अभिषेक श्रीवास्तव
कौन है ये शख्स? |
पुराने दिनों की मशहूर फिल्म ”सिलसिला” में एक गीत है जिसके बोल कुछ यूं थे, कि तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता। अगर तुम्हारे होने पर वास्तव में ऐसा या वैसा न हुआ तो? रूमानियत के झीने परदे में यथार्थ की टेढ़ी उंगली किसी को रास नहीं आती। नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी आज भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार हैं, लेकिन अफ़सोस कि यह कोई ख़बर नहीं है। जो ऐसा या वैसा होना था, वह कुछ महीने पहले ही हो चुका जब वे अघोषित थे। लालकृष्ण आडवाणी पहले रूठ कर फिर बेमन मान गए। नीतिश कुमार मय पार्टी अलग ही हो गए। भोपाल की रैली में आडवाणी सितंबर में एक मंच पर मिले भी, तो मोदी के पैर छूने को उन्होंने उम्र और इंतज़ार से पक चुकी अपनी भौहों पर नहीं चढ़ने दिया। पूरे देश ने यह टीवी पर देखा। इन सब आख्यानों के समानांतर हैदराबाद से लेकर त्रिची और दिल्ली तक मोदी की रैलियों में भारी भीड़ जुटती रही और मोदी समकालीन राजनीति का एक प्रत्याख्यान बनते गए, रचते गए। आज रेल के डिब्बों में, बसों में, चाय की दुकानों में, खेल के मैदानों में, मोदी ही मोदी हैं। लेकिन उनकी सर्वव्याप्ति में उनके प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने का तथ्य धुंधला पड़ चुका है। यह विचित्र, किंतु सत्य है।
Courtesy: The Hindu |
चुनावी गठजोड़, सीटों के बंटवारे और खरीद-फरोख़्त से इतर असल राजनीति में एक नेता के शीर्ष पद तक पहुंचने में जन धारणा की बड़ी भूमिका होती है। मोदी को लेकर दूसरों की धारणा कैसे बनती है? ज़रा याद करें कि पिछले साल भर में मोदी को लेकर किसने क्या कहा। साल भर पहले उमा भारती ने उन्हें ”विनाश पुरुष” कहा था। शिवानंद तिवारी ने उनके रोम-रोम से झलकती ”एरोगेंसी” का जि़क्र किया, तो किसी ने उन्हें विभाजनकारी, किसी ने भस्मासुर और किसी ने दुधारी तलवार कहा। मोदी ये हैं, मोदी वो हैं, लेकिन घोषित सच्चाई यह है कि मोदी देश के इकलौते घोषित प्रधानमंत्री उम्मीदवार हैं। क्या यह सच्चाई कोई मायने भी रखती है? भाजपा के सत्रह साल पुराने सहयोगी जेडीयू का जाना किसकी वजह से हुआ? पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता का रूठना, उनके इस्तीफे का प्रकरण किसके चलते हुआ? मोदी के कारण, और वह भी तब जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं थे। इन दोनों घटनाओं ने मोदी को एक विचलन के तौर पर पब्लिक स्पेस में स्थापित करने का काम किया। अब मोदी को समझने के लिए हमारे पास दो ही विकल्प हैं। या तो हम ये मान लें कि मोदी जो भी हैं सही हैं और बाकी सब उनसे जलते हैं। या फिर हम यह मान लें वे जब से आए हैं तभी से उनके कुनबे और सहयोगियों के लिए दिक्कतें खड़ी होना शुरू हुई हैं। क्या इसके अलावा कोई तीसरा विकल्प है?
