आधुनिकता, लोकतंत्र और आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के संचालन-परिचालन के लिहाज से यह नया साल कोरोना से ग्रस्त रहे 2020 पर इक्कीस पड़ता दिख रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में सुप्रीम कोर्ट ने नये साल पर नयी संसद बनाये जाने को मंजूरी दी, तो दो दिन बाद ही दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका की संसद पर राष्ट्रपति के ललकारने से प्रेरित होकर हुड़दंगियों ने धावा बोल दिया। संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में ये दो प्रतिस्पर्धी घटनाएं उसके भविष्य की शक्ल तय करेंगी।
कब्ज़े में लोकतंत्र: ट्रम्प के आह्वान पर हजारों की भीड़ घुसी संसद में, ऐतिहासिक दृश्य
भारत के संदर्भ में यह शक्ल कैसी होगी, इसका कुछ-कुछ अंदाज़ा हमें पिछले छह वर्षों में घटी घटनाओं से देखने पर लग सकता है जब संसद भवन के मुख्य द्वार की सीढ़ियों पर 20 मई 2014 को पहली बार एक सांसद के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने मत्था टेका था। उस तस्वीर को याद करिए।
उसके बाद जो जो हुआ, वह हमारी समकालीन स्मृति का हिस्सा बन चुका है- इसी संसद भवन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के समर्थन में वक्तव्य दिये गये, ‘जय श्री राम’ के नारे लगे, ‘अल्लाह हू अकबर’ भी बोला गया।
दो साल पहले महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर तत्कालीन केन्द्रीय संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने लोकसभा में छाती ठोंक कर कहा था कि वे महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे को नमन करते हैं और इसमें कोई आपत्ति वाली बात नहीं है।
साल 2020 जाते-जाते प्रश्नकाल को समाप्त कर दिया गया और 2021 आते-आते शीतकालीन सत्र भी रद्द कर दिया गया। बीती 5 जनवरी, 2021 को नये संसद भवन के निर्माण का रास्ता कानूनी रूप से साफ़ हो गया जब 2:1 के बहुमत से सुप्रीम कोर्ट ने सेंट्रल विस्टा परियोजना को हरी झंडी दे दी।
इस परियोजना के तहत पेंटागन की तर्ज पर एक संसद बनायी जानी है, प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति के लिए आवास बनाये जाने हैं और समूचे राजपथ के दोनों ओर केंद्रीय सचिवालय सहित सरकारी दफ्तर बनाये जाने हैं। परियोजना की लागत 20,000 करोड़ रुपये के आसपास बैठती है।
नयी संसद की जरूरत
प्रसिद्ध ब्रिटिश वास्तुकार सर एड्विन्स लैंडसियर लूट्यन्स और हर्बर्ट बेकर द्वारा 1921 से 1927 के बीच बनाया गया अपना वृत्ताकार संसद भवन बीते 100 साल से भारतीय लोकतंत्र के संचालन का केंद्र है। वर्तमान सरकार को वह आने वाले लोकतंत्र के लिहाज से नाकाफी लगता है। इसके समर्थन में बुनियादी दलील यह दी गयी है कि इस संसद में जगह कम है। लिहाजा नयी संसद को तकरीबन 2000 सांसदों के बैठने के हिसाब से बनाया जा रहा है।
बीते 10 दिसंबर को नयी संसद की नींव रखे जाने के भव्य कार्यक्रम के बाद केंद्र सरकार ने कहा कि नयी इमारत की उम्र 150 साल होगी और इसमें सांसदों के बैठने की जगह पिछली इमारत से 55 फीसद ज्यादा होगी। इस हिसाब से देखें तो पहली नज़र में सवाल पैदा होता है कि इतने अतिरिक्त नये सांसद आएंगे कहां से?
