गाँधी स्मृति: कितनी दूर, कितनी पास?


दर्द ओ ग़म-ए-हयात का दरमां चला गया
वो खिज्र-ए-असर-ओ-ईसा-ए-दौरां चला गया
हिन्दू चला गया ना मुसलमां चला गया
इन्सां की जुस्तजू में इक इन्सां चला गया

मज़ाज (गांधीजी की हत्या पर लिखी नज़्म) 

                                –

30 जनवरी 1948। शाम पांच बजकर 15 मिनट का वक्त हो रहा था।

गांधीजी बेहद तेजी से बिड़ला हाउस के प्रार्थना सभागार की ओर जा रहे थे। उन्हें थोड़ी देरी हुई थी। उनके स्टाफ के एक सदस्य गुरूबचन सिंह ने अपनी घड़ी निकालते हुए कहा कि ”बापू आज आप को थोड़ी देरी हो रही है।“ गांधीजी ने हंसते हुए जवाब दिया था कि “जो देरी करते है उन्हें उसकी सज़ा अवश्य मिलती है।’’

किसको यह गुमान था कि चन्द कदम दूर मौत उनके लिए मुन्तज़िर खड़ी है।

दो मिनट बाद ही अपनी बेरेटा पिस्तौल से नाथूराम गोडसे ने उन पर गोलियां दागीं और गांधी जी ने अन्तिम सांस ली।

गांधी हत्या को याद करते हुए प्रस्तुत आलेख में कुलदीप नैयर का संस्मरण उद्धृत किया गया है, जो उन दिनों ‘अंजाम’ नामक अखबार में काम कर रहे थे:

जब मैं पहुंचा तो वहां कोई सिक्योरिटी नहीं थी। बिड़ला हाउस का गेट हमेशा की तरह खुला था। उस समय मैंने जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को देखा। मौलाना आज़ाद कुर्सी पर बैठे हुए थे ग़मगीन। माउंटबेटन मेरे सामने ही आए। उन्होंने आते ही गांधी के पार्थिव शरीर को सैल्यूट किया। माउंटबेटन को देखते ही एक व्यक्ति चिल्लाया- गांधी को एक मुसलमान ने मारा है। माउंटबेटन ने गुस्से में जवाब दिया – यू फूल, डोन्ट यू नो। इट वॉज़ ए हिंदू! मैं पीछे चला गया और मैंने महसूस किया कि इतिहास यहीं पर फूट रहा है। मैंने ये भी महसूस किया कि आज हमारे सिर पर हाथ रखने वाला कोई नहीं है।


बापू हमारे गमों का प्रतिनिधित्व करते थे, हमारी खुशियों का और हमारी आकांक्षाओं का भी। हमें ये जरूर लगा कि हमारे ग़म ने हमें इकट्ठा कर दिया है। इतने में मैंने देखा कि नेहरू छलांग लगाकर दीवार पर चढ़ गए और उन्होंने घोषणा की कि गांधी अब इस दुनिया में नहीं है।


गांधी हत्या का तत्काल यह असर हुआ कि दंगे रुक गए। अल्पसंख्यकों पर जारी हमलों का सिलसिला रुक गया था। हिन्दोस्तां में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी।

कुलदीप नैयर, ‘अंजाम’

आप गए हैं ‘गांधी स्मृति’?

गांधी का इन्तकाल हुए बहत्तर साल बीत चुके हैं। 

इस पृष्ठभूमि में एक अदद सवाल पूछना समीचीन हो सकता है कि गांधी स्मृति – जो दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग पर स्थित है- जिसे पहले बिड़ला हाउस के नाम से जाना जाता था जहां गांधी ने अपनी जिन्दगी के आखिरी 144 दिन गुजारे और उसी जगह पर 30 जनवरी की शाम हिंदुत्ववादी आतंकी गोडसे ने उनकी हत्या की थी- कितने लोगों ने देखा है?

