ये बात साबित हो चुकी है कि टीवी चैनल जनता में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। उनका काम नरेंद्र मोदी को बधाई देने के मौके तलाशना, उन्हें शुभकामना संदेश भेजना और जय हो जय हो करने से ज्यादा कुछ नहीं बचा है। टीवी चैनलों के एक से एक एंकर मोदी की ट्रोल आर्मी में तब्दील हो चुके हैं। इस होड़ में वो इतने जहरीले हो चुके हैं कि अब जनता को ही डंसने लगे हैं।
टीवी चैनलों के प्रासंगिकता खो देने की बात हवा में नहीं है। खुद मोदी सरकार ने अदालत में सील ठप्पे के साथ ये हलफनामा दिया है कि ये सब तो हमारे काबू में हैं, लेकिन डिजिटल मीडिया वाले नहीं आ रहे। आप उन पर लगाम कसिए। इसके मतलब और मकसद पर आगे बढ़ने से पहले आपको जरा पीछे चलना पड़ेगा।
पिछले महीने की बात है। सुदर्शन टीवी ने अपने मालिक के कार्यक्रम का एक प्रोमो चलाया। उस प्रोमो की लाइनें हूबहू यूं थीं, “सरकारी नौकरशाही में मुसलमानों की घुसपैठ पर बड़ा खुलासा। आखिर अचानक मुसलमान आइएएस आइपीएस में कैसे बढ़ गए। सोचिए, जामिया के जेहादी अगर आपके जिलाधिकारी और हर मंत्रालय में सचिव होंगे तो क्या होगा। लोकतंत्र के सबसे महत्त्वपूर्ण स्तंभ कार्यपालिका पर कब्जे का पर्दाफाश देखिए नौकरशाही जेहाद पर हमारा महाअभियान।”
इसी कड़ी में अर्णब गोस्वामी ने महाराष्ट्र के राज्यसभा सांसद संजय राउत, गृह मंत्री अनिल देशमुख और राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को ललकारते हुए चैनल पर कहा था, “मुंबई में आओगे तो देख लेंगे। क्या देखोगे संजय राउत? क्या कर लोगे संजय राउत? और कौन हो तुम? जागीरदार हो तुम मुंबई के अनिल देशमुख? कौन हो भाई? मैं उद्धव ठाकरे, संजय राउत और अनिल देशमुख को आमंत्रित करता हूं। वन टू वन बात हो मेरे साथ। मैं इंटरव्यू करूंगा उनका।” आप इससे वाकिफ होंगे।
मोदी सरकार कह रही है कि ये सब तो ठीक है। इनसे ज्यादा दिक्कत नहीं है हमको। ये सब बहुत अच्छे लोग हैं। अच्छे चैनल हैं। अच्छे पत्रकार हैं। दिन-रात देश के बारे में ही सोचते रहते हैं। इन पर ध्यान मत दीजिए, मीलॉर्ड। अपने लोग हैं। अपनी तरह की बात करते हैं। और फिर अभिव्यक्ति की आजादी भी तो है हुजूर। इनको बोलने दीजिए। प्लीज़। ये लोग तो इंडिया को नेशनलिज्म सिखा रहे हैं। राष्ट्रवाद (इसमें अंध और गंध अपने से जोड़ लेना है) को छेड़ने की जरूरत नहीं है। आप नाहक परेशान हैं मीलॉर्ड। ये सब तो जायज़ है। जरूरी है। आप इसे जहालत न कहें, जहांपनाह।
आपको लग रहा होगा इन पुरानी बातों का जिक्र मैं यहां क्यों कर रहा हूं। इसकी एक खास वजह है। और वो वजह सुनकर आप चकरा जाएंगे, लेकिन अगर आप टीवी की चिल्लपों से ऊबे हुए हैं और यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर जैसे माध्यमों पर अपनी पसंद के कंटेंट कभी-कभार देख लेते हैं तो आपको चिंतित होना चाहिए। नरेंद्र मोदी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सील ठप्पे के साथ लिखकर दिया है कि हमको टीवी चैनलों और अखबारों से डर नहीं लगता है साब। डिजिटल मीडिया से लगता है। यू ट्यूब से लगता है। फेसबुक से लगता है। ट्विटर से लगता है। इंस्टाग्राम से लगता है। वही डिजिटल मीडिया, जिसकी पीठ पर सवार होकर नरेंद्र मोदी ने सत्ता के बदलाव की लहर तैयार की थी।
2013-14 में मोदी जो देश दुनिया के बारे में सोचते और कहते थे उन सब पर समय और सोच का रंदा चल चुका है। मोदी को अब हर उस पाबंदी, लगाम और तिकड़म से प्यार है जिसे वो छह साल पहले तक गुनाह बताते थे। इन्हीं में से एक है डिजिटल मीडिया। इसके मतलब को समझिए। मोदी जी को टीवी चैनल से कोई दिक्कत नहीं है। वो तो उनके चरणों में पहले झुके, फिर लेटे और फिर साष्टांग दंडवत हो गये। आपने देखा नहीं? कैसे जन्मदिन पर एंकरों और चैनलों में एक दूसरे से ज्यादा लंबवत और दंडवत साबित करने की होड़ लगी थी। किसी भी डिबेट में एंकर बीजेपी का पहला प्रवक्ता बनकर बैठ जाता है। दूसरा प्रवक्ता बैठाया जाता है संघ के जानकार के बतौर, तीसरा बैठाया जाता है राजनीतिक विश्लेषक बोलकर। इन सबके बाद असली प्रवक्ता, फिर नंबर आती है विपक्ष के एक आदमी की। उसकी जरूरत इसलिए पड़ती है कि सब मिलकर उसका शिकार कर सकें।