वर्तमान में लोकसभा में 545 सदस्य हैं और संविधान में व्यवस्था है कि सदन की अधिकतम सदस्य संख्या 552 होगी– 530 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करेंगे, 20 सदस्य संघ शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करेंगे तथा 2 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इण्डियन समुदाय से नामित किया जाएगा। वहीं, राज्य सभा में अधिकाधिक 250 सदस्य होंगे– 238 सदस्य राज्यों तथा संघ शासित क्षेत्रों के प्रतिनिधि होंगे तथा 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किया जाएगा। इस तरह कुल सदस्यों की संख्या 802 होती है।
फिलहाल 1971 की जनगणना के हिसाब से सांसदों की संख्या तय होती है। नियम है कि हर 10 लाख की आबादी पर एक सांसद होना चाहिए। आज की तारीख में ऐसा नियम देश में लागू नहीं दिखता क्योंकि लोकसभा क्षेत्रों के परिसीमन और 1971 के बाद आबादी बढ़ने के चलते क्षेत्रीय स्तर पर बहुत असमानताएं आ गयी हैं। कहीं का सांसद 30 लाख की आबादी का प्रतिनिधित्व करता है तो कहीं और का केवल 15 लाख आबादी का ही नुमाइंदा है। इस असमानता को दुरुस्त किया जाना होगा।
फिलहाल 2026 तक परिसीमन पर रोक लगी हुई है इसलिए सांसदों की संख्या 2026 के बाद ही बढ़ पाएगी? लेकिन कितनी? बिना ज्यादा गणित लगाये मोटे तौर पर देखें तो 2019 के लोकसभा चुनाव में 88 करोड़ वोटर थे। हो सकता है 2024 तक 90 करोड़ के आसपास हो जाएं। इस हिसाब से हर 10 लाख पर एक सांसद देने से कुल 900 लोकसभा सांसद बनते हैं, जो लागू होगा भी तो संविधान के 84वें संशोधन के मुताबिक 2026 के बाद।
अब इसमें राज्यसभा के सांसदों को जोड़ लें। ग्लिट्ज़ की रिपोर्ट कहती है कि 2026 के बाद नये परिसीमन के हिसाब से राज्यसभा के सांसदों की संख्या बढ़ कर 384 हो जाएगी। इस तरह लोकसभा और राज्यसभा के सांसद मिलकर 2026 के बाद 1200 से 1300 के बीच होंगे। यह अधिकतम सीमा मानी जा सकती है, हालांकि बैठने की पूरी क्षमता के हिसाब से सांसद अब भी कम ही पड़ेंगे।
क्या और कोई विधि है जिसके सहारे सांसदों की संख्या बढ़ सकती है? आखिर तीन-चार सौ के करीब अतिरिक्त सांसद और कहां से आएंगे?
तीसरे सदन की वापसी?
सुनने में अटपटा लग सकता है लेकिन नरेंद्र मोदी के ‘न्यू इंडिया’ की नयी संसद में लोकसभा और राज्यसभा के अलावा तीसरा सदन पैदा हो सकता है। इसे पैदा होने की जगह वापसी कहना बेहतर होगा क्योंकि अपनी मूल संसद में तीन ही सदन हुआ करते थे, दो नहीं। उस तीसरे सदन में राजे-रजवाड़े बैठा करते थे। अब इसे इत्तेफ़ाक कहें या कुछ और, लेकिन उस तीसरे सदन का नाम ‘’नरेंद्र मंडल’’ होता था।
मौजूदा संसद का ढांचा देखिए, तो पाएंगे कि बीच में सेंट्रल हॉल के चारों ओर तीन अर्धवृत्ताकार हॉल हैं। आज इनमें से एक लोकसभा, दूसरा राज्यसभा और तीसरा संसद का लाइब्रेरी हॉल है। इसी लाइब्रेरी हॉल में तीसरा सदन चैम्बर्स ऑफ प्रिंसेज़ यानी नरेंद्र मंडल चला करता था। इस सदन की पहली बैठक 8 फरवरी 1921 को हुई थी और इसमें उस वक्त 120 सदस्य थे। सारे के सारे राजे रजवाड़े। इस सन की पैदाइश जॉर्ज पंचम के राज्यादेश पर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 के पारित होने के माध्यम से हुई थी।
भारत की आज़ादी के बाद संविधान को अंगीकृत किये जाने पर इस तीसरे सदन को समाप्त कर दिया गया और उस हॉल में लाइब्रेरी बना दी गयी। इस तीसरे सदन की वापसी की आशंका हवा में नहीं है क्योंकि इसके बारे में आज से बीस साल पहले बाकायदे लिखा जा चुका है।
दि हिन्दू समूह की पत्रिका फ्रंटलाइन के 22 जनवरी, 2000 के अंक में तत्कालीन जनता पार्टी प्रेसिडेंट, पूर्व केन्द्रीय मंत्री और वर्तमान में बीजेपी के सदस्य सुब्रमण्यन स्वामी का लेख पढ़ें। उनके लेख में नयी संसद की अतिरिक्त जगहों को खपाने का नुस्खा तीसरे सदन की वापसी के माध्यम से मिलता है। बेशक, यह तीसरा सदन राजे रजवाड़ों का तो होगा नहीं क्योंकि उनके दिन लद गये, लेकिन जिन तीन श्रेणियों में वे संसद के पुनर्गठन की बात लिखते हैं उनमें एक रक्षा सभा इसके सबसे करीब टिकती है।
