अभिषेक श्रीवास्तव
इतिहास गवाह है कि प्रतीकों को भुनाने के मामले में फासिस्टों का कोई तोड़ नहीं। वे तारीखें ज़रूर याद रखते हैं। खासकर वे तारीखें, जो उनके अतीत की पहचान होती हैं। खांटी भारतीय संदर्भ में कहें तो किसी भी शुभ काम को करने के लिए जिस मुहूर्त को निकालने का ब्राह्मणवादी प्रचलन सदियों से यहां रहा है, वह अलग-अलग संस्करणों में दुनिया के तमाम हिस्सों में आज भी मौजूद है और इसकी स्वीकार्यता के मामले में कम से कम सभ्यता पर दावा अपना जताने वाली ताकतें हमेशा ही एक स्वर में बात करती हैं। यह बात कितनी ही अवैज्ञानिक क्यों न जान पड़ती हो, लेकिन क्या इसे महज संयोग कहें कि जो तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक कालिख की तरह यहां के फासिस्टों के मुंह पर आज से 12 साल पहले पुत गई थी, उसे धोने-पोंछने के लिए भी ऐन इसी तारीख का चुनाव 12 साल बाद दिल्ली से लेकर वॉशिंगटन तक किया गया है?
मुहावरे के दायरे में तथ्यों को देखें। 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस जलाई गई थी जिसके बाद आज़ाद भारत का सबसे भयावह नरसंहार किया गया जिसने भारतीय राजनीति में सेकुलरवाद को एक परिभाषित करने वाले केंद्रीय तत्व की तरह स्थापित कर डाला। ठीक बारह साल बाद इसी 27 फरवरी को 2014 में नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता को स्थापित करने के लिए दो बड़ी प्रतीकात्मक घटनाएं हुईं। गुजरात नरसंहार के विरोध में तत्कालीन एनडीए सरकार से समर्थन वापस खींच लेने वाले दलित नेता रामविलास पासवान की दिल्ली में नरेंद्र मोदी से मुलाकात और भारतीय जनता पार्टी को समर्थन; तथा अमेरिकी फासीवाद के कॉरपोरेट स्रोतों में एक प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा जारी किया गया चुनाव सर्वेक्षण जो कहता है कि इस देश की 63 फीसदी जनता अगली सरकार भाजपा की चाहती है। प्यू रिसर्च सेंटर क्या है और इसके सर्वेक्षण की अहमियत क्या है, यह हम बाद में बताएंगे लेकिन विडंबना देखिए कि ठीक दो दिन पहले 25 फरवरी 2014 को न्यूज़ एक्सप्रेस नामक एक कांग्रेस समर्थित टीवी चैनल द्वारा 11 एजेंसियों के ओपिनियन पोल का किया गया स्टिंग किस सुनियोजित तरीके से ध्वस्त किया गया है! ठीक वैसे ही जैसे रामविलास पासवान का भाजपा के साथ आना पिछले साल नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के खिलाफ नीतिश कुमार के एनडीए से निकल जाने के बरक्स एक हास्यास्पद प्रत्याख्यान रच रहा है।
कहीं किसी कॉन्सपिरेसी की गुंजाइश नहीं है, न ही हम इन तथ्यों और घटनाओं में कोई साजिश जबरन सूंघने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, समय का एक चक्र पूरा हो चुका है। बीते 12 साल में उठी भ्रम की धूल बैठ चुकी है। स्थिति शीशे की तरह साफ है। 