मेरे मित्र एवं प्रसिद्ध बुद्धिजीवी अपूर्वानन्द इस प्रश्न को अपनी कई सभाओं में उठा चुके हैं। उनका यह भी कहना है कि दिल्ली के तमाम स्कूलों में उन्होंने यह जानने की कोशिश की और उन्होंने यही पाया कि लगभग 99 फीसदी छात्रों ने इस स्थान के बारे में ठीक से सुना नहीं है, वहां जाने की बात तो दूर रही।

The Gandhi Smriti, then known as Birla House, where Mahatma Gandhi spent the last 144 days of his life before being assassinated on 30 January, 1948./ File photo (Courtesy: The Hindu)

आखिर ऐसी क्या वजह है कि दिल्ली के तमाम स्कूल जब अपने विद्यार्थियों को दिल्ली दर्शन के लिए ले जाते हैं, तो उस जगह पर ले जाना गंवारा नहीं करते जो गांधी के अंतिम दिनों की शरणगाह थी? जहां रोज शाम वह प्रार्थनासभाओं का आयोजन करते थे और जहां उन्होंने अपने जीवन की आखिरी लड़ाई लड़ी थी- आमरण अनशन के रूप में, ताकि दिल्ली में अमन चैन कायम हो जाए। कभी एक दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे लोगों को एक दूसरे के खून का प्यासा होते देख उन्होंने अन्त तक कोशिश की और कम से कम यह तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी कुर्बानी ने इसे एक हद तक पूरा भी किया था।

ऐसी यात्रा कम से कम छात्रों के लिए अपने ही इतिहास के उन तमाम पन्नों को खोल सकती है और वह जान सकते है कि आस्था के नाम पर लोग जब एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं तो क्या हो सकता है। छात्र अपने इतिहास के बारे में जान सकते है कि धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण किस तरह खतरनाक हो सकता है। वे जान सकते हैं कि गोहत्या पर सरकारी कानून बनाने को लेकर उनके विचार क्या थे और देशद्रोह की बात को वह किस नज़रिये से देखते थे?

यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि सितम्बर 1947 को महात्मा गांधी कोलकाता से दिल्ली पहुंचे थे। जहां उन्होंने अपने इसी किस्म के संघर्ष के बलबूते विभिन्न आस्थाओं की दुहाई देने वाले दंगाइयों को झुकने के लिए मजबूर किया था। 4 सितम्बर की शाम कोलकाता के हिन्दू-मुस्लिम-सिख नेताओं को सम्बोधित करते हुए- जो 72 घंटे से चल रही गांधी की भूख हड़ताल से आपसी समझौते तक पहुंचे थे और उन्होंने कोलकाता को दंगों से दूर रखने का आश्वासन गांधी को दिया था- गांधी ने साफ कहा था:

”कोलकाता के पास आज भारत में अमन चैन कायम होने की चाबी है। अगर यहां छोटी सी घटना होती है तो बाकी जगह पर उसकी प्रतिक्रिया होगी। अगर बाकी मुल्क में आग भी लग जाए तो यह आप की जिम्मेदारी बनती है कि कोलकाता को आग से बचाएं।’’

रेखांकित करने वाली बात यह है कि कोलकाता का यह ‘चमत्कार’ कायम रहा। भले ही पंजाब या पाकिस्तान के कराची, लाहौर आदि में अभी स्थिति बदतर होने वाली थी, मगर कोलकातावासियों ने अपने वायदे को बखूबी निभाया था। कोलकाता में मौजूद उनके पुराने मित्र सी. राजगोपालाचारी- जो बाद में देश के पहले गवर्नर जनरल बने- ने लिखा है:

“गांधी ने तमाम चीजों को हासिल किया है मगर कोलकाता में उन्होंने बुराई पर जो जीत हासिल की है उससे आश्चर्यजनक चीज़ तो आजादी भी नहीं थी।’

मुर्दों के शहर में गाँधी का आखिरी अनशन, 1948

याद रहे दिल्ली से पाकिस्तान जाने का उनका इरादा था ताकि वहां अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों के खिलाफ वह आवाज बुलन्द पर सकें। दिल्ली के इस अंतिम प्रयास में जब वह मुसलमानों की हिफाजत के लिए सक्रिय रहे तब हिन्दूवादियों ने उन पर यह आरोप लगाए थे कि वह ‘मुस्लिमपरस्त’ हैं, तो उन्होंने सीधा फार्मूला बताया था: भारत में मैं मुस्लिमपरस्त हूं तो पाकिस्तान में हिन्दूपरस्त। अर्थात् कहीं कोई अल्पमत में है और इसी वजह से उन पर हमले हो रहे हैं तो वह उसके साथ खड़े हैं।