यह एक लम्बा लेख था, जिसमें सुब्रमण्यन स्वामी ने लिखा था- ‘’राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के 1998 अक्टूबर के सम्मेलन में प्रसारित मसौदे के अनुसार निम्नलिखित उपायों की योजना है:
वर्तमान द्विसदनीय संसद को तीन-स्तरीय संरचना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा। शीर्ष पर राष्ट्रपति द्वारा नामित साधुओं और सन्यासियों की एक गुरु सभा होगी। इन साधु-संतों को राष्ट्रपति मनोनीत करेंगे।
इसी में आगे लिखा है:
सभी कानूनों और वित्त विधेयकों को सबसे पहले गुरु सभा के सामने पहले प्रस्तुत करना होगा। वहां से अनुसंशा मिलने के बाद ही उन्हें लोकसभा में भेजा जाएगा।
उस वक्त स्वामी आरएसएस के विरोधी हुआ करते थे और अपनी जनता पार्टी चलाते थे। बाद में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय भारतीय जनता पार्टी में कर दिया। इस लेख में सुब्रमण्यन स्वामी बताते हैं कि आरएसएस अगर सत्ता में आयी तो उसकी कार्ययोजना क्या होगी। वे लिखते हैं:
आरएसएस के गेम प्लान का पहला हिस्सा यह है कि अपने सारे विरोधियों को बदनाम करो लेकिन जो आपकी शरण में आ जाए उसको हर क़ीमत पर बचाओ। संदेश यह कि हमारा साथ दो और जो चाहे करो। हमारा विरोध करो और कोर्ट के चक्कर काटने को तैयार रहो। गेम प्लान का दूसरा हिस्सा यह है कि जो भी संस्था उसके आगे बढ़ने में रुकावट डालती हो या उसके दायरे को सीमित करती हो, उस पर ऐसा वार करो कि जनता का उस पर से विश्वास हट जाए। आरएसएस के गेमप्लान का तीसरा हिस्सा यह है कि अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए ख़ाका तैयार रखो… उसने इतिहास की किताबों में क्या बदलाव करना है, यह रेडी करके रखा है। उन्होंने अपने वफ़ादारों के बीच नये संविधान का प्रारूप भी बँटवा दिया है।
यह प्रारूप क्या कहता है? स्वामी लिखते हैं:
गुरु सभा और लोक सभा के बीच में एक रक्षा सभा होगी जो सेवारत सैन्य अधिकारियों और रिटायर फौजियों की होगी जो इस बात पर निर्णय लेगी कि कब इमरजेंसी लगानी है।
स्वामी लिखते हैं कि इस तरह से भारत तालिबान और वेटिकन का एक संकर राज्य बन जाएगा।
ताकि सनद रहे
यहां याद किया जाना चाहिए कि कर्नाटक के बीजेपी नेता आनंत कुमार हेगड़े ने कहा था– ‘’हम संविधान बदलने आये हैं! सुने कभी संविधान की प्रतियां भी जलायी गयी थीं?’’ संविधान से ‘’सेकुलर’’ को हटाने के लिए संघ के प्रचारक विचारक राकेश सिन्हा अदालत जा ही चुके हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेंट्रल विस्टा को दी गयी हरी झंडी पर सबसे तल्ख प्रतिक्रिया तृणमूल कांग्रेस की सांसद मोहुआ मोइत्रा की आयी है। उन्होंने लिखा कि ‘’2-1 के फैसले पर कोई हैरानी नहीं जबकि भगवानदास रोड खुद भगवामय हुआ पड़ा है।‘’ गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की इमारत दिल्ली के भगवान दास रोड पर ही स्थित है।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री और बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा ने ट्वीट कर लिखा- बाहुबली के आगे कौन खड़ा हो सकता है?
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने इस फैसले पर जस्टिस संजीव खन्ना की असहमति की सराहना की।
2:1 की असहमति
जस्टिस ए एम खानविलकर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने 2:1 के बहुमत से मंगलवार, 5 जनवरी 2021 की सुबह 10.30 अपना फैसला सुनाया। इस फैसले की सबसे ख़ास बात यह रही कि जस्टिस खानविलकर और जस्टिस माहेश्वरी ने बहुमत का फैसला दिया और जस्टिस खन्ना ने अलग फैसला सुनाया।
बेंच के तीसरे जज जस्टिस संजीव खन्ना ने उनके फैसले से असहमति जताते हुए कहा:
इस मामले में याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए मुख्य मुद्दों में से एक यह था कि इस प्रकृति की एक परियोजना में आम जनता को शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि वो राष्ट्रीय धरोहर के वास्तविक हितधारक है और परियोजना के हर चरण में उनसे परामर्श किया जाना चाहिए जिसमें मुख्य रूपरेखा तैयार करना, परियोजना, कंसल्टेंसी, टेंडर जारी करना, मास्टर प्लान को संशोधित करना और डिजाइन को अंतिम रूप देना और उसमें बदलाव करना शामिल है।