2002 में सांप्रदायिकता के मसले पर एनडीए की सरकार से हाथ खींच लेने वाले रामविलास पासवान दोबारा बीजेपी के साथ हैं। दलित राजनीति का सबसे साफ-शफ्फाक़ पढ़ा-लिखा चेहरा उदित राज मय पार्टी आज भाजपा का दलित चेहरा बन चुका है। स्थापित सत्ता के खिलाफ़ जनांदोलन खड़ा करने के लिए वेलफेयर इकनॉमिक्स के गुर सीखने 2002 में विदेश गए अरविंद केजरीवाल ने जनता को भ्रम में डालने वाले कुछ प्रयोगों के बाद आखिरकार धनकुबेरों की सभा में अपनी विचारधारा की घोषणा कर दी है। विदेश के पैसे से जमीनी राजनीति करने वाली कुछ बेचैन आत्माएं उनके साथ जुड़ चुकी हैं। पुराने किस्म की राजनीति करने वाले लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि कांग्रेस की टुच्ची साजिशों में फंस कर अपना अस्तित्व बचाने में जुटे हैं। और इस समूचे परिदृश्य में वामपंथी दल आज भी एक आखिरी उम्मीद के साथ सेकुलरवाद की दरक चुकी नाव को थामे हुए हैं ताकि सांप्रदायिक-फासिस्ट ताकतों का हौवा खड़ा कर के किसी तरह दो-चार सवारों को इस पर बैठने और पार जाने के लिए मनाया जा सके जबकि उनके ढह चुके गढ़ से ममता बनर्जी की शक्ल में प्रतिक्रियावादी राजनीति की ऐसी राष्ट्रीय कोंपल फूट चुकी है जिसे खाद-पानी देने वाला और कोई नहीं बल्कि जीते जी अपनी प्रतिमा लगवाने के लिए राजनाथ सिंह से सिफारिश करने वाले बुजुर्ग अन्ना हज़ारे हैं, जो फिलवक्त एक पुराने भ्रष्ट संपादक के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं। इसमें कोई शक़ नहीं कि संसदीय वामपंथ की नाव को इस बार डूबना ही होगा, चूंकि उस पर मुलायम सिंह यादव, नीतिश और जयललिता जैसे प्रधानमंत्री पद का सपना पाले सवार लदे हैं जो कभी भी अपनी आस्थाएं बदल सकते हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि 2014 में बाकी सबके पास विकल्प ही विकल्प हैं, अकेले संसदीय वाम विकल्पहीन है।
यह स्थिति अपने आप नहीं बनी है। इसे बाकायदा लाया गया है और इसके लिए चौतरफा काफी मेहनत हुई है। बीती 26 फरवरी को अगर विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद के नरेंद्र मोदी पर दिए ”नपुंसक” वाले बयान (की आदर्श स्थिति में निंदा करते हुए) का सहारा लेकर कहें, तो दरअसल इस समाज में व्यापक पैमाने पर नैतिक और वैचारिक ”नपुंसकता” बीते दशक में फैली है। दिलचस्प यह है कि ऐसी नपुंसकता का आधार तर्क खुद लोकतंत्र ही बना है। इसे समझने के लिए सिर्फ रामविलास पासवान और उदित राज का उदाहरण काफी होगा। 23 फरवरी को जब खबरनवीसों के बीच यह चर्चा आम हुई कि पासवान और उदित राज भाजपा के साथ जाने वाले हैं, तो पहचान की राजनीति के कुछ बौद्धिक हरकारों ने बाकायदा यह तर्क अपने लिखे में फेसबुक से लेकर तमाम अनौपचारिक मंचों पर रखा कि अगर सवर्ण लोग बुर्जुआ पार्टियों में आवाजाही कर सकते हैं, तो दलित क्यों नहीं। उनके तर्क के हिसाब से यह तो सबका लोकतांत्रिक अधिकार है कि वो जहां चाहे वहां जाए और रहे। इस तर्क से सहमत होने वालों की कमी नहीं है। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में आवाजही के लोकतंत्र का यह तर्क और इस पर बहस अब कुछ साल पुरानी हो चुकी है और इस बारे में अच्युतानंदन जैसे खांटी वामपंथी नेताओं को छोड़ दें तो अब कोई गंभीर भी नहीं रहा। यह महज संयोग नहीं है कि कभी समाजवादी राजनीति करने वाले और अब आम आदमी पार्टी के चाणक्य बन चुके विनम्र बुद्धिजीवी योगेंद्र यादव ने खुलेआम मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को बेहद अश्लील और विवेकहीन तरीके से अपनी पार्टी में आने का न्योता दे डाला। उन्होंने माकपा के नेताओं से कहा कि वे चाहे तो ”डेपुटेशन” पर आआपा में आ सकते हैं और अगर वे चुनाव में हार गए तो वापस कम्युनिस्ट पार्टी में वापस जा सकते हैं। क्या कभी ऐसा कहीं भी इस दुनिया में हुआ था जो आज भारत में देखने में आ रहा है? अद्भुत यह है कि अश्लीलता की इस पराकाष्ठा पर अच्युतानंदन के अलावा और किसी ने भी कड़ाई से जवाब नहीं दिया। बौद्धिक जगत ऐसे प्रहसनों पर खामोश है।
