति राय की सहमति के बगैर उनका नाम आमंत्रण में छपा था इसलिए वे नहीं आ रही हैं। कुछ लोगों को यह भी पता था कि वरवर राव दिल्ली आ चुके हैं लेकिन यहां आने पर उन्हें गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी के साथ मंच साझा करने के बारे में पता चला है, इसलिए उन्होंने कार्यक्रम का बहिष्कार किया है। इतना जानने के बावजूद जानने वाले चुप रहे और हंस के संपादक राजेंद्र यादव अंत तक जनता को झूठ बोलकर बरगलाते रहे। आखिरकार कार्यक्रम खत्म होने के बमुश्किल घंटे भर बाद वरवर राव की ओर से कार्यक्रम में न शामिल होने पर एक खुला पत्र जारी किया गया जिसे हम पूरा नीचे चिपका रहे हैं। पढि़ए और समझिए कि सफेद हंस के काले चश्मे से आखिर सच्चाई कैसी दिखती है, कैसी दिखाई जाती है और इस चश्मे के भीतर कितने झूठ पैबस्त हैं। (मॉडरेटर)
मुक्तिबोध की हजारों बार दुहराई गई पंक्ति को एक बार फिर दुहरा रहा हूं: ”उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे/ तोड़ने ही होंगे/ गढ़ और मठ/सब।”
कुछ साल पहले की बात है जब मेरे साथ अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक समिति और अखिल भारतीय जनप्रतिरोध मंच में काम करने वाले क्रांतिकारी उपन्यासकार और लेखक विजय कुमार ने आगरा से लेकर गोरखपुर तक हिंदी क्षेत्र में प्रेमचंद की जयंती पर एक सांस्कृतिक यात्रा आयोजित करने का प्रस्ताव दिया था। यह हिंदुत्व फासीवाद के उभार का समय था, जो आज और भी भयावह चुनौती की तरह सामने खड़ा है। उस योजना का उद्देश्य उभर रही फासीवाद की चुनौती से निपटने के लिए प्रेमचंद को याद करना और लेखकीय परम्परा को आगे बढ़ाकर इसके खिलाफ़ एक संगठित सांस्कृतिक आंदोलन को बनाना था।
जब ‘हंस’ की ओर से प्रेमचंद जयंती पर 31 जुलाई 2013 को ”अभिव्यक्ति और प्रतिबंध” विषय पर बात रखने के लिए आमंत्रित किया गया तो मुझे लगा कि अपनी बात रखने का यह अच्छा मौका है। प्रेमचंद और उनके संपादन में निकली पत्रिका ‘हंस’ के नाम के आकर्षण ने मुझे दिल्ली आने के लिए प्रेरित किया। इस आयोजन के लिए चुना गया विषय ”अभिव्यक्ति और प्रतिबंध” ने भी मुझे आकर्षित किया। जब से मैंने नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम के प्रभाव में लेखन और सांस्कृतिक सक्रियता में हिस्सेदारी करनी शुरू की तब से मेरी अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगता ही रहा है। यह स्वाभाविक था कि इस पर विस्तार से अपने अनुभवों को आपसे साझा करूं।
मुझे ‘हंस’ की ओर से 11 जुलाई 2013 को लिखा हुए निमंत्रण लगभग 10 दिन बाद मिला। इस पत्र में मेरी सहमति लिए बिना ही राजेंद्र यादव ने ‘छूट’ लेकर मेरा नाम निमंत्रण कार्ड में डाल देने की घोषणा कर रखी थी। बहरहाल, मैंने इस बात को तवज्जो नहीं दिया कि हमें कौन, क्यों और किस मंशा से बुला रहा है? मेरे साथ मंच पर इस विषय पर बोलने वाले कौन हैं?
आज दोपहर में दिल्ली में आने पर ”हंस” की ओर से भेजे गए व्यक्ति के पास छपे हुए निमत्रंण कार्ड को देखा तब पता चला कि मेरे अलावा बोलने वालों में अरुंधति राय के साथ अशोक वाजपेयी व गोविंदाचार्य का भी नाम है। प्रेमचंद जयंती पर होने वाले इस आयोजन में अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य का नाम वक्ता के तौर पर देखकर हैरानी हुई। अशोक वाजपेयी प्रेमचंद की सामंतवाद-फासीवाद विरोधी धारा में कभी खड़े होते नहीं दिखे। वे प्रेमचंद को औसत लेखक मानने वालों में से हैं। अशोक वाजपेयी का सत्ता प्रतिष्ठान और कारपोरेट सेक्टर के साथ जुड़ाव आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसी तरह क्या गोविंदाचार्य के बारे में जांच पड़ताल आप सभी को करने की जरूरत बनती है? हिंदुत्व की फासीवादी राजनीति और साम्राज्यवाद की जी हूजूरी में गले तक डूबी हुई पार्टी, संगठन के सक्रिय सदस्य की तरह सालों साल काम करने वाले गोविंदाचार्य को प्रेमचंद जयंती पर ”अभिव्यक्ति और प्रतिबंध” विषय पर बोलने के लिए किस आधार पर बुलाया गया!