बात को समझने के लिए ज़रा पीछे चलते हैं। सोनिया गांधी इस देश की सियासत के लिए तकनीकी तौर पर अजनबी थीं, बावजूद इसके वे नेहरू खानदान की बहू थीं। उनके विदेशी मूल के मसले पर जिन शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाई, आज वे यूपीए का हिस्सा इसी वजह से हैं। आडवाणी तब तक इस देश की सियासत में अजनबी बने रहे जब तक अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व उन्हें घेरे रहा। अटल के अवसान के बाद उन्होंने अपनी छवि को स्वीकार्य बनाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर डाला। जिन्ना की तारीफ़ कर के और अपनी छवि को नुकसान पहुंचा कर वे कम विश्वसनीयता के साथ ही सही भाजपा के बाकी नेताओं की कतार में एक और अदद चेहरा बन कर उभरे अलबत्ता ज्यादा उम्र के चलते सबसे आगे, लेकिन सबसे अलग नहीं। ऐसा वे दरअसल प्रधानमंत्री बनने के लिए नहीं कर रहे थे। उन्होंने देखा था कि इस देश ने धुप्पल में मनमोहन सिंह जैसे अजनबी को प्रधानमंत्री और किन्हीं प्रतिभा देवीसिंह पाटील को राष्ट्रपति बनाए जाने पर कभी कोई उंगली नहीं उठाई थी। यह कांग्रेसी आचरण उस जन धारणा के अनुकूल था जिसमें एक परिवार होता है (गांधी परिवार) और एक पार्टी (कांग्रेस पार्टी) जहां व्यक्ति की महत्ता नहीं होती, भले वह अर्जुन सिंह जैसा कद्दावर क्यों न हो। आडवाणी पिछले एक दशक में दरअसल भाजपा का इसी तर्ज पर कांग्रेसीकरण कर रहे थे जहां एक परिवार रहता (संघ परिवार) और एक पार्टी होती (भाजपा)। वे इसमें काफी हद तक सफल हो चुके थे और सिर्फ अपने उम्र और तजुर्बे के बल पर लॉटरी लग जाने की फि़राक में थे। तभी राष्ट्रीय फ़लक पर मोदी आते हैं और…।
Courtesy: Outlook |
दरअसल, पिछले दो दशक के दौरान कांग्रेस, बीजेपी और फिर कांग्रेस का केंद्र में सरकार चलाना उस जन धारणा की उपज है (विकल्पहीनता के अतिरिक्त) जो ”कंटेंट” के स्तर पर दोनों दलों को समान मानती और जानती है। सत्ता परिवर्तन के मूल में कारण के तौर पर फर्क सिर्फ ”फॉर्म” का रहा है (याद करें बीजेपी का नारा ”पार्टी विद ए डिफरेंस”), जिसे आडवाणी ने सायास एकरूप बनाने का प्रयास किया (”डिफरेंस” को कमतर करते गए) और उस क्रम में खुद की छवि को भी ”डाइल्यूट” किया। इस तरह राष्ट्रीय फ़लक पर जो राजनीतिक संस्कृति पिछले एक दशक में अटल बिहारी वाजपेयी के अवसान के बाद पैदा हुई, वह एक सेकुलर-साम्प्रदायिक सम्मिश्रण से बनी थी जिसके कांग्रेस और भाजपा मूर्त्त घटक थे। इस पूरी प्रक्रिया में ”2002 का गुजरात नरसंहार और नरेंद्र मोदी” नामक आख्यान एक ऐसा अभूतपूर्व विचलन रहा जिसने इस सम्मिश्रण को बार-बार चुनौती दी।
दरअसल, 1989 के बनारस दंगे को जिस तरह देश का पहला आधुनिक दंगा कहा जाता है और उसे भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि उसी ने बाद में बाबरी विध्वंस और उदारीकरण की ज़मीन तैयार की व देश की राजनीति को ही बदल दिया, ठीक वैसे ही 2002 का नरसंहार टीवी पर प्रसारित होने वाला पहला दंगा था जिसे इस देश में सबने देखा। इसलिए उदारीकरण के एक दशक बाद हुआ यह ”टेलीवाइज़्ड” नरसंहार राष्ट्रीय राजनीतिक संस्कृति में अचानक एक विचलन की तरह आता है और इसी से अपनी पहली-पहली पहचान बनाने वाला नरेंद्र मोदी नाम का शख्स भी ताज़ा तैयार सेकुलर-सांप्रदायिक सामाजिक सम्मिश्रण में एक बेमेल घटक की तरह ही आता है- वास्तव में, किसी भी विदेशी सोनिया गांधी