वैचारिक रूप से नपुंसक आवाजाही के इस लोकतंत्र के विशिष्ट संदर्भ में ही हमें आम आदमी पार्टी नाम की खतरनाक परिघटना को अवस्थित कर के देखना होगा और यहीं से समझना होगा कि वोट बैंक के लिए ही सही, लेकिन सेकुलरवाद के नाम पर संसदीय लोकतंत्र की जो आखिरी दृश्य मर्यादा और नैतिकता भारतीय राजनीति में बची हुई थी, वह कैसे 2014 में अस्त हुई है। बात को समझने के लिए ज़रा पीछे चलते हैं और समकालीन तीसरी दुनिया के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित इसी लेखक के नरेंद्र मोदी पर लिखे लेख के कुछ अंश दोबारा देखते हैं ताकि चीज़ों को संदर्भ में रखने में आसानी हो सके:
”सोनिया गांधी इस देश की सियासत के लिए तकनीकी तौर पर अजनबी थीं, बावजूद इसके वे नेहरू खानदान की बहू थीं। उनके विदेशी मूल के मसले पर जिन शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाई, आज वे यूपीए का हिस्सा इसी वजह से हैं। आडवाणी तब तक इस देश की सियासत में अजनबी बने रहे जब तक अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व उन्हें घेरे रहा। अटल के अवसान के बाद उन्होंने अपनी छवि को स्वीकार्य बनाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर डाला। जिन्ना की तारीफ़ कर के और अपनी छवि को नुकसान पहुंचा कर वे कम विश्वसनीयता के साथ ही सही भाजपा के बाकी नेताओं की कतार में एक और अदद चेहरा बन कर उभरे अलबत्ता ज्यादा उम्र के चलते सबसे आगे, लेकिन सबसे अलग नहीं। ऐसा वे दरअसल प्रधानमंत्री बनने के लिए नहीं कर रहे थे। उन्होंने देखा था कि इस देश ने धुप्पल में मनमोहन सिंह जैसे अजनबी को प्रधानमंत्री और किन्हीं प्रतिभा देवीसिंह पाटील को राष्ट्रपति बनाए जाने पर कभी कोई उंगली नहीं उठाई थी। यह कांग्रेसी आचरण उस जन धारणा के अनुकूल था जिसमें एक परिवार होता है (गांधी परिवार) और एक पार्टी (कांग्रेस पार्टी) जहां व्यक्ति की महत्ता नहीं होती, भले वह अर्जुन सिंह जैसा कद्दावर क्यों न हो। आडवाणी पिछले एक दशक में दरअसल भाजपा का इसी तर्ज पर कांग्रेसीकरण कर रहे थे जहां एक परिवार रहता (संघ परिवार) और एक पार्टी होती (भाजपा)। वे इसमें काफी हद तक सफल हो चुके थे और सिर्फ अपने उम्र और तजुर्बे के बल पर लॉटरी लग जाने की फि़राक में थे। तभी राष्ट्रीय फ़लक पर मोदी आते हैं और…।
दरअसल, पिछले दो दशक के दौरान कांग्रेस, बीजेपी और फिर कांग्रेस का केंद्र में सरकार चलाना उस जन धारणा की उपज है (विकल्पहीनता के अतिरिक्त) जो ”कंटेंट” के स्तर पर दोनों दलों को समान मानती और जानती है। सत्ता परिवर्तन के मूल में कारण के तौर पर फर्क सिर्फ ”फॉर्म” का रहा है (याद करें बीजेपी का नारा ”पार्टी विद ए डिफरेंस”), जिसे आडवाणी ने सायास एकरूप बनाने का प्रयास किया (”डिफरेंस” को कमतर करते गए) और उस क्रम में खुद की छवि को भी ”डाइल्यूट” किया। इस तरह राष्ट्रीय फ़लक पर जो राजनीतिक संस्कृति पिछले एक दशक में अटल बिहारी वाजपेयी के अवसान के बाद पैदा हुई, वह एक सेकुलर-साम्प्रदायिक सम्मिश्रण से बनी थी जिसके कांग्रेस और भाजपा मूर्त्त घटक थे। इस पूरी प्रक्रिया में ”2002 का गुजरात नरसंहार और नरेंद्र मोदी” नामक आख्यान एक ऐसा अभूतपूर्व विचलन रहा जिसने इस सम्मिश्रण को बार-बार चुनौती दी।”
