भाई पंकज पराशर ने ठीक ही कहा था, कि मोहल्ले में इतना लोकतंत्र नहीं कि वहां की जम्हूरिया उस पत्र को प्रकाशित कर सके…मैं अब तक अपने जनपथ पर इसे डालने से बच रहा था लेकिन अब सोचता हूं कि छाप ही देता हूं…कारण, कि मोहल्ले में दोस्तों की गलियों से अविनाश ने मुझे और पंकज पराशर को बेदखल कर दिया है…शायद उन्होंने वैचारिक असहमति के प्रदेश को खुद-ब-खुद इतना तिक्त बना दिया है कि कुछ गलियां उन्हें नाग़वार गुज़र रही हैं। खैर, मोहल्ला उनका है…जनपथ तो सबका है
मामला आपको अविनाश के ब्लॉग से पता चल जाएगा या चल गया होगा…मैंने सिर्फ एक हस्तक्षेप करने की कोशिश की थी…मेरा पत्र जस का तस यहां मैं डाल रहा हूं…
अविनाश भाई,
जो लोग आपसे परिचित हैं, हरिवंश जी से और साथ ही हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया से, उनके लिए मोहल्ले में हरिवंश जी का एक प्रेरणा पुरुष की तरह आना हास्यास्पद और विडम्बनात्मक घटना से ज्यादा कुछ नहीं है। पंकज पाराशर की बात आपने काट दी यह कह कर कि वैचारिक असहमति का मैदान इतना तिक्त नहीं होता कि हमेशा गाली दी जाए…लगे हाथों आपने उन्हें पढ़ने सीखने और वैचारिक हस्तक्षेप करने की सलाह भी दे डाली। सज्जन हैं जो चार वाक्यों में ही अपनी टिप्पणी निपटा गए पंकज भाई।
आपका पोस्ट देख कर मुझे सबसे पहले कुमार मुकुल की प्रभात खबर पर ही लिखी कविता याद हो आई…जो हलाल नहीं होता, वो दलाल होता है…। अन्यार्थ न लीजिएगा, लेकिन कथादेश में भी आपने जब विनोद जी के कंधे पर रख कर बंदूक चलाई थी तो उससे गोली नहीं निकली बल्कि कुछ बेहद भद्दे रंग निकले थे…मैंने आपसे तब कहा भी था आप कुछ ज्यादा ही विनम्र हो गए। चर्चा तो खूब हुई, लेकिन लगा नहीं कि आप विरोध कर रहे हैं। यह एक किस्म के रहस्यात्मक कूटनीतिक पत्र से ज्यादा नहीं बन सका था।
उसके बाद आपकी रांची यात्रा और फिर उस प्रकरण की परिणति आपके ब्लॉग पर हरिवंश जी की उपस्थिति से होने के मायने बेहतर आप ही बता सकते हैं। लेकिन एक बात कहना चाहूंगा…’असहमति के मैदान के इतना तिक्त न होने’ का तर्क देकर आपने हमारे और अपने मित्र अरविंद शेष के ज़ख्मों पर अनजाने ही नमक ही नहीं कोई तीखा अम्ल डाल दिया है। मुझे अब भी याद है कि जनसत्ता में आने से पहले अरविंद जी कितनी घुटन भरी स्थितियों में जी रहे थे…वह हरिवंश ब्रांड ‘अखबार नहीं आंदोलन’ की एक रंजनवादी नौकरी का ही नतीजा था। और खुद आप ही यह स्वीकार करते हैं कि रंजन श्रीवास्तव को आपने प्रभात खबर में प्रवेश दिलवाया था। चलिए, वह वक्त की बात रही होगी, लेकिन क्या मैं मान लूं कि अरविंद के दर्द से आप परिचित नहीं होंगे। फिर हरिवंश जी की एक अश्लील और सामान्य स्वीकृति कि ‘अब संपादक मैनेजर हो गया है’ को छापने के क्या मायने।