ऐसे लोगों को वह नौआखाली की अपनी कई माह की यात्रा का अनुभव भी बताते जहां वह कई माह रुके थे और मुस्लिम बहुमत के हाथों हिन्दू अल्पमत पर हो रहे हमलों के विरोध में अमन कायम करने आपसी सद्भाव बनाने की कोशिश कर रहे थे।

Gandhi at Noakhli India during Hindu Massacre

शाहदरा स्टेशन पर उन्हें लेने नवस्वाधीन मुल्क के प्रथम गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल पहुंचे थे। 12 जनवरी की प्रार्थनासभा में जब वह अगले ही दिन से अपने आखिरी अनशन की शुरूआत करने वाले थे, उन्होंने लोगों को बताया था कि सितम्बर में जब वह दिल्ली पहुंचे थे तो दिल्ली के हालात कितने खराब थे। उन्होंने बताया था कि हमेशा हंसमुख रहने वाले पटेल का चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था। उन्होंने गांधी को बताया था कि दिल्ली के हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं, पाकिस्तान से आए हिन्दू एवं सिख शरणार्थी मुसलमानों के घरों, प्रार्थनास्थलों पर हमले कर रहे हैं, उन पर कब्जा कर रहे हैं। मेहरौली की दरगाह पर हिन्दुओं ने कब्जा कर लिया है और खादिमों को वहां से भगा दिया है।

उसी वक्त उन्होंने फैसला लिया था कि वह दिल्ली में ही रहेंगे और जब तक दिल्ली में शान्ति कायम नहीं होती तब तक आगे नहीं जाएंगे। और वह वहीं डटे रहे। उसके बाद 144 दिनों की उनकी कोशिशें- जब वह शरणार्थी शिविरों में गए, तमाम दंगा-पीड़ितों से मिलते रहे और अन्त में दिल्ली में अमन कायम करने के लिए उन्होंने जनवरी माह में आमरण अनशन किया था, अपनी जिन्दगी की अंतिम भूख हड़ताल की थी।

दिसम्बर माह में अपने एक मित्र को लिखे पत्र में, जो गांधी स्मृति में बने म्यूजियम में रखा है, गांधी ने बिड़ला हाउस में रहने के अपने निर्णय के बारे में लिखा है:

दिल्ली एक मुर्दा शहर है। फिर एक बार दंगे शुरू हुए हैं और भंगी कालोनी’ (जैसा कि ‘वाल्मिकी बस्ती’ को उन दिनों जाना जाता था- लेखक) शरणार्थियों से भरी थी। सरदार पटेल ने इसलिए तय किया कि मेरे रुकने का इन्तज़ाम बिड़ला हाउस में करेंगे… दिल्ली में टिकने के पीछे मेरा मुख्य उद्देश्य मुसलमानों को थोड़ी बहुत सांत्वना प्रदान करना था। इस मकसद को वहां रह कर ठीक से पूरा किया जा सकता था। मुसलमान दोस्तों को यहां पहुंचना अधिक सुरक्षित लगता था।

महात्मा गाँधी, मित्र को लिखे एक पत्र में

लगभग एक माह बाद दिल्ली के मुसलमानों का एक समूह उनसे वहां मिलने पहुंचा, जिन्होंने ‘इंग्लैण्ड जाने में मदद’ करने के लिए गांधी से गुजारिश की थी। दरअसल वह पाकिस्तान जाना नहीं चाहते थे मगर हालात जैसे-जैसे बदतर हो रहे थे, भारत में रहना मुश्किल हो रहा था। गांधी को लगा कि वह पराजित हो रहे हैं। और फिर उन्होंने एक बार आमरण अनशन करने का फैसला लिया था।