मंच पर बाएं से संचालक अजय नावरिया, राजेंद्र यादव और अशोक वाजपेयी और के.एन. गोविंदाचार्य (खड़े) भाषण देने के बाद |
मैं इस आयोजन में हिस्सेदारी कर यह बताना चाहता था कि अभिव्यक्ति पर सिर्फ प्रतिबंध ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति का खतरा उठा रहे लोगों की हत्या तक की जा रही है। आंध्र प्रदेश में खुद मेरे ऊपर, गदर पर जानलेवा हमला हो चुका है। कितने ही सांस्कृतिक, मानवाधिकार संगठन कार्यकर्ता और जनसंगठन के सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया गया। हजारों लोगों को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। अभी चंद दिनों पहले हमारे सहकर्मी गंटि प्रसादम् की क्रूर हत्या कर दी गई। गंटी प्रसादम् जनवादी क्रांतिकारी मोर्चा-आरडीएफ के उपाध्यक्ष, शहीद बंधु मित्र में सक्रिय सहयोगी और विप्लव रचियता संघम् के अभिन्न सहयोगी व सलाहकार और खुद लेखक थे। विरसम ने उनकी स्मृति में जब एक पुस्तक लाने की योजना बनाई और इस संदर्भ में एक वक्तव्य जारी किया तब हैदराबाद से कथित ”छत्तीसगढ चीता” के नाम से विरसम सचिव वरलक्ष्मी को जान से मारने की धमकी दी गई। इस धमकी भरे पत्र में वरवर राव, प्रो. हरगोपाल, प्रो. शेषैया, कल्याण राव, चेलसानी प्रसाद सहित 12 लोगों को जान से मारने की चेतावनी दी गई है। लेखक, मानवाधिकार संगठन, जाति उन्मूलन संगठनों के सक्रिय सदस्यों को इस हमले में निशाना बनाकर जान से मारने की धमकी दी गई। इस खतरे के खिलाफ हम एकजुट होकर खड़े हुए और हमने गंटी प्रसादम् पर पुस्तक और उन्हें लेकर सभा का आयोजन किया। इस सभा के आयोजन के बाद एक बार फिर आयोजक को जान से मार डालने की धमकी दी गई। अभिव्यक्ति का यह भीषण खतरा साम्राज्यवादी-कारपोरेट लूट के खिलाफ अभियान, राजकीय दमन की खिलाफत और हिंदुत्व फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी के चलते आ रहा है। यह जन आंदोलन की पक्षधरता और क्रांतिकारी आंदोलन की विचारधारा को आगे ले जाने के चलते हो रहा है।
हैदराबाद में अफजल गुरू की फांसी के खिलाफ एक सभा को संबोधित करने के समय हिंदुत्व फासीवादी संगठनों ने हम पर हमला किया और इसी बहाने पुलिस ने हमें गिरफ्तार किया। इसी दिल्ली में जंतर-मंतर पर क्या हुआ, आप इससे परिचित होंगे। अफजल गुरू के शरीर को ले जाने की मांग करते हुए कश्मीर से आई महिलाओं और अन्य लोगों को न तो जंतर-मंतर पर एकजुट होने दिया गया और न ही मुझे और राजनीतिक जेल बंदी रिहाई समिति के सदस्यों को प्रेस क्लब, दिल्ली में बोलने दिया गया। प्रेस क्लब में जगह बुक हो जाने के बाद भी प्रेस क्लब के आधिकारिक कार्यवाहक, संघ परिवार व आम आदमी पार्टी के लोग और पुलिस के साथ साथ खुद मीडिया के भी कुछ लोगों ने हमें प्रेस काफ्रेंस नहीं करने दिया और वहां धक्कामुक्की की।
मैं जिस जनवादी क्रांतिकारी मोर्चा का अध्यक्ष हूं, वह संगठन भी आंध्र प्रदेश, ओडिशा में प्रतिबंधित है। इसके उपाध्यक्ष गंटी प्रसादम् को जान से मार डाला गया। इस संगठन के ओडिशा प्रभारी दंडोपाणी मोहंती को यूएपीए सहित दर्जनों केस लगाकर जेल में डाल दिया गया है। इस संगठन का घोषणापत्र सबके सामने है। पिछले सात सालों से जिस काम को किया है वह भी सामने है। न केवल यूएपीए बल्कि गृह मंत्रालय के दिए गये बयानों व निर्देशों में बार-बार जनआंदोलन की पक्षधरता करने वाले