दक्षिणावर्त: सेकुलर खोल, बाइनरी बोल और अश्लीलताओं के बीच


फ्रांस में एक अध्यापक का सिर एक आतंकी मुस्लिम द्वारा कलम किए जाने की घटना के एकाध दिन बाद एक विदेशी पत्रकार के साथ मेरी मुलाकात हुई थी। चूंकि वह बिहार चुनाव पर कुछ अध्ययन कर रहे थे और यूरोपीय लोग डिटेलिंग पर बहुत ध्यान देते हैं, सो मेरे साथ उन्होंने एक छोटे कस्बे में जाना पसंद किया। उस कस्बे में कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं से करीबन दो-ढाई घंटों की बात के बाद जब हम लोग बोरिया-बिस्तर लपेट रहे थे, तो एक कार्यकर्ता ने मुझसे कहा, ‘इन साहब को कहिएगा कि भारत और भारत के लोग पूरी तरह फ्रांस के साथ हैं, उसे बस इस्लामिक आतंक का सही इलाज करने की जरूरत है।’ विदेशी पत्रकार की जिज्ञासा पर मैंने अंग्रेजी में कहा, ‘He is just wishing France good luck against Islamic terror and hopes that Europe learns its lesson.’ विदेशी पत्रकार बंधु ने कहा, ‘We have learnt our lesson very well.’

वह कुछ हद तक सही भी थे। टीचर के कत्ल के बाद पूरे फ्रांस में, बड़ी-बड़ी इमारतों पर, शार्ली हेब्दो में छपे मुहम्मद के उसी कार्टून को लगाया जा रहा है, जो इस पूरे फसाद की जड़ में है। स्वीडन से लेकर जर्मनी तक, इस्लाम की कट्टरता और खौफ के खिलाफ एक माहौल बन रहा है और धीरे-धीरे पूरी दुनिया में एक तरह की गोलबंदी हो रही है।

वह विदेशी मित्र जब एक घंटे के बाद मेरा इंटरव्यू करने को बैठे, तो ठीक उसी बाइनरी में बोलने लगे, जिसे लेकर आज तक पश्चिम अपनी तथाकथित आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता भारतीय समाज पर थोपता रहा है। उन्होंने तनिष्क के ऐड के माध्यम से मुझसे ‘हिंदू दक्षिणपंथ’, ‘हिंदू आतंकवाद’ और न जाने क्या-क्या पूछना चाहा। प्रश्न बहुत ही डायरेक्ट और तीखे थे, पर उनको मैं आखिर तक यही समझाता रहा कि बाइनरी से सवालों को देखना और पूछना ही गलत है।

पिछले छह वर्षों में सोशल मीडिया के उभार, केंद्र में एक तथाकथित दक्षिणपंथी सरकार और आमतौर पर हिंदुओं के अपनी पहचान के प्रति जाग्रत होने का यह सहज परिणाम देखने को मिलता है कि अब प्रचार हो या विचार, बिना टकराहट के नहीं जा पाता। वैसे, अब भी ये बहुत सहज है, जिसे आप मानें या न मानें। मसलन, हालिया रिलीज़ वेब-सीरीज़ ‘मिर्जापुर-2’ का ये डायलॉग देखिए- ‘ये जाति प्रथा क्यों बनायी गयी? ताकि हम ब्राह्मणों को फायदा हो सके।’

अब, जिस महामूर्ख ने भी यह डायलॉग लिखा है, उसे न तो ऐतिहासिक कालक्रम के बारे में पता है, न ही वह उसकी ओर देखना चाहता है। या फिर, हो सकता है कि वह अपनी धूर्तता में इस पर सोचना भी नहीं चाहता है कि वर्ण-व्यवस्था से होते-होते आज की जाति-व्यवस्था तक की यह यात्रा है और कहीं चार ब्राह्मणों ने बैठकर यह तय नहीं किया है कि चलिए, फलां दिन से जाति की यह व्यवस्था रहेगी। हजारों वर्षों की यात्रा और टकरावों के बाद 2020 में किसी प्रथा या व्यवस्था को देखकर इस तरह का सामान्यीकृत डायलॉग प्रपंच नहीं तो और क्या है?