इस तरह से टीवी का बक्सा नरेंद्र मोदी के लिए नरेटिव तैयार करता है। चैनल उसके प्रवक्ताओं को हुल्लड़बाजी का मंच मुहैया कराते हैं और जनता से वैचारिक ठगी करते हैं। जब कोई सुलझा हुआ आदमी यूट्यूब पर आकर बताता है कि देखो ये ठगी है; फेसबुक पर आकर कहता है कि देखो ये तमाशा तुम्हें तबाह कर देगा; तो मोदी सरकार को दिक्कत होने लगती है। खुद से तो रोकती नहीं, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट इस पर लगाम कसने के लिए सुगबुगाती है तो सरकार कहने लगती है कि इससे कोई समस्या ही नहीं है, मीलॉर्ड। समस्या तो उन लोगों से है जो भूखे पेट, नंगे पांव, बिना भविष्य की चिंता के बगैर चिल्ला रहे हैं कि देखो, सवा दो करोड़ लोग मोदी सरकार में नौकरी गंवाकर बैठे हैं। देखो, जीएसटी ने कारोबारियों का चैन छीन लिया है। देखो, नोटबंदी इस देश के गरीब लोगों के साथ क्रूरता थी, किसानों मजदूरों पर जुल्म था। देखो, जीडीपी माइनस 24 डिग्री के पाताललोक में घुस गयी है। इन बातों से मोदी सरकार को भारी दिक्कत होने लगती है।
याद कीजिए नोटबंदी के बाद मोदी जब जापान गये थे, उन्होंने भारत में मची अफरातफरी का मजाक उड़ाते हुए कहा था, “लोगों के घरों में शादी है लेकिन पैसे नहीं हैं।” साधारण जनता के साथ क्रूरता पर इस अट्टाहास को टीवी चैनलों ने जनता पर उपकार की तरह स्थापित कर दिया था। वो डिजिटल मीडिया के लोग थे जिन्होंने कहा कि ये गलत है। लोगों की जिंदगी खतरे में है। लाखों रुपये टैक्स चुकाने वालों को पाई-पाई के लिए तरसा देने की सोच को साहस के साथ आपके सामने रखा था। मोदी सरकार इस साहस को कुचलना चाहती है, लेकिन अपने दम पर उसकी हिम्मत नहीं हो रही। इसलिए वो अदालत के रास्ते से जनता के जानने के अधिकार को कुचलने की योजना बना रही है। और उसे ये मौका दिया है सुदर्शन टीवी के सुरेश चव्हाणके की गंदी घिनौनी और जहरीली सोच ने। ‘’जहरीली सोच’’ तो सुप्रीम कोर्ट ने खुद कहा है।
सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हम टीवी चैनलों की अराजकता पर नजर रखने के लिए पांच सदस्यीय एक कमेटी बनाने के पक्ष में हैं। सरकार से राय पूछी गयी। मोदी जी के दूत ने स्टांप पेपर पर लिखकर दिया कि आप तो डिजिटल मीडिया का देख लीजिए। चैनलों का हम देख रहे हैं। और दलील क्या दी है?
अपने हलफनामे में उसने लिखा है कि मुख्यधारा के मीडिया में प्रकाशन और प्रसारण तो एक बार का काम होता है, लेकिन डिजिटल मीडिया में व्यापक रूप से भारी संख्या में पाठकों तक पहुंच है। इसमें व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक जैसे कई इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के कारण खबर और विश्लेषण के वायरल होने की संभावना रहती है। इसलिए अगर टीवी मीडिया के गंभीर प्रभाव और क्षमता को देखते हुए अदालत ने किसी नियंत्रण की बात सोची है तो इसे पहले डिजिटल मीडिया पर लगाम कसिए। हमको बहुत तंग करते हैं ये लोग।
मोदी सरकार को चाहिए कि एक नैतिक शिक्षा आयोग का गठन करके अर्णब गोस्वामी और सुरेश चव्हाणके की जमातों को उसका निदेशक बना दे क्योंकि ये सब तो भाषा और संस्कार की पाठशाला हैं न। मैं बधाई देना चाहता हूं यू ट्यूब, ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ऐसे तमाम माध्यमों के जरिये सीमित संसाधनों में अपनी आवाज पहुंचाने की कोशिश कर रहे साथियों को, कि सरकार ने मान लिया है कि मोदी सरकार के भोंपू और भांड में तब्दील हो चुके टीवी चैनलों का सरकार की नजर में ही न कोई अर्थ बचा है और न असर।
मैंने आर्टिकल 19 की शुरुआत करते हुए कहा था कि जिस मीडिया में इस देश के गरीबों, मजदूरों, छात्रों, नौजवानों, किसानों, अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछडों, आदिवासियों, औरतों की आवाज नहीं होगी उसे एक दिन जनता हाशिये पर फेंक देगी। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में डिजिटल मीडिया का गला घोंटने की फरियाद लगाकर मेरी उस बात को साबित कर दिया है।