अविनाश भाई, वैचारिक सहमति और असहमति की जब भी बात होती है तो वह इतनी लचर भी नहीं होती कि दूसरों की आंखों में धूल झोंकी जा सके। हम यह मान सकते हैं कि तमाम वैचारिक असहमतियों के बावजूद व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह रहते हैं…यह व्यावहारिकता का तकाज़ा भले हो, लेकिन एक जनमाध्यम पर उसे अभिव्यक्त करना आशंकाएं खड़ी करता है। वैचारिक स्टैंड को लेकर भी और व्यक्तिगत संबंधों के संदर्भ में भी। मैं नहीं जानता कि अरविंद की इस मामले पर क्या प्रतिक्रिया है…संभव है कि वे अब भी आपसे वैसे ही संबंध जारी रखें…लेकिन फिर मुझे लगता है मोहल्ले में इस किस्म की आपकी तमाम हरकतें सिर्फ प्रचारचादी और लोकप्रियतावादी नजरिए से ही होती हैं…क्योंकि मोहल्ले के अधिकतर निवासी या यहां से गुज़रने वाले ऐसे टीवी पत्रकार हैं जो या तो चीज़ों को गंभीरता से नहीं लेते अथवा उन्हें व्यक्तिगत संबंधों और वैचारिक मतभेदों के बीच का झीना परदा नज़र नहीं आता। और आप अपनी उस बिरादरी में वैसे ही बने रहते हैं जैसे गाइड फिल्म में देवानंद का पवित्र साधु पात्र।
यहां मैं कतई व्यक्तिगत नहीं हो रहा हूं…आप ऐसा भले मान लें…क्योंकि पत्रकारीय नैतिकता का ही तकाज़ा था कि मैंने अब तक दस नौकरियां छोड़ी हैं और हाल ही में आपके चैनल में दिबांग के साथ 45 मिनट लंबे चले साक्षात्कार के बाद मुझे नहीं बुलाया गया…संभव है मुझमें कमियां रही हों…लेकिन इसका बुनियादी कारण यह था कि मैंने संजय अहिरवाल के एक सवाल के जवाब में गुजरात नरसंहार पर भाजपा के खिलाफ स्टैंड ले लिया था। बाद में एक टीवी पत्रकार ने ही मुझे सलाह दी थी कि भइया नौकरी ऐसे नहीं मिलती है…आपको डिप्लोमैटिक होना चाहिए था।
मुझे लगता है कि गुजरात नरसंहार जैसी किसी भी घटना पर डिप्लोमैटिक होना वैसे ही है जैसे ‘वैचारिक असहमति के प्रदेश को इतना तिक्त न छोड़ देना कि सिर्फ गालियां दी जाएं’। आप ही का तर्क…। शायद, यह नैतिकता और वैचारिकता की उत्तर-आधुनिक व्यवहारवादी परिभाषा हो। लेकिन इसे कम से कम मैं नहीं जानता और मानता।
एक आग्रह है आखिर में…संभव हो सके तो ब्लॉग पर, फोन पर अथवा अगली मुलाकात में आप हरिवंश जी से एक प्रश्न पूछने का साहस अवश्य करिएगा, कि ‘क्या संपादक के मैनेजर हो जाने की सामान्य टिप्पणी उन पर खुद लागू होती है…।’ यदि वह जवाब नहीं में दें, तो एक और सवाल पूछिएगा कि दिल्ली के सिविल सोसायटी जैसे तमाम एनजीओ से जुड़ाव, उनकी पत्रिकाओं के कवर पेज पर ‘मिस्टर एडिटर’ के तमगे से लेकर विदेश यात्राओं तक के पीछे क्या माया है। क्या इस माया के लिए दिल्ली के ब्यूरो में प्रतिमाह 1400 रुपए पर किसी लड़के से संपादकीय पेज पर काम कराना ज़रूरी होता है…।
यदि उनका जवाब हां में हो, तो आपसे कम से कम हम पाठक मोहल्ले पर एक खेद पत्र की अपेक्षा अवश्य करेंगे। आखिर वैचारिक असहमति के बावजूद आपसे इतनी मांग तो की ही जा सकती है…मोहल्ला इतना तिक्त तो नहीं…।
गुरु, देसी भाषा में कहूं तो बिना मतलब इस तरह की चीज़ों को मोहल्ले में लाकर क्यों बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया अराजनीतिक लोगों की दुनिया है…उसमें हम जैसे राजनीतिक लोगों को हस्तक्षेप के लिए मजबूर करने से आपके मोहल्ले की लोकप्रियता तो घटेगी ही, अनावश्यक आपके ब्रांडेड होने का खतरा भी पैदा हो जाएगा। मैं फिर आपसे गुज़ारिश करता हूं कि क्लास मीडियम और मास मीडियम के फर्क को समझिए…मास के सवाल क्लास मीडियम पर उठाएंगे तो कुछ डीक्लास लोगों के हस्तक्षेप से कुछ लोगों को डीक्लास होना पड़ जाएगा। यह हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना है…