जिस सेकुलर-साम्प्रदायिक सम्मिश्रण की बात यहां की गई है, उसकी इकलौती चुनौती के रूप में हमारे सामने ”2002 का गुजरात नरसंहार और नरेंद्र मोदी” का आख्यान था। यह आख्यान इतना निर्णायक था कि सेकुलर-साम्प्रदायिक सम्मिश्रण के भीतर रह-रह कर ध्रुवीकरण पैदा कर देता था। चूंकि कंटेंट के स्तर पर भाजपा और कांग्रेस में कोई फ़र्क नहीं रह गया था और कुछ मुद्दों पर वामपंथी पार्टियों के स्टैंड को छोड़ दें तो बाकी और दलों की नैतिकता भी नरेंद्र मोदी के संदर्भ में सेकुलरवाद की राजनीति से तय होती थी, इसलिए जैसा कि हमने ऊपर बताया, सेकुलरवाद भारतीय राजनीति की ”आखिरी दृश्य मर्यादा और नैतिकता” के रूप में बचा हुआ था। इसी मर्यादा और नैतिकता की दुहाई देकर 16 जून 2013 को जनता दल (युनाइटेड) ने भाजपा के साथ 17 साल से चल रहा अपना संयुक्त खाता अचानक बंद कर दिया था, जिसके बाद दिसंबर आते-आते स्थिति यह हो गई थी कि औपचारिक-अनौपचारिक बहसों में भाजपा के साथ शिवसेना और अकाली के अलावा कोई तीसरा सहयोगी खोजने के लिए लोगों को काफी सिर खपाना पड़ा। जेडीयू के अलग हो जाने के बाद एक धारणा बन रही थी कि मोदी के नाम पर भाजपा के साथ कोई नहीं आएगा और 2014 में एनडीए की सरकार बनना मुश्किल होगी। वजह? वही, संसदीय राजनीति की ”आखिरी दृश्य मर्यादा और नैतिकता”, जिसका नाम सेकुलरवाद है। इस मर्यादा को दो ही तरीकों से तोड़ा जा सकता था। या तो मोदी दंगों के लिए बेशर्त माफ़ी मांग लेते या फिर उन्हें माफ़ कर दिया जाता।
ज़ाहिर है, दोनों में से कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता 2013 के अंत में दो ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने इस मर्यादा को भंग करने की ज़मीन बना दी। पहली घटना: 26 दिसंबर 2013 को गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआइटी ने ज़किया ज़ाफ़री की याचिका पर नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी। दूसरी घटना इसके दो दिन बाद घटी, जब अपने अतिसंक्षिप्त राजनीतिक जीवन में एक बार भी सेकुलर-कम्यूनल का नाम लिए बगैर सिर्फ भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाते-चिल्लाते अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में मुख्यमंत्री की शपथ ले ली। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान तो भाजपा की मुट्ठी में पहले ही थे। दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बनने का चुम्बकीय असर देखने में आया। अब तक उन्हें लेकर संशय में रहीं गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई राजनीतिक ताकतें अपने आप आम आदमी पार्टी के साथ जुड़ने लगीं। पूरे देश में राजनीतिक लोगों की आवाजाही आआपा की ओर काफी तेज़ हुई और इसके बरक्स सेकुलर राजनीति के एक ध्रुव के तौर पर कांग्रेस निरीह दिखने लगी। दूसरी तरफ चूंकि मोदी को क्लीन चिट मिल चुकी थी और इसका पर्याप्त प्रचार भी किया जा चुका था, तो मामला बस जनधारणा में इस बात