बाबरी मस्जिद विध्वंस के अपराधियों पर फैसला आ चुका है। सारे अपराधी बरी हो चुके हैं और न्याय के दरबार के आगे झुके हुए हैं। उन्हें इस बात का कोई मलाल नहीं है कि वे किस दबाव में उस इतिहास से खारिज कर दिये गए हैं जिसे उन्होंने लोकतन्त्र की गर्दन मरोड़ते हुए बनाया था। उनका नैतिक बल मर गया है। वे आत्मविगलित हैं।
फैसले के एक दिन पहले वे राम की राह में कुर्बान होने की बात कर रहे थे। उनमें से कई तो जेल जाना भी चाहते थे लेकिन जब सीबीआइ की अदालत ने उन्हें सबूतों के अभाव में बेदाग छोड़ दिया तो वे बाग-बाग हो उठे। एक बार भी उनके मुंह से बकार नहीं फूटी कि फैसला गलत हुआ है; कि हमने तो धर्म के लिए जोखिम लिया लेकिन यहां तो उस जोखिम और साहस की बेइज्जती हुई जा रही है। एक बार भी किसी ने एक शब्द नहीं कहा कि फैसला गलत हुआ था क्योंकि हमने धर्म के लिए जो राह चुनी थी वह सुनियोजित थी और भारतीय लोकतन्त्र में उसके लिए जो सजा मुकर्रर है उससे वे बरी नहीं होना चाहते। एक बार भी किसी को यह समझ में नहीं आया कि जिस धर्म की राह पर वे चलते-चलते अपना जीवन बिता चुके थे, किसी ने उन्हें धक्का देकर उस रास्ते से दूर फेंक दिया है।
यही हिन्दुत्व का मूल चरित्र है। अपराध करना और भाग खड़ा होना। अगर खतरा महसूस हो तो लीपापोती करना। जितनी भी मैनिपुलेटिंग हो सकती है उतना करना। हिन्दुत्व के इस चरित्र को और हम कहां देखते हैं? जाहिर है इसे एक-एक व्यवहार में देखते हैं।
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर से लेकर हजारों चित्र-विचित्र देवी-देवताओं भगवानों के सामने आत्मविगलित पूंछ हिलाऊ प्रार्थनाओं-आरतियों तक विस्तृत है, लेकिन इसका सबसे भयानक रूप मिलता है औरतों और श्रमजीवियों के प्रति व्यवहार में जहां अग्नि-परीक्षाओं और उत्पीड़न का कोई अंत नहीं है। हिन्दुत्व किस कोख से पैदा हुआ यह सवाल आज पूछा जाना चाहिए। हिन्दुत्व की वास्तविक अवधारणा क्या है इस पर चिंतन करने की सख्त जरूरत है। हिन्दुत्व के सिद्धान्त क्या हैं इसकी छानबीन करनी चाहिए। हिन्दुत्व का उन्नायक कौन था इसकी तरफ लोगों का ध्यान शिद्दत से जाना चाहिए। अगर ये सवाल नहीं उठेंगे तो जैसे ब्रह्मा ने मुखयोनि से ब्राह्मणों को जन्म दिया और छातियोनि से क्षत्रिय पैदा कर दिए वैसे ही फर्जी किस्से इसके आस-पास घूमते रहेंगे। कबीर सवाल पूछते रहेंगे कि बभना तू किस मार्ग से आया और बिना जवाब के सदियां बीतती चली जाएंगी। बिना सिद्धान्त के पनपते धर्म को आकाश-भंवर की तरह वास्तविक जीवन के पेड़ों पर लटकते हुए उसका जीवन पूरी तरह सोख लेने वालों का राज चलता रहेगा।
आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि हिन्दुत्व की कोई सैद्धांतिकी होती और यदि उसकी कोई किताब होती और उसका कोई पैगंबर होता तो जो बत्तीस अपराधी आज बाइज्जत बरी होने पर खुश हो रहे हैं वे तब भी इतने ही खुश होते? क्या उनको धर्म पर बलिदान होने की कोई गौरवानुभूति न होती? क्या उनको अपनी ही हिंस्र समझदारी से एक इतिहास से बहिष्कृत हो जाने से कोई दुख न होता? लेकिन दिख तो यही रहा है कि सबके सब बहुत खुश हैं और आगे भी कुछ करने के लिए बुदबुदा रहे हैं।