जनसंगठनों, बुद्धिजीवितयों, सहयोगियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने, प्रतिबंधित करने, नजर रखने का सीधा अर्थ हमारी अभिव्यक्ति को कुचलना ही है। हम ‘लोकतंत्र’ की उसी हकीकत की आलोचना कर रहे हैं जिससे सारा देश वाकिफ है। जल, जंगल, जमीन, खदान, श्रम और विशाल मध्यवर्ग की कष्टपूर्ण बचत को लूट रहे साम्राज्यवादी-कारपोरेट सेक्टर और उनकी तानाशाही का हम विरोध करते हैं। हम वैकल्पिक जनवादी मॉडल की बात करते हैं। हम इस लूट और तबाही और मुसलमान, दलित, स्त्री, आदिवासी, मेहनतकश पर हमला करने वाली और साम्राज्यवादी विध्वंस व सामूहिक नरसंहार करने वाली हिंदुत्व फासीवादी राजनीति का विरोध करते हैं।
हम ऐसे सभी लोगों के साथ हैं जो जनवाद में भरोसा करते हैं। हम उन सभी लोगों के साथ हैं जो अभिव्यक्ति का खतरा उठाते हुए आज के फासीवादी खतरे के खिलाफ खड़े हैं। हम प्रेमचंद की परम्परा का अर्थ जनवाद की पक्षधरता और फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी के तौर पर देखते है। प्रेमचंद की यही परम्परा है जिसके बूते 1930 के दशक में उपनिवेशवाद विरोधी, सामंतवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी लहर की धार इस सदी में हमारे इस चुनौतीपूर्ण समय में उतनी ही प्रासंगिक और उतनी ही प्रेरक बनी हुई है।
अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य इस परम्परा के मद्देनजर किसके पक्ष में हैं? राजेन्द्र यादव खुद को प्रेमचंद की परम्परा में खड़ा करते हैं। ऐसे में सवाल बनता है कि वे अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य को किस नजर से देखते हैं? और, इस आयोजन का अभीष्ट क्या है? बहरहाल, कारपोरेट सेक्टर की संस्कृति और हिंदूत्व की राजनीति करने वाले लोगों के साथ मंच पर एक साथ खड़ा होने को मंजूर करना न तो उचित है और न ही उनके साथ ”अभिव्यक्ति और प्रतिबंध” जैसे विषय पर बोलना मौजूं है।
प्रेमचंद जयंती पर ‘हंस’ की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में जो भी लोग मुझे सुनने आए उनसे अपनी अनुपस्थिति की माफी दरख्वास्त कर रहा हूं। उम्मीद है आप मेरे पक्ष पर गौर करेंगे और अभिव्यक्ति के रास्ते आ रही चुनौतियों का सामना करते हुए हमसफर बने रहेंगे।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ,
वरवर राव
31 जुलाई 2013, दिल्ली
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सलाम कामरेड वरवर राव!
कामरेड को लाल सलाम ……फंसीवादी ताकते को चिन्हित करते रहिए …मुझमे हमेशा रक्त की तरह दौड़ते रहेंगे आप
यह खत यहाँ भी देखे http://gauravmahima.blogspot.in/2013/07/blog-post_31.html?spref=fb
मैं कामरेड वरवर राव के पक्ष का समर्थन करता हूँ और उनके बहिष्कार को सही मानता हूँ, आजकल प्रेमचंद को नुमायश में रखने उसे बेचने का जरिया धंधेबाजो के द्वारा किया जाना एक आम बात हो गयी है जबकि जरुरत उन मूल्यों आदर्शो और राजनीति को जीवन में उतारने, उन प्रश्नों को सड़क पर लाकर सत्ता के समक्ष एक विकल्प देने की जरुरत है जिनके लिए प्रेमचंद जाने जाते है.
abhivyakti ki swatantrata ki vakalt karne wale log kisi dusri vichardhara tak ko bardasht nahi kar pate, jankar kshobh hua. yah ochhi mansikta hai.
मैं कामरेड वरवर के साहस ,जनपक्षधरता ,सत्यनिष्ठा और स्पष्टवादिता को सलाम करता हूँ …लाल सलाम !
