धुंधलाती उम्मीदें, पथरायी आंखें |
धुंधलाती उम्मीद
अपनी महान नदी और उससे लगे महान के जंगल को बचाने के लिए ग्रामीणों के पास नियमगिरि के संघर्ष के मॉडल से चलकर एक उम्मीद ग्राम सभा के नाम से आई थी। उन्हें बताया गया था कि कानूनी दायरे में किस तरह संघर्ष संभव है और ग्रामसभा अगर चाहे तो परियोजना व जमीन अधिग्रहण को खारिज कर सकती है। बीते साल 6 मार्च को यहां अमिलिया, बुधेर और सुग्गो गांव में ग्रामसभा आयोजित की गई। ग्रामसभा में कुल 184 लोगों की मौजूदगी थी लेकिन जब दस्तावेज सामने आए तो पता चला कि कुल 1125 लोगों के दस्तखत उसमें थे। नाम देखने पर आगे साफ़ हुआ कि इसमें 10 ऐसे लोगों के दस्तखत थे जो काफी साल पहले गुज़र चुके थे। इसके अलावा ऐसी तमाम महिलाओं और पुरुषों के भी दस्तखत थे जो ग्रामसभा में आए ही नहीं थे। यह खबर काफी चर्चित हुई और आज भी ग्रीनपीस के दफ्तर में या गांवों में कोई पत्रकार पहुंचता है तो लोग सवा साल पुरानी इस घटना का जि़क्र करते हैं। इस मामले पर नेशरल ग्रीन ट्रिब्यूनल में एक याचिका भी सात लोगों के नाम से दायर है। अभी तक इसकी ग्रामसभा के निर्णय की स्थिति अस्पष्ट है। ताज़ा खबरों के मुताबिक कंपनी के हमदर्द समूह महान बचाओ समिति ने दोबारा ग्रामसभा रखवाने का प्रस्ताव भेजा है और जिला कलक्टर सेल्वेंद्रन ने अगले एक माह के भीतर इसे आयोजित करने का आश्वासन दिया है।
फिलहाल, अमिलिया, बुधेर, बन्धोरा, खराई, नगवां, सुहिरा, बंधा, पिडरवा आदि कुल 54 प्रभावित होने वाले गांवों के लोग कंपनी और प्रशासन से बचते-बचाते इस ग्रामसभा की उम्मीद में हैं। वे एक बात तो समझ चुके हैं कि ग्रामसभा भी उनकी समस्या का असल इलाज नहीं है। जहां तक स्थानीय प्रशासन और पुलिस में उत्पीड़नों से जुड़ी शिकायत का सवाल है, तो इस इलाके में यह एक बेहद भद्दा मज़ाक बनकर रह गया है क्योंकि स्थानीय पुलिस चौकी बन्धोरा स्थित एस्सार कंपनी के प्लांट के भीतर मौजूद है। सुहिरा के पास एक नई पुलिस चौकी की इमारत कब से बनकर तैयार है, लेकिन आज तक उसमें पुलिस चौकी को स्थानांतरित करने का आश्वासन ही मिल रहा है। बेचन लाल साहू कहते हैं, ”कोई भी शिकायत लिखवानी हो तो पहले आपको कंपनी के मेन गेट पर गार्ड के यहां रजिस्टर में अपना नाम पता लिखना होगा और उसकी अनुमति से ही आप पुलिस चौकी जा सकते हैं। बताइए, इससे बड़ा मज़ाक और क्या होगा।”
स्थानीय प्रशासन, संस्थाएं, सरकारी और निजी कंपनियां व रसूख वाले ऊंची जाति के लोग- इन सबका एक ऐसा ख़तरनाक जाल सिंगरौली में फैला हुआ है जिसे तोड़ना तकरीबन नामुमकिन दिखता है। इसके बावजूद कुछ बातें उम्मीद जगाती हैं। मसलन, करीब नब्बे साल के कड़क सफेद मूंछों वाले एक बुजुर्ग हनुमान सिंह को आप हमेशा राजीव गांधी चौक पर बैठे देख सकते हैं। वे पुराने समाजसेवी हैं और आज तक इसी काम में लगे हुए हैं। 25 जून की दोपहर वे कोई आवेदन लिखवाने के लिए संजय नामदेव के पास कालचिंतन के दफ्तर आए हुए थे। जबरदस्त उमस और गर्मी में पसीना पोंछते हुए वे संजय से कह रहे थे, ”जल्दी लिखो संजय भाई। आज जाकर कलेक्टर को दे आऊंगा। नहीं सुनेगा तो फिर से अनशन पर बैठ जाऊंगा।”