लालकृष्ण आडवाणी जैसा व्यक्ति दयनीयता की मूर्ति बना हाथ जोड़े न्याय व्यवस्था में अपनी आस्था जता रहा है। साध्वी ऋतंभरा की दमदार आवाज बैठी मालूम देती है। विनय कटियार बुदबुदा रहे हैं। उमा भारती को सांप सूंघा मालूम देता है। एक बार भी दहाड़ नहीं गूंजी। मुरली मनोहर जोशी तो फैसले से ऐसे खुश थे जैसे कालेपानी की सज़ा से माफी मिली हो। ‘वीर’ सावरकर के अनेक चेहरे दिख रहे थे। कल्याण सिंह हाँफते हुए कहते रहे कि राम राह में उतनी कुर्बानी नहीं दे सका जितनी जरूरी थी, लेकिन सीबीआइ कोर्ट से बरी होने पर उन्होंने कोई गम-ओ-गुस्सा नहीं दिखलाया। अगर वे देते तो और कैसी कुर्बानी होती? क्या वे एक बार भी कह सकते हैं कि सीबीआइ सरकारी तोता है। वह सरकार के दबाव में फैसला देता है। क्या उनको इस बात का मलाल है कि उनको रामजन्म भूमि आंदोलन के इतिहास से पूरी तरह खारिज कर दिया गया है? कोई कसक कहीं दिख नहीं रही है। सबके सब खुश हैं। अब ये लोग किस मुंह से कह सकते हैं कि ये लोग हिन्दुत्व के बहादुर हैं? अब तो सारी कहानी ही पलट गयी है।
सिख गुरु गोबिन्द सिंह कहते हैं कि ‘सूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत / पुरजा पुरजा कट मरे तबौ न छाड़े खेत’। क्या यह महज दोहा है? क्या यह कोरी कविता है? इतिहास बताता है कि इससे अधिक जलता हुआ पद इतिहास में दूसरा नहीं मिलता। दीन का मतलब निरा धर्म नहीं होता। शोषण, उत्पीड़न, अन्याय और षडयंत्रों के खिलाफ उठे हुए सिर। और गुरु गोबिन्द सिंह को उठे हुए सिरों की विरासत मिली थी। सारी दुनिया जानती है कि सोलहवीं शताब्दी में दक्षिण एशिया में हुए सारे संघर्षों का सबसे उज्ज्वल पक्ष सिखों का है। वे मुगलिया सल्तनत के खिलाफ सबसे सक्रिय रूप से लड़े और अपना बलिदान किया। इसलिए जब आगे चलकर गुरु गोबिन्द सिंह ने सिखों का सैनिकीकरण किया तब यह बलिदानी भावना उनके रोम-रोम में थी। जिस समय उन्होंने पंच प्यारों को पहली बार दीक्षा दी वह कितना रोमांचकारी दिन रहा होगा। वे मंच पर आए और उपस्थित लोगों से पूछा कि ‘कौन है जो अपना सिर कटाने के लिए तैयार है? भीड़ में सन्नाटा छा गया लेकिन दयाराम नामक युवा आगे बढ़कर अपना सिर दे दिया।
यह एक लंबा किस्सा है लेकिन इन किस्सों से अलग जो वास्तविकता है वह इंसानियत और सच्चाई की बहुत मजबूत ज़मीन पर टिकी हुई है। बाबा बंदा सिंह बहादुर, गुरु तेग बहादुर, बाबा दीप सिंह और स्वयं गोबिन्द सिंह और उनके सभी बच्चे दीन के हेत बलिदान हुए और कभी खेत नहीं छोड़ा। बलिदान की यह परंपरा गोबिन्द सिंह की विरासत और वसीयत दोनों थी। जो विरासत उनको मिली उसे उन्होंने बहुत आगे बढ़ाया और जो वसीयत उन्होंने की उसे भी उनके लोग बहुत आगे ले आए।
गुरु तेग बहादुर एक कविता में कहते हैं– बांहि जिन्हाँ दी पकड़िए, सिर दीजिये बांहि ण छोड़िए / गुरु तेग बहादुर बोलिया, धरती पै धर्म न छोड़िए।
आगे चलकर उनके पुत्र गोबिन्द सिंह लिखते हैं– ‘जे तोहि प्रेम खेलण का चाव, सिर धर तली गली मोरी आव / जे आईटी मारग पैर धरीजै, सिर दीजै कांण न कीजै।‘’
एक सिक्ख स्रोत के मुताबिक, “धरम हेत साका जिनि कीआ / सीस दीआ पर सिरड न दीआ।”
दशम ग्रंथ में यह पद आया है- तिलक जंञू राखा प्रभ ताका / कीनो बडो कलू महि साका॥
साधन हेति इती जिनि करी / सीसु दीया परु सी न उचरी॥
धरम हेत साका जिनि कीआ / सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥‘’
अब आप इन कायरों से पूछ सकते हों तो पूछिए कि ये किनकी बांह धरे हुए हैं जिनके लिए सिर देने की इनकी औकात है? अगर इन्होंने हिन्दू धर्म की विश्वविजय के लिए बाबरी मस्जिद तोड़ने का षड्यंत्र किया तो क्यों नहीं साहस के साथ उसे स्वीकार किया और जेल गए? क्या वाकई इनका कोई धर्म है जिसके लिए ये काम कर रहे हैं? और अगर कर ही रहे हैं तो फिर स्वीकार क्यों नहीं रहे हैं? कानून के पर्दे में मुंह क्यों छिपा रहे हैं?