अपनी जिन्दगी का लम्बा हिस्सा उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष में बिताने वाले गांधी उस वक्त एक अलग किस्म के संघर्ष में उलझे हुए थे। वह अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े थे, जो एक दूसरे के खून के प्यासे हो चुके थे। जिस गांधी के नाम की जय कभी पूरे हिन्दोस्तां में लगती थी, वहां अब गांधी मुर्दाबाद के नारे लग रहे थे। बिड़ला हाउस के बाहर शरणार्थी गांधी की कोशिशों का विरोध कर रहे थे।

यह बात छात्रों को बताने की जरूरत महसूस क्यों नहीं की गई कि सत्य और न्याय की हिफाजत के लिए कभी अकेले ही खड़े रहना पड़ता है और अपनी जान की बाजी भी लगानी पड़ती है। यह ऐसा सबक है जो न केवल सार्वजनिक जीवन बल्कि व्यक्तिगत जीवन में, अध्ययन में, नयी-नयी बातों के अन्वेषण की तरफ झुकने के लिए छात्रों को प्रेरित कर सकता है।

आज के वक्त में जबकि उन्हें बुनियादी मसलों से दूर करके हिन्दू-मुस्लिम डिबेट में उलझाए रखा जा रहा है, बकौल रवीश कुमार उन्हें दंगाई बनाने के प्रोजेक्ट पर लगातार काम हो रहा है, ऐसे समय में यह सरल सी लगने वाली बात कितनी जरूरी दिखती है।

इन्सानियत की तवारीख कितनी सूनी हो जाएगी अगर अपने उसूलों की हिफाजत के लिए जहर का प्याला पीने वाले महान दार्शनिक सुकरात या चर्च के आदेश पर जिन्दा जला दिए गए ब्रूनो- जिन्होंने बाइबिल के इस सिद्धांत को चुनौती दी थी कि सूर्य पृथ्वी के इर्द-गिर्द नहीं घूमता है बल्कि पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमती है- या हिन्दू-मुसलमानों के बीच आपसी सद्भाव बना रहे, धर्म के नाम पर राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता- इस उसूल के लिए, जिसकी सच्चाई अब बार-बार प्रगट हो रही है, हत्यारे की गोली झेलने वाले गांधी हों, इन सभी का जिक्र उनके पन्नों से हटा दिया जाए।

रविन्द्रनाथ टैगोर का वह गीत गांधी को बहुत प्रिय था:

‘जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे तबे एकला चलो रे’ अर्थात ‘अगर तुम्हारी आवाज़ का साथ देने के लिए कोई नहीं है तो अकेले ही आगे बढ़ो’!

पौधे की तरह अल्पसंख्यक का जीवन!

आखिर 20वीं सदी के इस महान शख्स- जिसने हमारी आजादी के आन्दोलन की अगुआई की तथा अपने अंतिम दिनों में अपने ही बहुसंख्यक लोगों के खिलाफ संघर्ष किया तथा अपनी जान तक दे दी- उसकी मृत्यु के स्थान को देखने से हम क्यों बचते आए हैं?

गांधी की सुनियोजित हत्या से एक जागरूक कहलाने वाले समाज की एक सचेतन दूरी अपने समाज के बारे में कई प्रश्न खड़े करती है। क्या हम उस घटनास्थल पर पहुंचने से इस वजह से बचते हैं कि हम उन तमाम असुविधाजनक प्रश्नों का सामना नहीं करना चाहते, जो वहां जाकर हमारे या हमारे करीबियों के बीच में ही उठा करते हैं, ऐसी बातों को सार्वजनिक दायरे से उठाने के जोखिमों से आप वाकिफ हों।

याद कर सकते हैं कि गांधी हत्या के महज चार दिन बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबन्दी लगाने वाला आदेश जारी हुआ था- जब वल्लभभाई पटेल गृहमंत्री थे- जिसमें लिखा गया था:

‘ऐसे संगठनों के सदस्यों की तरफ से अवांछित, यहां तक कि खतरनाक गतिविधियों को अंजाम दिया गया है। यह देखा गया है कि देश के तमाम हिस्सों में इनके सदस्य हिंसक कार्रवाईयों में- जिनमें आगजनी, डकैती और हत्याएं शामिल हैं- मुब्तिला रहे हैं और वे अवैध ढंग से हथियार एवं विस्फोटक भी जमा करते रहे हैं। वे लोगों में पर्चे बांटते देखे गए हैं और लोगों को यह अपील करते देख गए हैं कि यह आतंकी पद्धतियों का सहारा लें, हथियार इकट्ठा करें सरकार के खिलाफ असन्तोष पैदा करें।

27 फरवरी 1948 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने खत में- जबकि महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे एवं उनके हिन्दुत्ववादी आतंकी गिरोह के हाथों हुई हत्या को तीन सप्ताह हो गए थे- पटेल ने लिखा था:

“सावरकर के अगुवाई वाली हिन्दू महासभा के अतिवादी हिस्से ने ही हत्या के इस षडयंत्र को अंजाम दिया है… जाहिर है उनकी हत्या का स्वागत हिन्दूवादी संगठनों के लोगों ने किया जो उनके चिन्तन एवं उनकी नीतियों की मुखालफ़त करते हैं।“

उन्हीं पटेल ने 18 जुलाई 1948 को हिन्दू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखा था:

हमारी रिपोर्टे इस बात को पुष्ट करती हैं कि ऐसे संगठनों की गतिविधियों के चलते… मुल्क में एक ऐसा वातावरण बना जिसमें ऐसी त्रासदी (गांधीजी की हत्या) मुमकिन हो सकी। मेरे मन में इस बात के प्रति तनिक सन्देह नहीं कि इस षडयंत्र में हिन्दू महासभा का अतिवादी हिस्सा शामिल था। ऐसे संगठनों की गतिविधियां सरकार एवं राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा है। हमारी रिपोर्ट इस बात को पुष्ट करती है कि पाबन्दी के बावजूद उनमें कमी नहीं आयी है। दरअसल जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है इनके कार्यकर्ता अधिक दुस्साहसी हो रहे हैं और अधिकाधिक तौर पर तोडफ़ोड़/विद्रोही कार्रवाईयों में लगे हैं। गांधी से आप की लाख वैचारिक असहमतियां हो सकती हैं मगर आप इस सत्य से कैसे इन्कार कर सकते है कि साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए कुर्बानी देकर उन्होंने एक तरह से समूचे उपमहाद्वीप में अमन कायम किया था। उनकी हत्या के बाद भारत के अन्दर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के अन्दर अल्पसंख्यकों पर हमले बन्द हुए थे। सरहद के दोनों ओर तमाम मासूमों की जान बची थी।

हिन्दू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखा पटेल का पत्र, 18 जुलाई 1948

और जैसा कि हम पहले ही जिक्र कर चुके हैं, आजादी के बाद उनकी पहल पर चली कोशिशों का ही नतीजा था कि नवस्वाधीन मुल्क में कई जगहों पर मासूमों का खून बहने से रुका था।

कोलकाता की मिसाल आप के सामने है।

2 अक्टूबर 1947- जो गांधी का आखिरी जन्मदिन साबित हुआ- उस दिन सी. राजगोपालाचारी ने- जो सितम्बर माह में उनकी पहल पर कायम शांति से वैसे भी गदगद थे- उन्हें कोलकाता से ही निकलने वाले दो मुस्लिम अख़बारों के सम्पादकीय भेजे थे, जिनका लुब्बोलुआब यही था कि किस तरह गांधी की कोशिशों से शहर में कायम साम्प्रदायिक सद्भाव का माहौल अभी भी बरकरार है जबकि देश के शेष हिस्सों में उन्माद उरूज़ पर है।

‘मॉर्निंग न्यूज’ नामक अखबार ने कहा था :