जस्टिस खन्ना ने विकास अधिनियम की धारा 7 से 11-ए का उल्लेख करते हुए कहा कि मास्टर प्लान और आंचलिक विकास योजनाओं को तैयार करने के लिए एक विस्तृत प्रक्रिया है, जिसमें प्राधिकरण एक मसौदा तैयार करे और आम जनता के निरीक्षण के लिए एक प्रति उपलब्ध कराए तथा किसी भी व्यक्ति से आपत्ति और सुझाव आमंत्रित करे।
जस्टिस संजीव खन्ना ने अपने फैसले में कहा कि जनादेश की उपेक्षा कर परामर्श के तरीके और प्रकृति के अनुसार सहभागितापूर्ण अभ्यास ना करना विचार-विमर्श के अभ्यास के लाभकारी उद्देश्य को पराजित करेगा। फलदायी और रचनात्मक होने के लिए सार्वजनिक भागीदारी एक यांत्रिक अभ्यास या औपचारिकता नहीं है, इसके लिए कम से कम और बुनियादी आवश्यकताओं का पालन करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि प्रस्तावों की प्रकृति को देखते हुए विवेकपूर्ण और पर्याप्त प्रकटीकरण महत्वपूर्ण था जो प्रतिष्ठित और ऐतिहासिक सेंट्रल विस्टा को प्रभावित करेगा। नागरिकों को स्पष्ट रूप से प्रस्ताव को विवेक से जानने का और इसमें भाग लेने और खुद को व्यक्त करने, सुझाव देने और आपत्तियां प्रस्तुत करने के अधिकार था। नीतिगत निर्णयों के विपरीत प्रस्तावित परिवर्तन काफी हद तक अपरिवर्तनीय होंगे। एक बार किए गए भौतिक निर्माण या विध्वंस को अधिकांश नीतियों या यहां तक कि अधिनियमों के मामले में निरस्त, बदलने या संशोधन द्वारा भविष्य के लिए पूर्ववत या सही नहीं किया जा सकता है। उनके कहीं अधिक स्थायी परिणाम हैं। इसलिए उत्तरदाताओं के लिए यह आवश्यक था कि वे सार्वजनिक क्षेत्र में पुनर्विकास योजना, लेआउट आदि को सूचित करें और उन्हें अध्ययन और रिपोर्ट के साथ, आवश्यकता और संबंधित स्पष्टीकरण और व्याख्यात्मक ज्ञापन के साथ प्रस्तुत करें। विशेष महत्व की बात यह है कि परिवर्तनों के द्वारा, सेंट्रल विस्टा में हरित और अन्य क्षेत्रों में आम लोगों की पहुंच को रोक दिया जाएगा/प्रतिबंधित कर दिया जाएगा और दृश्य और अखंडता में प्रभाव डालेगा और प्रतिष्ठित और विरासती भवनों के उपयोग में प्रस्तावित परिवर्तन किया जाएगा।”
जस्टिस खन्ना के फैसले का सारांश यह है कि याचिकाकर्ताओं के सवालों का जवाब दिए बिना और पर्यावरण विशेषज्ञों की राय लिए बिना इस परियोजना को आगे बढ़ाना न्यायोचित नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस ड्रीम प्रोजेक्ट के खिलाफ याचिकाकर्ताओं ने अदालत से कहा था कि प्रोजेक्ट के लिए पर्यावरण मंजूरी गलत तरीके से दी गई, कंसल्टेंट चुनने में भेदभाव किया गया तथा लैंड यूज में बदलाव की मंजूरी गलत तरीके से दी गई। जस्टिस खन्ना ने अपने फैसले में इन बातों का उल्लेख किया है।
जस्टिस खन्ना का फैसला काफी लम्बा है, जिसमें उन्होंने इस प्रोजेक्ट की तमाम कमियों का क्रमानुसार उल्लेख किया है। फैसला नीचे पूरा प़ढ़ा जा सकता है।
justice-sanjeev-khannaभारत और अमेरिका: एक सिक्के के दो पहलू
दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े दोनों लोकतंत्रों में संसदीय व्यवस्था पर हमला हम देख रहे हैं। अमेरिका में शीर्ष नेता भीड़ को उकसा कर संसद पर हमला करवाता है तो भारत में शीर्ष नेता पुरानी संसद को अपर्याप्त बताकर नयी संसद का भूमिपूजन करता है।
ज़रा अमेरिका के घटनाक्रम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया देखिए। वे कहते हैं कि लोकतंत्र में सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण होना चाहिए, गैरकानूनी प्रदर्शनों के माध्यम से नहीं।
अब इस बयान के आलोक में नयी संसद, उस पर खर्च किये जा रहे बीस हजार करोड़ रुपये और उसे 5 जनवरी को मिली शीर्ष अदालत की कानूनी मंजूरी को देखिए।
संवैधानिक लोकतंत्र से छेड़छाड़ और उसमें बदलाव के दोनों तरीकों- भारतीय और अमेरिकी- में क्या कोई फ़र्क है? या दोनों एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू भर हैं?