इसकी क्रोनोलोजी को समझने की जरूरत है। इसके निहितार्थ और वास्तविक उद्देश्य को जानना जरूरी है। और धार्मिक बहादुरी के पीछे की असलियत को भी जानना जरूरी है। ऊपर सिख इतिहास में धर्म , बहादुरी और बलिदान की जिस भावना का उल्लेख किया गया है क्या उसका लेशमात्र भी हिन्दू धार्मिक इतिहास में दिखता है? एकदम नहीं। हिंदुओं के बीच से जो भी महत्वपूर्ण और बलिदानी व्यक्तित्व हुए हैं वे हिन्दुत्व के नाम पर नहीं हुए, न ही उन्होंने मंदिर-मस्जिद जैसे संकीर्ण मुद्दों की हवाबाजी को उन्माद में बदला। उनके पास ठोस वैचारिक ज़मीन थी। जहां उन्माद होता है वहीं झूठ की फसल लहलहाती है। जहां झूठ की फसल लहलहाती है वहां बहादुरी के खोल में कायरता राज करती है।
मामला अत्यंत संगीन है। वही जमाना था जब सिक्खों के महान नेता तेग बहादुर ने दिल्ली में अपना शीश कटवा लिया और कहते रहे कि धर्म की राह में शक मत करो। सिर कटा दो, लेकिन सम्मान मत दो। और ऐसे सिर दो कि मुंह से ‘सी’ की भी आवाज न निकले। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने मुगल सल्तनत को यह बता दिया कि तुम अपराजेय नहीं हो। उसी जमाने में हम खोजते हैं कि हिन्दू क्या कर रहे थे तो पाते हैं कि अपर कास्ट हिन्दू मुगलिया सल्तनत से समझौते कर रहा था। संधियों में उनसे रोटी-बेटी का संबंध बना रहा था और लोअर कास्ट हिन्दू उसकी जमींदारों और कारिंदों की मार खाकर उसके लिए खट रहा था। उसकी ऐयाशियों के लिए दौलत की अट्टालिका खड़ा रहा था। पंजाब और दिल्ली से लगा हुआ राजस्थान और शेष मैदानी इलाकों में हिन्दू क्या कर रहा था। अगर भारतीय किसान आंदोलनों की कहानियों के विस्तृत पाठ किए जाएं तब यही पता चलता है कि अपर कास्ट हिन्दू लोअर कास्ट हिन्दू का बेरहमी से खून चूस रहा था और अपने लिए अधिक ताकत हासिल करने के क्रम में किसी न किसी रूप में मुगलिया सल्तनत के सामने घुटनों के बल बैठा था। ऐसे में जब अयोध्या में मीर बाँकी ने बाबरी मसजिद बनवायी होगी तब अपर कास्ट हिन्दू ने क्या किया होगा? ठीक यहीं यह सवाल उठना शुरू हो जाता है कि हिंदुओं का ‘दीन’ क्या है? क्या वे अपने दीन के हेत लड़े होंगे? उनकी लड़ाई किससे हुई होगी और वे सब लड़ाइयां कहां दर्ज होंगी?
