बदलाव के कगार पर बिहार: चुनाव के मुद्दे व संबंधित संदर्भ


बिहार में तीन चरण की चुनावी प्रक्रिया में पहले चरण का मतदान निपटा लिया गया है। आने वाले बिहार की किस्मत कुछ हद तक ईवीएम में बंद हो चुकी है। ऐसे में इस बार के चुनावी समर के संदर्भ में कुछ वैचारिक और वस्तुनिष्ठ सवालों पर विचार करना आवश्यक जान पड़ता है।

कोरोना और कोरोना से उत्पन्न लॉकडाउन के बाद बिहार वह पहला राज्य है जहां चुनाव हो रहा है। बिहार वो राज्य है जिसने इस विभीषिका को अपने सीने पर झेला है। ऐसे में आज के बिहार की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर ध्यान दें तो हमें कुछ चीजें बहुत स्पष्ट रूप से दिख जाती है।

कोरोना महामारी के साथ राज्य तथा केंद्र सरकार की उपेक्षा ने  बिहार में एक बड़ी आबादी की कमर तोड़ दी है। इनमें मुख्य रूप से बिहार से बाहर रोजगार या मज़दूरी करके अपना गुजर-बसर करने वाले लोग शामिल हैं। इनकी संख्या सरकारी आकड़ों के हिसाब से 30 लाख से ऊपर है। ये दुखी हैं, क्रोधित हैं और सरकार द्वारा की गयी उपेक्षा की वजह से अपमानित महसूस कर रहे हैं। इन प्रवासी मज़दूरों के सामने आज अपने प्रदेश में आजीविका का घोर संकट है। वापस आने के बाद स्थानीय निवासियों के साथ आपसी संबंधों में मनमुटाव और नोकझोंक भी बढ़ी है। प्रदेश सरकार ने इन्हें अपनी जगह पर रोजगार मुहैया करवाने का वादा किया था, जो समय के साथ खोखला साबित हुआ है। अतः आज एक बार फिर वो अपना सामान बांध कर उन्हीं शहरों की ओर उन्मुख हैं, जहां से घोर ज़िल्लत और अपमान के साथ वे वापस लौटे थे। इन सब का इनके ज़हन पर गहरा चोट लगा है, जो अभी बिल्कुल हरा है, जिसे चुनावी सरगर्मी लगातार कुरेद रही है।  

वहीं दूसरी तरफ बेरोज़गार युवाओं की फ़ौज है। इस बार के बिहार चुनाव में युवा मतदाता विशेष महत्व रखते हैं। कुल पंजीकृत मतदाताओं में युवा मतदाता की भागीदारी लगभग 50 प्रतिशत है। इन युवाओं में बेरोजगारी, रोजगार के अवसर का सृजन न हो पाना, शिक्षा की बदहाली, प्रतियोगी परीक्षाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार व धांधली मुख्य समस्या है। इधर बड़े पैमाने पर छात्र परीक्षा, प्रश्नपत्रों के लीक होने, परीक्षा निरस्त होने, रिजल्ट न आने जैसे महत्वपूर्ण सवालों को लेकर लगातार आंदोलित तथा आक्रोशित रहे हैं और लगातार सड़कों पर सरकार को चुनौती पेश करते रहे हैं। इसलिए छात्रों, युवाओं का मन मौजूदा सरकार से खट्टा हो रखा है।

पीछे के चुनावों में केंद्र और राज्य की सरकार ने युवाओं से बड़े-बड़े वादे किए थे, जिसकी वजह से युवाओं ने दिल खोल कर इनका समर्थन किया था लेकिन आज वे सारे वादे धरातल पर औंधे मुंह गिर पडे हैं। इस पर तत्कालीन सरकार द्वारा अपने ही वादों को जुमला घोषित कर दिए जाने से युवा छला हुआ महसूस कर रहे हैं और जुमलेबाज़ सरकारों को सबक सि‍खाने को प्रतिबद्ध लग रहे हैं।   