अस्तु, बात कहीं और निकल गयी। ऊपर की घटना के बरक्स एक और बातचीत को रखिए। वह बातचीत मेरी अपने एक ऐसे दोस्त से हो रही थी, जो मुस्लिम घर में जन्मा तो है, लेकिन सच्चे अर्थों में सेकुलर है, यानी बिल्कुल वेस्टर्न पैमाइश पर। उसे न तो हिंदू रीति-रिवाजों में कोई रुचि है, न ही मुस्लिम। वह अपने टाइप का अकेला जीव है। तनिष्क के ऐड पर हुई प्रतिक्रियाओं के बाद वह भी काफी परेशान था, लेकिन उसकी वजह कुछ और थी, ‘यार, इस सरकार को इसीलिए तो लोग लाए थे कि कांग्रेसी फर्जीवाड़े से मुक्ति मिले, लेकिन अभी तक ऐड, हिंदू-मुस्लिम में ही यह सरकार फंसी हुई है। आखिर, सूअरबाड़े की तरह बढ़ती जनसंख्या, बेरोजगारी, कोरोना, जीवन-स्तर आदि जमीनी मुद्दों पर बात कब होगी औऱ वे मसाइल कब हल होंगे।’

बाइनरी में देखना जब तक यह समाज बंद नहीं करेगा, चीजें हल नहीं होंगी। आज का ताज़ा उदाहरण लीजिए। मुल्क की वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण एक प्रेस कांफ्रेंस करती हैं जहां वह पंजाब में एक दुधमुंही बच्ची के रेप और उसे जलाकर मार देने की घटना का उल्लेख करते हुए यह बताती हैं कि वह बच्ची बिहार की है और तेजस्वी को अपने दोस्त राहुल गांधी से इस पर सवाल पूछना चाहिए। इस प्रेस-कांफ्रेंस को हाल-फिलहाल की अश्लीलतम घटना में रखना चाहिए, जैसे राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा के हाथरस-पिकनिक को रखना चाहिए। दोनों ही दृश्य अश्लील हैं, दोनों ही बातें अश्लील हैं।

प्रियंका और राहुल ने जिस तरह हाथरस जाते हुए या वहां पर नाटक किया, उसी तरह देश की वित्तमंत्री को इस मसले पर प्रेस को संबोधित करना सिरे से गलत है। खासकर तब, जब पिछले सात महीने से चल रहे महामारी के दौर ने अर्थव्यवस्था को लेकर कई तरह के संशय और सवाल खड़े कर दिए हैं।

हो यह रहा है कि हरेक घटना के पक्ष या विपक्ष में बैटिंग तो हो रही है, लेकिन किनारे बैठकर थोड़ी धूल बैठ जाने का इंतजार नहीं किया जा रहा है। राजनेताओं का तो समझ में आता है, लेकिन हम जैसे जो आम लोग हैं, उन्हें पंजाब पर राहुल गांधी को और हाथरस पर योगी आदित्यनाथ को घेरने में क्यों संकोच हो रहा है, यह समझ के बाहर है।

रही-सही कसर तथाकथित लिबरल-लेफ्ट खेमे ने पूरी कर दी है। उनके लिए फ्रांस का कत्ल अगर घनघोर चुप्पी का कारण है, तो पंजाब की घटना या राजस्थान के रेप भी कुछ नहीं बोलने की वजह है क्योंकि वहां तथाकथित तौर पर एक सेकुलर सरकार है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार एक चैनल के सभी कर्मचारियों पर एफआइआर कर देती है, तो वह फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन को ‘गैग’ करना नहीं होता, एक और चैनल को कोर्ट बाकायदा एक दिन नियत कर माफी मांगने को कहती है, तो वह पत्रकारिता का काला दिन नहीं होता, लेकिन किसी भाजपा शासित राज्य में किसी राह चलते उठाईगीर पर भी यदि कार्रवाई हो और वह खुद को पत्रकार बताने का दावा करे, तो प्लकार्ड से लेकर मोमबत्ती तक निकलते देर नहीं लगती।

भारत के जो हालात हैं, वह देखकर सच तो यही लगता है कि चर्चिल ने अपने अहंकार में बिल्कुल ही सही कहा था, हम लोग वाकई स्वतंत्रता के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि जो देश तथ्य और भ्रम को एकमेक कर चुका है, वह भला लोकतंत्र और रहनुमाई के मायने क्या समझेगा! 



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