”कोलकाता गांधीजी द्वारा अंजाम दी गयी उन अतिमानवीय कोशिशों को कभी नहीं भूलेगा जब उन्होंने शहर में संयम/स्थिरबुद्धिता कायम करने में सफलता हासिल की थी जबकि उन दिनों उसके तमाम नागरिकों से उसने फौरी बिदाई ली थी… अपने करिश्माई व्यक्तित्व के बलबूते उन्होंने अपनी वास्तविक महानता का परिचय दिया था जब उन्होंने कोलकाता के अपराधियों के भी हृदयपरिवर्तन करने में सफलता मिली थी। आज गांधीजी जब 79वें साल में दाखिल हो रहे हैं और उनके नाम तमाम कामयाबियां दर्ज है। उन्हें इस बात को लेकर अत्यधिक सुकून हो सकता है कि उन्होंने दुनिया की सबसे शक्तिशाली सैन्यशक्ति के सामने उसी तकनीक का प्रयोग सफलता से किया…।’’

यह अलग बात है कि कोलकाता की इन ख़बरों से गांधी कतई प्रसन्न नहीं हुए थे क्योंकि दिल्ली, पंजाब तथा देश के कई हिस्सों में अभी भी आग लगी हुई थी। इसी उद्विग्नता में उन्होंने उन्हें मिल रही बधाइयों का जवाब देते हुए कहा था: ‘मुबारकबाद से बेहतर होता उन्हें शोक संदेश दिए जाते।’’

गांधी की मृत्यु शीर्षक से नाटक रचनेवाले महान हंगेरियन नाटककार नेमेथ लास्लो ने अपने नाटक में इस अवसर पर गांधी का एक स्वगत भाषण पेश किया है:

मुझे अपने जीवन के 78वें जन्मदिन पर बधाइयां मिल रही हैं मगर मैं अपने आप से पूछ रहा हूं इन तारों का क्या फायदा? क्या ये सही नहीं होता कि मुझे शोक संदेश दिए जाते? एक वक्त था जब मैं जो भी कहूं, लोग उस पर अमल करते थे, आज मैं क्या हूं? मरुस्थल में एक अकेली आवाज़। जिस तरफ देखूं सुनने को मिलता है कि हिंदुस्तान की यूनियन में हम मुसलमानों को बर्दाश्त नहीं करना चाहते। आज मुसलमान हैं, कल पारसी, ईसाई, यहूदी, तमाम यूरोपीय लोग। इस तरह के हालात में इन बधाइयों का मैं क्या करूँ?

नाटककार ने लिखा है कि गांधी ने ”यह साबित कर दिखाया है कि परिशुद्ध औजारों और नैतिक श्रेष्ठता के हथियारों से भी कोई ऐतिहासिक विजय पा सकता है, एक विशाल साम्राज्य को मुक्त करा सकता है और औपनिवेशिकता की प्रक्रिया को उलट सकता है।’’

एक गुलाम राष्ट्र तथा ट्रासिल्वैनिया में रहने वाले अल्पसंख्यकों- हंगेरियनों की तुलना करते हुए नेमेथ लास्लो ने कहा कि अल्पसंख्यक का जीवन एक पौधे की तरह है, जबकि बहुसंख्यक राष्ट्र एक शिकारी जैसा होता है।

गांधी के मृत्युस्थल से निरंतर रही हमारी इस दूरी की गहरी विवेचना जरूरी है जो पूरे समाज को किसी गहरी कमी या असाध्य बीमारी की तरफ इशारा करती दिखती है, जो निरपराध/निरपराधों के हत्यारे की खुलेआम भत्सर्ना करने के बजाय अचानक तटस्थ रुख अख्तियार करती है और बेहद शालीन, बुद्धिमत्तापूर्ण अन्दाज में हत्यारे के ‘सरोकारों’, उसकी ‘चिन्ताओं’ में झांकने लगती है।

यह अकारण नहीं कि हिन्दुत्व अतिवादी नाथूराम गोडसे- जो आतंकी मोडयूल का अगुआ था जिसने महात्मा गांधी की हत्या की- का बढ़ता सार्वजनिक महिमामण्डन हमारे समय की एक नोट करने लायक परिघटना है।


नोट: यह लेख सुभाष गाताड़े द्वारा लिखित गाँधी पर लिखी लम्बी पुस्तिका का आरंभिक अंश है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक और वामपंथी कार्यकर्ता हैं


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