किसान आंदोलन की तमाम खूबियों और उसके प्रभावों का आकलन कई अन्य पहलुओं पर हो सकता है और होगा भी, लेकिन इस आंदोलन ने मौजूदा सरकार को अपनी मूल नीयत ज़ाहिर करने के लिए ज़रूर मजबूर किया है। माना जाता है कि किसी आंदोलन या जन दबाव की ठोस सफलता और हासिल यही है कि वह सरकार को अपने असल मंसूबे ज़ाहिर करने को बाध्य कर दे। यहीं हमें आंदोलन की समझदारी व पुख्ता दूरदृष्टि का भी पता चलता है और यह समझ में आता है कि क्यों वो इन क़ानूनों की बारीकियों पर बात नहीं कर रहे या सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को लेकर कोई भागीदारी नहीं कर रहे हैं। उनकी चिंता इन क़ानूनों में लिखी इबारत को लेकर नहीं है, बल्कि इनके पीछे छिपी ठोस मंशा पर है जिसे इन्होंने पुख्ता ढंग से समझ लिया है।
हम बात कर रहे हैं नेशनल इन्स्टीट्यूशन फॉर ट्रान्स्फ़ोर्मिंग इंडिया आयोग (नीति आयोग) के मुख्य कार्यपालक अधिकारी और हर सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका में अपनी पैठ बनाये रख पाने में कामयाब श्री अमिताभ कांत की। जब योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग किया गया था, तब आम जनमानस इस नीति को योजना के ही शाब्दिक पर्याय के रूप में देख रहा था। इस नाम में उसे भले ही अन्य ध्वनियां सुनायी नहीं दी थीं, लेकिन अगर अब भी इसके पूरे नाम को देखें तो यह महज़ योजना या प्लानिंग जैसा एकार्थी शब्द नहीं है बल्कि यह एक संस्थान है जो इंडिया को रूपांतरित करने के लिए वजूद में आया था। संस्थानों के नामकरण में प्राय: इस तरह की घनघोर लापरवाही और अहमकपना राष्ट्रीय स्तर पर होती नहीं है कि कोई संस्थान अपने नाम में संस्थान भी हो और उसके पीछे आयोग शब्द का भी इस्तेमाल होता हो। हिंदुस्तान के तमाम संस्थानों के नामकरण में इतनी सतर्कता बरते जाने का आग्रह हमेशा रहा है।
यहां हालांकि मामला बताने से ज़्यादा छिपाने का था। इसके व्यंजनार्थ स्पष्ट थे, कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के रूप में आए ही हैं इंडिया को रूपांतरित करने के लिए। इसलिए हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 2014 के बाद सबसे पहले जो काम प्राथमिकता में लिए गए उनमें योजना आयोग को नीति आयोग से बदलना भी था और यहां नीति का मतलब पॉलिसी या योजना नहीं था बल्कि इसके फुल फॉर्म में हिंदुस्तान को रूपांतरित यानी ट्रान्स्फॉर्म करना था। इस संस्थान को बने 6 साल हो चुके हैं लेकिन अब भी इसके नाम को लेकर जागरूकता के बारे में एक अखिल भारतीय प्रतियोगिता या क्विज़ संचालित की जा सकती है। खैर…
अमिताभ कांत का ज़िक्र इस अफसाने में इसलिए आया क्योंकि उन्होंने किसान आंदोलन के समर्थन में कल हुए देशव्यापी बंद की व्याप्ति से खिन्न होकर अपने मन की बात कह डाली। उन्होंने हमारे प्यारे लोकतंत्र को लगभग कोसते हुए भरपूर झुंझलाहट में कहा कि ‘हिंदुस्तान में विकास और सुधारों को लेकर कोई सख्त कदम नहीं उठाए जा सकते क्योंकि यहां ज़रूरत से ज़्यादा लोकतंत्र है’।
इस एक वक्तव्य से भी यह भी स्पष्ट हो गया कि इन क़ानूनों के असल निर्माता-निर्देशक कौन हैं, हालांकि इनके बारे में सब जानते ही हैं और जैसा कि इन क़ानूनों पर बहस के दौरान संसद में नरेंद्र तोमर से एक सांसद ने मुखातिब होकर कहा भी था– ‘इन क़ानूनों को पढ़कर कोई भी यह कह सकता है कि ये कानून कृषि मंत्री ने न तो बनाए हैं और न ही पढ़े हैं क्योंकि देश की जनता के मतों से जीत कर आया कोई भी प्रतिनिधि ऐसे कानून बना ही नहीं सकता है जो उस जनता का वजूद मिटाने के लिए बने हों’। इस बात पर देश के कृषि मंत्री ने आँखें झुका ली थीं। यह शर्म-ओ-हया का लगभग अंतिम इज़हार था जो उस रोज़ संसद में देखा गया। उसके बाद जैसे नीति आयोग के गठन की शर्तें पूरी कैबिनेट को ठीक से रटा दी गयीं। संभव है कि नीति आयोग और इससे उत्पादित होने वाली नीतियों के नियंताओं यानी सरल शब्दों में कहें तो अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और ऐसी तमाम संस्थाओं के आकाओं ने इन्हें आँखें दिखा दी हों। लिहाजा बची-खुची लज्जा या शर्म भी इस सरकार से जाती रही।