उनकी उम्र और जज्बा देखकर एक उम्मीद जगी, तो मैंने उनसे शहर के बारे में पूछा। वे बोले, ”यहां सब खाने के लिए आते हैं। अब देखो, पहले यहां साडा (विशेष क्षेत्र प्राधिकरण) था, फिर नगर निगम बना और अब नगरमहापालिका बन चुका है। दो सौ करोड़ रुपया नगरमहापालिका को आया था यहां के विकास के लिए। सामने सड़क पर देखो, एक पैसा कहीं दिख रहा है? ये गंदगी, कूड़ा, नाली… बस बिना मतलब का सात किलोमीटर का फुटपाथ बना दिया और बाकी पैसा खा गए सब। हम तो जब तक जिंदा हैं, लड़ते रहेंगे।” उनका आशय बैढ़न के राजीव गांधी चौक से इंदिरा गांधी चौक के बीच सड़क की दोनों ओर बने सात किलोमीटर लंबे फुटपाथ से था, जिसका वाकई में कोई मतलब नहीं समझ आता।
उस शाम हम जितनी देर चौराहे पर सीपीएम के दफ्तर में कामरेड गुप्ताजी के साथ बैठे रहे, कम से कम चार बार बिजली गई। राजीव और इंदिरा चौक के बीच शहर की मुख्य सड़क कही जाने वाली इस पट्टी से रात दस बजे अंधेरे में गुज़रते हुए नई नवेली मोटरसाइकिल पर एक शराबी झूमता दिखा, एक सिपाही एक हाथ में मोबाइल लिए उस पर बात करते और दूसरे हाथ से मोटरसाइकिल की हैंडिल थामे लहरा रहा था, तो एक तेज़ रफ्तार युवक हमसे तकरीबन लड़ते-लड़ते बचा। रवि शेखर बोले, ”यहां हर रोज़ एक न एक हादसा होता है। पहले ऐसा नहीं था। जिस दिन मुआवज़ा मिलने वाला होता है, लोगों को इसकी खबर बाद में लगती है लेकिन मोटरसाइकिल कंपनियों को पहले ही लग जाती है। वे बिल्कुल कलेक्ट्रेट के सामने अपना-अपना तम्बू गाड़कर ऐन मौके पर बैठ जाती हैं। इस तरह बाज़ार का पैसा घूम-फिर कर बाज़ार में ही चला जाता है।”
ग्रीनपीस के बैनर तले एक कंपनी के खिलाफ ग्रामीणों का संघर्ष सिंगरौली में ज्यादा से ज्यादा एक मामूली केस स्टडी हो सकता है। कैमूर की इन वादियों में कोयला खदानों, पावर प्लांटों, एल्युमीनियम और विस्फोटक कारखानों के बीचोबीच मुआवज़े और दलाली का एक ऐसा बाज़ार अंगड़ाई ले रहा है जहां सामंतवाद और आक्रामक पूंजी निवेश की दोहरी चक्की में पिसते सामान्य मनुष्यों से उनकी सहज मनुष्यता ही छीन ली गई है और उन्हें इसका पता तक नहीं है। यह सवाल ग्रीनपीस या उसके किसी भी प्रोजेक्ट से कहीं ज्यादा बड़ा है। आज का सिंगरौली इस बात का गवाह है कि कैसे विदेशी पूंजी और उससे होने वाला विकास लोगों को दरअसल तबाह करता है। लाखों लोगों को बरबाद करने, उनसे उनकी सहज मनुष्यता छीनने व इंसानियत को दुकानदारी में तब्दील कर देने के गुनहगार वास्तव में विश्व बैंक व अन्य विदेशी अनुदानों से यहां लगाई गई सरकारी-निजी परियोजनाएं हैं। विकास के नाम पर यहां तबाही की बात अमेरिकी अटॉर्नी डाना क्लार्क ने कई साल पहले कही थी, लेकिन अब तक इस देश की इंटेलिजेंस एजेंसियां इस बात को नहीं समझ पाई हैं। सिंगरौली इस बात का सबूत भी है कि या तो हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियों में इंटेलिजेंस जैसा कुछ भी मौजूद नहीं है या फिर गैर-सरकारी संस्थानों की भूमिका पर आई उसकी रिपोर्ट दुराग्रहपूर्ण राजनीति से प्रेरित और फर्जी है।
(समाप्त)
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