को पैठा देने का बचा था। यह काम जनवरी के तीसरे सप्ताह से शुरू हुए ओपिनियन पोल के सिलसिले ने कर डाला। हर ओपिनियन पोल ने भाजपा को 200 के आसपास सीटें दिखाईं और परिचर्चाओं में पैनल पर बैठे भाजपाइयों ने जम कर ”क्लीन चिट” की खुराक जनता को दी। इस दौरान अरविंद केजरीवाल का मुख्यमंत्री के तौर पर दिया धरना और फिर इस्तीफा आदि भी टीवी और अन्य माध्यमों में छाया रहा। कुछ टीवी पत्रकारों की मानें तो जनवरी में उनके ऊपर नरेंद्र मोदी के भाषण और खबरें चलाने का दबाव उनके प्रबंधन की ओर से डाला जा रहा था, जिससे बचने के लिए उन्होंने अपने ”विवेक” से आम आदमी पार्टी को खूब कवरेज दी। कवरेज के पैटर्न के आधार पर समाजवादी, गांधीवादी और वामपंथी यह समझते रहे कि आम आदमी पार्टी नरेंद्र मोदी को ”खा” गई है, जबकि टीवी लगातार एक दुधारी तलवार का काम कर रहा था।
भाजपा और आआपा के बीच टीवी और अन्य माध्यमों से चलाई गई इस रोमांचक और तीव्र गति की राजनीति का मूल एजेंडा सिर्फ एक ही था: जनधारणा को प्रभावित करना। समझने वाली बात यह है कि जिस तरह अरविंद केजरीवाल की शहरी मध्यवर्ग के वोटर में स्वीकार्यता जनमाध्यमों की बनाई धारणा पर टिकी हुई है, उसी तरह मोदी के बारे में आम धारणा ”लोगों के दिमाग के किसी कोने में 2002 नंबर के खूंटे से टंगी हुई है”। तथ्यों के पार सारा खेल इन्हीं धारणाओं को ”मैनेज” करने का है। यह धारणा सबसे पहले हमें टूटती दिखी राष्ट्रवादी कांग्रेस के मुखिया शरद पवार के बयान में, जिन्होंने कह डाला कि सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिल जाने के बाद 2002 पर बात करने का कोई मतलब नहीं है। इसकी परिणति गोधरा कांड की 12वीं बरसी से एक दिन पहले रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के बयान में हुई है। इन दो बयानों के बीच आवाजाही का जो ”लोकतांत्रिक” खेल आआपा ने शुरू किया था, वह दिल्ली से निकल कर देशव्यापी हो चला है और संसदीय दलों की सीमाएं लांघ चुका है। कुछ उदाहरण देखें: लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से पहले 13 विधायकों के टूट कर जेडीयू में जाने की खबर आती है। फिर अगली रात तक नौ विधायकों के घर वापसी की खबर लालू सुनाते हैं और अगले दिन विजयी मुद्रा में टेलीविज़न पर ”साम्प्रदायिकता” को सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं। पश्चिम बंगाल में सीपीएम और भाजपा के बीच आवाजाही जारी है। गुजरात में कांग्रेस का तकरीबन लोप ही होने वाला है क्योंकि उसके तमाम नेता भाजपा में जा चुके हैं।
वेदांता के प्रवक्ता और टाटा के सीएसआर सलाहकार डॉ. धनदकांत मिश्र व बिस्मय महापात्र (जो क्रमश: ओडिशा के बरहमपुर और भुबनेश्वर से आआपा के प्रत्याशी हैं) से लेकर सत्ता और माओवाद के बीच फंसी सोनी सोरी तक; कुडनकुलम में न्यूक्लियर प्लांट विरोधी राजनीति करने वाले एस.पी. उदयकुमार से लेकर झारखंड में दयामनी बरला तक, हर कोई आआपा में जा चुका है। डीएमके से अन्नाद्रमुक में जाने का सिलसिला नेताओं का जारी है जबकि डीएमके खुद भाजपा को समर्थन के बारे में सोचने लगा है। तेलंगाना बनने के बाद टीआरएस का कांग्रेस को समर्थन तय है। बीती 27 फरवरी को तेलुगुदेशम के तीन विधायक टीआरएस में चले गए हैं। इधर उत्तर प्रदेश में सपा के एक मज़बूत नेता मोदी के साथ लखनऊ रैली में मंच साझा करते पाए गए हैं। इन तमाम राजनीतिक व्यभिचारों के बीच रामविलास पासवान का भाजपा के साथ जाना सबसे अहम है क्योंकि वह नरेंद्र मोदी को 27 फरवरी 2002 की कालिख साफ़ करने का एक प्रतीक मुहैया करा रहा है।