सब कुछ ठीक, मगर यह भी सच्चाई है कि आंध्रप्रदेश की बाहर शेष भारत में वरवर राव और उनके राजनैतिक संघर्ष, विचारधारा के बारे में चंद बुद्धिजीवियों के अलावा आम जन जानते भी नहीं हैं। क्या ऐसे प्लेटफार्म का उपयोग किया जाना ज़रूरी नहीं हैं। गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी अपनी बात कह कर चले गए, वरवर और अरुंधति विरोध करते रह गए जो हम आप जैसे कुछ लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है मगर राष्ट्रीय मीडिया के जरिए व्यापक जनसमूह तक पहुँचने का मौका तो उन्होंने खो ही दिया न? नुकसान किसका हुआ ?
लाल सलाम कामरेड वरवर राव….!
इससे ज़्यादा साफ़ कोई क्या बोल सकता है? जिनके निहित स्वार्थ हैं अर्थहीन आवाजाही की वकालत करने में, वे अपनी खुद की विश्वसनीयता को परखें. वरवर राव की साफ़गोई को सलाम. हंस का आयोजन तो पप्पू-प्रसंग से वैसे ही इतना धूमिल हो गया है ! उन लेखकों के नाम भी देर-सवेर सामने आ ही जाएंगे जो हंस-पप्पू जुगलबंदी में संलग्न हैं.
जनता की सही पहचान और उसकी परशानी को समझने वाले जो भी बुद्धिजीवी वरवारा राव जैसे क्रांतिकारी कार्यकर्ता हैं उन्हें मेरा सलाम.
ये बातें कहकर वरवर राव ने यह तय कर दिया की साहित्य को किसके पक्ष में होना चाहिए और हमें कहाँ खड़े होना है. या जो लोग दूसरे छोर पर हैं उनकी निगाह में साहित्य और आम आदमी की हैसियत क्या है केवल साहित्य पर बात कर लेने भर से ही क्रान्ति के स्वर नहीं फूटेंगे. उस साहित्य को रचने पढने वाले लोग भी अपनी दिशा टी करें तभी साहित्य और जनता का सही तालमेल हो सकता है
वरवर जी को पढना और सुनना हमेशा से ही मुझे एक नयी ऊर्जा और प्रेरणा देता रहा है. एक दिन उनकी आवाज को देश की समूछी जनता जरूर समझेगी और तभी बदलाव के लिए एक नया आगाज होगा.
मै खुद को कलम मजदूर मानता हूँ .कथा -सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने खुद को कलम का सिपाही कहा था .जो मजदूर से सिपाही होने के संघर्ष में युद्धरत हें ,वे कलम के मालिकों के साथ खड़ा नहीं हो सकते हें .हमारे कामरेड गुरु वरवर राव ने हमारी पीढ़ी के सामने रास्ता साफ कर दिया है कि तुम्हें किसके साथ खड़ा होना है .कामरेड वी वी आप जिनके साथ नहीं खड़े हो सकते ,उनसे हमारी पूरी पीढ़ी दूरी रखेगी . वर्ग मित्र और वर्ग शत्रु की पहचान करने की आपने प्रेरणा दी है . हर हाल में सच कहने की आपकी ताकत को सलाम .-पुष्पराज
मै खुद को कलम मजदूर मानता हूँ .कथा -सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने खुद को कलम का सिपाही कहा था .जो मजदूर से सिपाही होने के संघर्ष में युद्धरत हें ,वे कलम के मालिकों के साथ खड़ा नहीं हो सकते हें .हमारे कामरेड गुरु वरवर राव ने हमारी पीढ़ी के सामने रास्ता साफ कर दिया है कि तुम्हें किसके साथ खड़ा होना है .कामरेड वी वी आप जिनके साथ नहीं खड़े हो सकते ,उनसे हमारी पूरी पीढ़ी दूरी रखेगी . वर्ग मित्र और वर्ग शत्रु की पहचान करने की आपने प्रेरणा दी है . हर हाल में सच कहने की आपकी ताकत को सलाम .
एक बाहरी टिप्पणी – इसी अखाड़ेबाजी और नाटक ने हिन्दी साहित्य का कबड़ा किया है। जो प्रेमचंद जैसा लिख भी नहीं पाते वह प्रेमचंद पर वक्तव्य क्या देंगे? अरुंधति को कितने होरियों और गोबरों ने पढ़ा है और में तो वर वर राव को जाता ही नहीं – बस भटकता हुया यहाँ आया । प्रेमचंद ने समाज की दुर्दशा अखाड़ेबाजी करके नहीं बल्कि सहज और सामाजिक भाषा में रोचक कहानियाँ लिख कर प्रस्तुत की थी। और बेशक जिन मठों को तोड़ने की बात जहां से हो रही है वह भी तो एक मठ ही है। शायद यही है लाल विरोधाभास।
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