बहरहाल, अमिताभ कांत का सवाल बहुत बड़ा है। जिस हताशा में उन्होंने यह कहा, उसे सुनकर ऐसा लगा जैसे मोदी जी ने दुनिया के नीति-निर्धारकों के साथ जो करार किया था- कि अगले पाँच साल में हिंदुस्तान में ज़रूरत से ज़्यादा लोकतंत्र की जो गंध फली है उसे समेट लिया जाएगा और लोकतंत्र को बदलकर आपके अनुकूल कर दिया जाएगा- इस किसान आंदोलन ने उस करार की प्रगति की कलई खोल दी हो। और आकाओं ने अपने मध्यस्थ (भारत सरकार व उनके बीच) को फोन करके धमकाया हो कि ये क्या देख रहे हैं? आपने तो बढ़-चढ़ कर कहा था कि हुज़ूर! छह साल में लोकतन्त्र को एक पूंजीवादी उपनिवेश में बदल दिया जाएगा, लेकिन अभी भी देश भर में झंडे-बैनर, रैली-रैला होते दिखलायी दे रहे हैं? ऐसे कैसे हमारे बनाये कानून यहां लग पाएंगे? यह है तो खैर शर्मिंदगी का सबब ही।
पाँच साल की प्रगति को देखते हुए ही तो आकाओं ने उन्हें अगला टर्म दिया था और उसमें आकर जन आंदोलनों से निपटने की सूझ-बूझ की सराहना भी की गयी थी। चाहे वो नागरिकता कानून के खिलाफ देशव्यापी आंदोलनों से निपटने के तरीके हों या जम्मू-कश्मीर जैसी धरती पर मौजूद स्वर्ग के तमाम प्राकृतिक संसाधनों को कॉरपोरेट्स को दिये जाने के लिए अनुच्छेद 370 का खात्मा और उसके बाद भी लगभग डेढ़ साल से कश्मीरियों की कैद हो- हर कदम पर सरकार को लोकतंत्रकी ऐसी-तैसी करने पर सराहना ही मिली, लेकिन इस किसान आंदोलन ने सब किये-धरे पर पानी फेर दिया।
ध्यान रखना चाहिए कि अमिताभ कांत जैसे नौकरशाह और योजनाकार किसी और के पे-रोल पर हिंदुस्तान में काम करते हैं। संभव है कल आइटी सेल से उनके लिए कसीदे पढ़े जाने लगें जिनमें लिखा हो कि अमिताभ भारत माता के सच्चे सपूत हैं जो भारत सरकार से तनख्वाह तक नहीं लेते। इस मामले में उनकी बात को सच के बेहद करीब माना जाना चाहिए। ये और इन जैसे तमाम नौकरशाह वाकई भारत सरकार की तनख्वाह पर निर्भर नहीं हैं बल्कि इन्हें किसी और ने इंजेक्ट किया है।
अमिताभ कांत जी का ऐसे तो बहुत योगदान है हिंदुस्तान के रूपान्तरण में, लेकिन जिस काम के लिए उन्हें ऐतिहासिक रूप से याद किया जाना चाहिए वो है हर बड़े प्रोजेक्ट के लिए ‘विशेष उद्देश्य वाहन’ (स्पेशल पर्पज़ वेहिकल) बनाने की कल्पनाशीलता व उसके लिए मुफीद क्राफ्ट तैयार करना। जैसे देश में इंडस्ट्रियल कॉरीडोर का जाल बिछाने के लिए अलग एसपीवी, बुलेट ट्रेन के लिए अलग एसपीवी, मैन्युफैक्चरिंग ज़ोन बनाने लिए कुछ अलग एसपीवी, पेट्रो केमिकल एंड कोस्टल क्षेत्रों से संबंधित अलग एसपीवी, आदि इत्यादि। इतना अच्छा क्राफ्ट बिना खुद के एसपीवी हुए कोई कैसे रच सकता है?
खैर, अमिताभ कांत का बयान अगर आधिकारिक तौर पर भारत सरकार का बयान है, जो निश्चित तौर पर है, तो यह इस किसान आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि उसने भारत सरकार की असल मंशाओं को उजागर करवा लिया है। यह मंशा बहुत स्पष्ट है, कि यह सरकार अपने ही देश के 70 साल की आयु के लोकतंत्र से आजिज़ आ चुकी है और इसे ट्रान्स्फॉर्म करना चाहती है।
अफसोसजनक यह है कि हाल ही में भारत के लोकतंत्र को दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों की तालिका में 10 पायदान नीचे जगह मिल पायी है। ध्यान रखने की बात केवल इतनी है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को दस पायदान नीचे गिराने के लिए अमिताभ कांत जैसे योजनाकारों ने खूब काम किया है और मोदी जी की अगुवाई में बीते पांच साल में यह प्रगति हो सकी है। कोई ये भी पूछ सकता है कि क्या अमिताभ कांत जैसे महान योजनाकार की तरह ही यह सरकार भी किसी के पे-रोल पर है? इस बारे में अपना अपना विवेक लगाएं। स्पष्ट जवाब मिल जाय तो जनपथ पर प्रकाशन के लिए भेजें।