से कहीं ज्यादा एक अनपेक्षित विदेशी तत्व की तरह, जो भय मिश्रित कौतूहल पैदा करता है। ध्यान रहे कि यही उसकी पहली सार्वजनिक पहचान है। ध्यान रहे कि 2002 का नरसंहार ही नरेंद्र मोदी के ”होने” का पहला सार्वजनिक साक्ष्य है। यही वजह है कि कालांतर में यह पात्र बार-बार ”एलिनेट” होता है: चाहे जेडीयू का प्रकरण हो या आडवाणी का इस्तीफा या फिर अपने ही कुनबे के दूसरे नेताओं के साथ कटुतापूर्ण संबंध, बार-बार जन धारणा में यह शख्स खलपात्र के तौर पर स्थापित होता जाता है और एक दिन अचानक देश के सामने घर का बुजुर्ग इसके पैर छूने को नज़रंदाज़ कर देता है। जो 2002 में विचलन की तरह आया था, वह 2013 में विक्षेप बन जाता है। उसका प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना इसीलिए इस सारे फ़साने में गौण हो जाता है।
नरेंद्र मोदी के ”होने” से बहुत पहले इसकी निशानदेही आशीष नंदी ने उनसे एक साक्षात्कार का हवाला देते हुए गुजरात नरसंहार के बाद लिखे अपने एक लेख में की थी, जिसे यहां याद करना मौजूं होगा। नंदी 2002 में सेमीनार पत्रिका के 417वें अंक में लिखते हैं:
एक दशक से ज्यादा वक्त हुआ जब मोदी को कोई नहीं जानता था, तब वे आरएसएस के छुटभैया प्रचारक हुआ करते थे और बीजेपी में आने की कोशिश कर रहे थे। उस वक्त मुझे अच्युत याज्ञिक के साथ मोदी का एक इंटरव्यू करने का मौका मिला था… वह इंटरव्यू काफी लंबा चला था, काफी असंबद्ध था, लेकिन उसके बाद मुझे कोई शक नहीं रह गया कि जिस शख्स से मिलकर मैं आ रहा हूं वह चिकित्सीय और क्लासिकीय पैमाने पर विशुद्ध फासीवादी है। मैं ‘‘फासीवादी’’ का इस्तेमाल गाली के तौर पर कभी नहीं करता, मेरे लिए यह एक बीमारी की श्रेणी में आता है जिसमें न सिर्फ किसी के विचारधारात्मक आग्रह शामिल होते हैं बल्कि उसके व्यक्तित्व की प्रवृत्तियां और प्रेरक कारक भी जुड़े होते हैं जो विचारधारा को संदर्भित करते हैं।
मुझे पाठकों को यह बताने में कोई खुशी नहीं हो रही कि मोदी उन तमाम पैमानों पर खरा उतरते हैं जिन्हें एक सत्तावादी व्यक्तित्व के मामले में बरसों के आनुभविक अध्ययन के बाद मनोचिकित्सकों, मनोविश्लेषकों और मनोवैज्ञानिकों ने गढ़ा है। उनके भीतर शुद्धतावादी जड़ता, संकुचित भावनात्मक जीवन, अहं रक्षा के लिए काल्पनिक प्रक्षेपण का भारी इस्तेमाल, आत्मदमन, अपनी वृत्तियों का भय और हिंसा की फंतासी का वही सम्मिश्रण मिलता है- और सब कुछ स्पष्टतः एक व्यामोहग्रस्त व आसक्त व्यक्तित्व की प्रवृत्तियों के दायरे में बंधा हुआ है। मुझे अब भी याद है कि कैसे उन्होंने बिल्कुल ठंडे और नपे-तुले स्वर में भारत के खिलाफ वृहत् साज़िश का सिद्धांत सामने रखा था जिसमें हर मुसलमान को एक संदिग्ध देशद्रोही और संभावित आतंकवादी माना जाता है। मैं इंटरव्यू से निकला तो हिला हुआ था। मैंने याज्ञिक को बताया कि पहली बार मेरी मुलाकात किसी ऐसे व्यक्ति से हुई है जो बिल्कुल फासिस्ट होने के किताबी सिद्धांतों पर खरा उतरता है और एक संभावित हत्यारा है, हो सकता है कि भविष्य का नरसंहारक भी हो।