राष्ट्रीय प्रहसन का आखिरी दृश्य |
यह 2014 का नया लोकतंत्र है जिसमें मर्यादा लुप्त है, नैतिकता सुप्त है। सिर्फ पाले मौजूद हैं और आपको सिर्फ इतना तय करना है कि आप किस पाले में हैं। इस समूची स्थिति को प्रहसन में तब्दील करती है आंध्र प्रदेश में अचानक चिटफंड के गर्भ से पैदा हुई एक नई राजनीतिक पार्टी जिसका नाम है ”इंडियन क्रिश्चियन सेकुलर पार्टी”। यह नए दौर का सेकुलरवाद है, जो कुछ भी हो सकता है। एक और सेकुलरवाद है, जो मुजफ्फरनगर दंगों के बाद कुछ स्वयंभू गांधीवादियों द्वारा वहां काटी गई समर्थन की फसल के बाद आआपा की उम्मीदवारी में लहलहाने वाला है। इसके समानांतर सेकुलरवाद की नई उलटबांसी नरेंद्र मोदी गढ़ रहे हैं, जिन्होंने 2 मार्च को लखनऊ रैली में भाजपा को सबसे बड़ा सेकुलर बताया और बाकी सभी पार्टियों को छद्म सेकुलर, जो कि दंगे करवाती हैं। इस व्यभिचारी परिदृश्य की वैचारिक दिशा क्या है? क्या यह विचारधारा का अंत जैसी कोई बात है? क्या यह संक्रमण का कोई दौर है जिसमें से कुछ अच्छा निकलना है? आखिर हो क्या रहा है?
वापस लेख की शुरुआत में चलते हैं। सारे ओपिनियन पोल की पोल खोले जाने के बावजूद 27 फरवरी को गोधरा की 12वीं बरसी पर जो इकलौता विदेशी ओपिनियन पोल मीडिया में जारी किया गया है, उसकी जड़ों तक जाना होगा जिससे कुछ फौरी निष्कर्ष निकाले जा सकें। एक पोल एजेंसी के तौर पर अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर का नाम भारतीय पाठकों के लिए अनजाना है। इस एजेंसी ने मनमाने ढंग से चुने गए 2464 भारतीयों का सर्वेक्षण किया और निष्कर्ष निकाला कि 63 फीसदी लोग भाजपा की सरकार चाहते हैं तथा 78 फीसदी लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। सवा अरब के देश में ढाई हज़ार के इस सर्वेक्षण को जारी करने की तारीख चुनी गई 27 फरवरी, जिस दिन रामविलास और मोदी दोनों अपने जीवन का एक चक्र पूरा करने वाले थे। क्या कोई संयोग है? कतई नहीं।
देखें सर्वेक्षण का सच
उपर्युक्त तथ्यों से एक बात साफ़ है कि आज की तारीख में अब तक भारत में जो कुछ भी देखने में आ रहा है, वह एक विश्वव्यापी फासिस्ट एजेंडे के तहत उसे पोसने वाली संस्थाओं का किया-धरा है। गुजरात-2002 की कालिख छुड़ाने में जुटे नरेंद्र मोदी हों या खुद को सीआइआइ के सामने पूंजीवाद का समर्थक बताने वाले फोर्ड अनुदानित अरविंद केजरीवाल या फिर नवउदारवादी पूंजीवाद को देश में लागू करने वाली कांग्रेस पार्टी, तीनों एक ही वैश्विक एजेंडे का हिस्सा हैं। इस दुश्चक्र से निजात दिलाने वाली सिर्फ एक ही ताकत है जो इस खेल को समझ रही है या समझाए जाने पर समझ सकती है। वो हैं वामपंथी राजनीति करने वाली तमाम ताकतें। 2014 के लोकसभा चुनावों के आलोक में अगर आज ईमानदार और देसी राजकाज की कोई भी जनपक्षीय उम्मीद बनती है तो इन्हीं ताकतों से, जिनके पंडाल में अहं और जोड़तोड़ के असंख्य छेद हो चुके हैं।
(समकालीन तीसरी दुनिया के मार्च अंक से)
Read more