यह एक बहुत बड़ा मामला है कि आज जबकि भारतीय स्वतन्त्रता के आठ दशक होने को आए और जब हमारे देश की अपनी संसद और अपना संविधान है और लोकतन्त्र की एक परंपरा विकसित हो रही है तब भी हिन्दुत्व का जो उन्माद फैला है उसकी मूल्य व्यवस्था क्या है? उसका दीन ईमान क्या है? और बहुत खोजने पर भी पता चलता है इसका कोई धार्मिक या दीनी आधार नहीं है। यह महज सांप्रदायिकता का एक सामाजिक संपुंज है जिसमें सबके हितों का प्रतिशत बराबर नहीं है, बल्कि कुछ लोगों के हित तो कुछ नहीं है, बस वे उन्माद के वशीभूत होकर इसमें शामिल हो गए हैं। 1992 के बहुत से तथाकथित कारसेवक अब अपने घाव चाट रहे हैं और उन्हें कोई भी सम्मान नहीं दे रहा है। काइयों ने अपने अपराधों की सजाएं काटीं और पश्चात्ताप में डूब गए। इसलिए बार-बार यह सोचना चाहिए कि हिन्दुत्व में बलिदान की भावना क्यों नहीं है। इसके पास झूठों और उन्मादियों की तो बहुत बड़ी कतार है लेकिन ऐसे लोग नहीं हैं जिन्होंने दीन के हेत पुरजा-पुरजा कटना स्वीकार किया हो। इसीलिए हिन्दुत्व एकल बहादुरी का नहीं, मॉब लिंचिंग का विचार पोसता है क्योंकि मॉब लिंचिंग में अपराध साबित होने की संभावना कम होती है।
इस प्रकार भूत और वर्तमान में वैचारिक आवाजाही के एक सिलसिले में इतना समझ में आता है कि मीर बाँकी ने जब बाबरी मस्जिद बनवायी होगी तब हिन्दू सूरमे कुछ कर नहीं पाए होंगे क्योंकि एक तो बाबर को उन्हीं लोगों ने बुलाया था और जब बाबर यहां अपनी सल्तनत बनाने में कामयाब हो गया तब क्या खाकर बोलते। लिहाजा यह साफ हुआ जाता है कि हिन्दू कुछ नहीं कर सके होंगे। उन्हें शायद यह परवाह भी नहीं रही होगी। मेरी बला से। अगर परवाह होती तो कहीं न कहीं वे इसके विरुद्ध लड़ते। न लड़ते तो चीखते-चिल्लाते ही, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। कहा जाता है कि सिखों ने हिंदुओं और कश्मीरी पंडितों की रक्षा की। जरूर की ही होगी क्योंकि वे दीन के लिए पुरजा-पुरजा कटना जानते थे। उनकी रगों में ही नहीं आँखों से भी खून टपकता था। इसके बरक्स अपर कास्ट हिन्दू ऐश में डूबा और कायरता से भरा होगा। क्या हिन्दी साहित्य का वीरगाथा काल अनायास ही रहा होगा? झूठे वीर जिन्होंने दीन की कोई लड़ाई नहीं लड़ी? उनकी झूठी गाथाएँ गाने वाले चारण क्यों राज्याश्रय और बड़ी बड़ी रियासतें पाते थे? इसे समझा जाना चाहिए। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि इतिहास के सबसे कठिन दौर में भी अपर कास्ट हिंदुओं ने दीन के लिए कोई बलिदान नहीं किया। बीसवीं सदी के उनके प्रतिक्रियावादी वंशजों से क्या यह उम्मीद की जा सकती है?
इसलिए बाबरी मस्जिद गिराने वाले और राम राह में बहुत कुछ कुर्बान करने वालों ने चुपके से न्याय का गीत गाना शुरू कर दिया। आप माने या न मानें लेकिन उनकी कायरता हिन्दुत्व की स्वाभाविक विरासत है। सुपारी गिर जाए तो लोग झुककर उठा लेते हैं। कलम गिर जाए तो मन को चोट लगती है क्योंकि आपसे उसका कोई रिश्ता होता है। हवा के गिरने का आभास किसे होगा और कौन उठा सकता है?
इस कहानी को थोड़ा और आगे ले चलिए। पिछले महीने मोदी जी ने अपने को राम जन्मभूमि का नायक साबित कर दिया था। इस महीने उन्होंने उस इतिहास को ही साफ करवा दिया जिससे लगता कि वे रामजन्म भूमि में बाहरी व्यक्ति हैं। जड़-मूल से साफ। दुनिया अब कभी याद नहीं करेगी कि आडवाणी, जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह या विनय कटियार कौन थे। अब इतिहास में यह दर्ज होगा कि मोदी थे तो मुमकिन था कि मंदिर बन गया। इसमें क्या बुरा है। बस बुरा यह है कि मीर बाँकी के पास जब निर्द्वंद्व सत्ता थी तो उसने मस्जिद बनवा दिया। भाजपा के पास जब उत्तर प्रदेश की सत्ता थी तब उसके नेताओं ने मस्जिद ढहा दिया। और जब संघ भाजपा देश की सत्ता पर काबिज थी तब मंदिर बनवा दिया। तीनों ही घटनाओं का आधार सत्ता ही थी। मीर बाँकी तो फिर भी लोकतन्त्र से बाहर था लेकिन लोकतान्त्रिक देश में सत्ता की जवाबदेही तो ज्यादा संवेदनशील थी। तो फिर इनमें सबसे ज्यादा बहादुर कौन था? और सबसे ज्यादा दोषी कौन है?