आशीष नंदी ने यह विक्षेप दो दशक पहले पहचान लिया था, लेकिन आज यह विक्षेप लोगों के मस्तिष्क में घर कर चुका है। जो लोग मोदी को लेकर रोमांचित हैं, वे भी उन्हें ”ऑड मैन आउट” ही मानते हैं। ऐसे समर्थकों द्वारा उनके पक्ष में एक दलील यह विकसित कर ली गई कि हमें दरअसल ऐसे शख्स की आदत नहीं है, वरना आादमी तो बहुत ”मोटिवेट” करता है। इस देश का मध्यवर्ग डिस्कवरी और नेशनल ज्यॉग्राफिक चैनल आने के बरसों बाद अब भी चिडि़याघरों में खूंखार जानवरों को देखने जाता ही है, तो मोदी की रैलियों में जुट रही भीड़ पर आश्चर्य क्यों हो। वैसे भी खुद भाजपा अपने विज्ञापनों में उन्हें ”भारत मां का शेर” कह कर उन्हें सुनने के लिए जनता का आह्वान कर रही है। शेर देखने-सुनने में तो आकर्षक लगता ही है, लेकिन उसे घर में पाला नहीं जाता है। उससे प्रेरणा ली भी जा सकती है, लेकिन हर सूरत में वह प्रेरणा ग्रहण करने वाले से असंपृक्त बना रहेगा। ये जो असंपृक्तता है, दरअसल आचार, व्वहार, भाषा और पहले बन चुकी छवि आदि से उपज रही है और सहज तौर पर कुछ सवाल खडे कर रही है। असल सवाल यहां दो हैं, जो खुद मोदी के दावों से निकल कर बार-बार सामने आ रहे हैं।
पहला सवाल गुजरात के विकास के मॉडल का है जिसका लेप मोदी लगातार 2002 के गड़े मुर्दों पर लगाकर निकल जाना चाहते हैं। जिस दिन भाजपा त्रिची में उनकी रैली में जुटी भीड़ से विरोधियों का मुंह बंद करवा रही थी, ऐन उसी दिन अमेरिका से आयातित रिजर्व बैंक के प्रबुद्ध गवर्नर रघुराम राजन गुजरात के विकास को ‘अल्पविकसित’ की श्रेणी में डालते हुए विकास के पैमाने पर 11 राज्यों से गुजरात के पीछे होने की रिपोर्ट सार्वजनिक कर रहे थे और बारिश के पानी में तैरते समूचे सौराष्ट्र की तस्वीरें टीवी के परदों पर जनता के सामने नुमाया हो रही थीं। यह पानी पर तैरते अल्पविकसित गुजरात का मॉडल था, जिसका अनुकरण कोई करना चाहे तो अपनी बला से। इसे कांग्रेसी राजनीति से प्रेरित रिपोर्ट कह कर खारिज भी किया जा सकता है, लेकिन ध्यान दीजिए कि मोदी जब-जब विकास की बात करते हैं तो वह असल में 2002 की त्रासदी के बरक्स ही उसे स्थापित करते हैं। इसे ऐसे समझें कि अगर 2002 का नरसंहार न हुआ होता तो क्या गुजरात के विकास का मॉडल अपने आप में चर्चा लायक स्वतंत्र हैसियत रखता? 2002 नहीं होता, तो आखिर किस संदर्भ में मोदी (या कोई और गुजराती/गुजरात समर्थक) इस विकास का जि़क्र ले आते? संदर्भ ही नहीं बनता। इसका मतलब साफ़ है कि मोदी का होना, गुजरात के विकास के मॉडल का होना, दोनों ही 2002 के नरसंहार का प्रत्याख्यान है। मोदी जो कुछ कर रहे हैं, कह रहे हैं, बेच रहे हैं, सबका संदर्भ ”बाइ डिफॉल्ट” गुजरात-2002 है।
ज़ेहन में अटकी है यह तस्वीर |
यहीं से दूसरा सवाल निकलता है जो ज्यादा अहम है। क्या वास्तव में गुजरात के मुस्लिमों ने 2002 को भुला दिया है? क्या देश के मुस्लिम मतदाता नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं? दावे किए जा रहे हैं कि गुजरात के विकास का फल यहां के मुस्लिमों को भी समान रूप से मिला है। अब चूंकि गुजरात के विकास पर खुद उस व्यक्ति द्वारा सवाल खड़े किए जा रहे हैं जिसका स्वागत नरेंद्र मोदी को चाहने वाले कॉरपोरेट जगत ने समय से पहले ही मिंट स्ट्रीट पर दिवाली मनाकर किया था (राजन के आरबीआई गवर्नर बनते ही शेयरों ने उछाल मारा था और रुपया मज़बूत हुआ था), इसलिए इस दावे के आधार में ही खोट नज़र आती है। दावों-प्रतिदावों से इतर आखिर मोदी के होने की पहली सार्वजनिक गवाही तो अब भी 2002 का भीषण नरसंहार ही है, चाहे वे कितने ही लाख-करोड़ की मुस्लिम टोपियां और बुरके क्यों न खरीद डालें? आखिर उस जन धारणा का क्या करें जिसने नरेंद्र मोदी को भारतीय संसदीय राजनीति में एक विक्षेप बना डाला है?