इसके अलावा महिला मतदाता जो पिछले समय में नीतीश जी के साथ बड़े मजबूती से खड़ी दिखती थीं, इस बार विभिन्न कारणों से नाराज़ चल रही हैं। महिलाओं के सामने सुरक्षा की समस्या, रोज़गार के समान अवसर, अवैध शराब बिक्री से मुक्ति, आंगनबाड़ी और आशा दीदी को नियमित करने जैसे मुख्य मुद्दे हैं। इधर अपने इन तमाम मुद्दों को लेकर महिलाएं लगातार सड़कों पर उतरती रहीं हैं, जिसका राज्य सरकार ने बड़ी निर्ममता से पुलिसिया डंडों से दमन किया है। अभी भी राज्य की महिलाएं अपनी उन प्रमुख मांगों को लेकर आंदोलित हैं। आज नीतीशजी के सामने वो लड़कियां/महिलाएं भी एक समस्या बन कर उभरी हैं, जिन्हें उन्होंने कभी साइकिल दी थी और स्कूल से जोड़ा था। किसी भी प्रगतिशील व्यवस्था के लिए ये एक सुखद अनुभव हो सकता था लेकिन थकी और ठहरी हुई व्यवस्था के लिए ऐसी कोई भी प्रगति सिरदर्द बन जाती है। आज वही लड़कियां सरकार से रोजगार मांग रही हैं, जिसको देने के लिए मौजूदा व्यवस्था के पास न तो कोई सोच है और न ही कोई समझ।

इसके अलावा नीतीशजी की एक बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना ‘शराबबंदी’ भी रही है, जो अब उनके गले का फ़ांस बनती नज़र आ रही है। ऐसा बताया गया था कि शराबबंदी का फैसला महिलाओं के विशेष आग्रह पर लिया गया था लेकिन अब महिलाएं इसको लेकर काफी नाराज़ दिख रही हैं। महिलाओं का कहना है कि शराबबंदी सिर्फ कागज पर हुई, वास्तव में शराब की बिक्री गैरकानूनी ढंग से बदस्तूर जारी है जिसका असर कम ऊम्र के बच्चों पर अधिक दिख रहा है। वे बड़े पैमाने पर इस गोरखधंधे में लिप्त हो रहे हैं। अब दुकान की जगह शराब ‘चढ़े हुए दाम’ पर ‘होम डिलीवरी’ के माध्यम से सीधे घरों और चौपालों तक पहुंच रही है। इसको सुचारु रूप से चलाने के लिए एक पूरा ‘गैरक़ानूनी नेटवर्क सक्रिय हो गया है, जिसमें कम उम्र के बच्चे बड़ी संख्‍या में शामिल हैं। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर लोग गैरकानूनी ढंग से इसे घर में भी बनाने लगे हैं। इस वजह से प्रशासन और आम जन के बीच नोक-झोंक और अदालती मुकदमों का व्यवहार चल पड़ा है।

इन सब का सीधा असर महिलाओं पर पड़ा है और इसलिए मौजूदा व्यवस्था के प्रति उनमें असंतोष बढ़ा है। इस संदर्भ में प्रशासन की संलिप्तता को उजागर करती एक रोचक घटना है जो इन दिनों यहां जनमानस में लोकोक्ति के रूप में प्रसारित हो रही है। मारा ये है कि एक छापे की कार्रवाई में पुलिस ने शराब से भरे कुछ ट्रक पकड़े। मामला कोर्ट में पहुंचा, जज के इस संबंध में पूछे जाने पर संबंधित अधिकारी ने बताया कि ज़ब्त की गयी शराब को बोतल सहित चूहे खा-पी गये।

प्रदेश के अस्थायी शिक्षकों में ‘समान काम का समान वेतन’ तथा नियमित करने का मामला भी काफी तूल पकड़े हुए है। अपनी इन मांगो को लेकर अस्थायी शिक्षकवर्ग और सरकार के बीच लगातार संघर्ष की स्थिति बन रही है। इसके साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर अवस्था भी लोगों के असंतोष को बढ़ा रही है। कोरोनाकाल में उचित स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में लोगों को बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा है। 

आज के चुनावी परिदृश्य में एक तरफ जहां सुशासन बाबू अपने ही बनाये ताने-बाने में उलझे, अटके, फंसे पड़े दिख रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ एक 31 साल का नौजवान नये जोश और उमंग से लबरेज पूरे वातावरण में ताजगी और बदलाव का समां बांध रहा है। एक से एक चुनावी रणकौशल के उस्ताद से लेकर तथाकथित चुनावी चाणक्य तक इस नौजवान की हुंकार के सामने बौने नज़र आ रहे हैं। इस नौजवान ने भारतीय राजनीति में बहुत अरसे के बाद विपक्ष का मुद्दा सेट किया है। धर्म, जाति, राष्ट्रवाद, पंथवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों से इतर रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुलभूत मुद्दों को उसने मैदान में ला कर खड़ा कर दिया है। उसके कहे शब्द- ‘अगली सरकार पढ़ाई, कमाई, दवाई, सिंचाई, सुनवाई और कार्रवाई की सरकार होगी’, यहां के मतदाताओं को खूब जंच रही है। खेल अब काफी रोचक हो चुका है। आगामी 10 को आने वाले परिणाम पर सबकी नज़रें उत्सुकता के साथ टिकी हुई हैं। 


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