एक किस्सा दुहराना यहां दिलचस्प होगा, जिसका एम.जे. अकबर ने कभी अपने किसी लेख में किसी और संदर्भ में जि़क्र किया था। तुर्की में किसी ज़माने में एक विदूषक होता था होद्ज़ा, जो राजाओं और शक्तिशाली लोगों का मज़ाक उड़ाता था। एक बार किसी शहर में उसे एक धनीमानी शख्स ने खाने पर बुलाया। उसने पाया कि उसके साधारण कपडों के कारण कोई भी उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा है। वह भाग कर घर गया, उसने अच्छे राजसी कपड़े पहने और लौटकर आया तो उसकी खूब आवभगत हुई और उसे बेहतरीन भोजन परोसा गया। उसने अपने कोट का एक सिरा सालन में डुबोया और चिल्लाया, ”मेरे प्यारे कोट, यह तुम्हारे लिए है। खाओ, जमकर खाओ।” नरेंद्र मोदी को समझना चाहिए कि भारत जैसे अधपके संसदीय लोकतंत्र में सियासत का शोरबा किसी व्यक्ति के लिए नहीं होता, उसके कपड़ों के लिए होता जो वह धारण करता है। ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तानी जनता सायास ऐसे चुनाव करती है। ”कोई नृप होय हमें का हानि” की बरसों पुरानी लोकोक्ति हिंदुस्तानी अवाम के रोम-रोम में बसी है। वह सर्वप्रथम उसी से संचालित होती है। लेकिन ध्यान रहे कि इस लोकोक्ति में ”नृप” एक विक्षेपमुक्त कोटि है: मतलब, राजा की परिभाषा प्रजा की उस इतिहास संचित पारंपरिक धारणा से बनी है जिसमें राजा का मनुष्येतर होना स्वत: निषिद्ध है। वह कोई भी हो, मनमोहन या राहुल या कोई ऐरा-गैरा, लेकिन शेर या दानव तो कतई नहीं होना चाहिए। किसी भी तरह की दृश्य विक्षिप्तता के लिए हिंदुस्तानी मानस में कोई जगह नहीं है जबकि मोदी का अस्तित्व ही सहज सामान्य नागरिक जीवन में एक भयकारी विक्षेप है।
इसलिए, सत्ता की विशुद्ध हिंदुस्तानी खिचड़ी का सेवन करने के लिए नरेंद्रभाई को दूसरों को बुरके और टोपी पहनाना छोड़ सबसे पहले तो इंसानी चमड़ी के बने उस ”मेड इन गुजरात” ब्रांड ओवरकोट से निजात पानी होगी जो उनके ”होने” का पहला और सबसे प्रामाणिक सार्वजनिक गवाह है। ज़रूरी नहीं कि यह ओवरकोट उनकी आलमारी में हो या फिर उनकी बलिष्ठ देह पर। यह तो लोगों के दिमाग के किसी कोने में 2002 नंबर के खूंटे से टंगा हुआ है। इसी खूंटे से पगहा छुड़ाए जीव को देखने के लिए लोग उनकी सभाओं में जुट रहे हैं। और यही वह खूंटा है, जो 2014 की दौड़ में जनता को ”सिलसिला” के अमिताभ बच्चन सा रूमानी होने से रोक रहा है।
(समकालीन तीसरी दुनिया के अक्टूबर अंक से साभार)
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Good analysis
subhash gatade