अपने देश के मौजूदा हालात को देखते हुए कोई कहे कि अब क्रांति के अलावा कोई चारा नहीं बचा है क्योंकि कथित राज्य का विलोप हो चुका है, तो बहुतेरे लोग इस पर शायद प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझेंगे। हाल फिलहाल आये दो बयानों ने हालांकि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।
पहला बयान, जिसे नज़रिया कहना ज़्यादा उचित है क्योंकि वह एक लेख की शक्ल में आया है, वह है सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू का। हिंदी पट्टी में गुमनाम सी एक उर्दू वेबसाइट ‘नया दौर’ में उन्होंने एक लेख लिख कर कहा है कि भारत उन ख़तरनाक़ हालात में पहुंच गया है जहां क्रांति ही एकमात्र चारा है।
अपने लेख में जस्टिस काटजू भारत के मौजूदा हालात की तुलना क्रांति के ठीक पहले वाले रूस से करते हैं जब वहां की जनता में भारी खलबली थी, किसान और मज़दूर वर्ग, ग़रीब मेहनतकश आबादी, तत्कालीन तानाशाह ज़ार से त्रस्त थी। हज़ारों की तादाद में क्रांतिकारी जेलों में बंद थे या साइबेरिया में ‘कालापानी टाइप’ सज़ा भुगत रहे थे।
जस्टिस काटजू की हर बात में विवाद खोजने वाले भारत के कार्पोरेट मीडिया, वैकल्पिक मीडिया और लिबरल खेमे तक ने इस बयान को तवज्जो देना भी गवारा नहीं समझा। उन्होंने भी एक शब्द नहीं कहा, जो इससे मिलती-जुलती बातें वर्षों से करते आ रहे हैं।
क्या वाकई क्रांति नाम का शब्द इतना अप्रासंगिक हो चुका है? अलग-अलग लोगों के लिए इसके मायने अलग-अलग हो सकते हैं और इसके बारे में विचार भी जुदा हो सकते हैं। ठीक दो दिन के अंतराल पर इसी से मिलता-जुलता एक दूसरा बयान आता है एक केंद्रीय ट्रेड यूनियन की ओर से, जिसमें इस शब्द का ज़िक्र तो नहीं है लेकिन ‘घड़ा भर जाने’ वाली बात प्रतिध्वनित होती है।
सीटू ने 10 सितम्बर को एक सर्कुलर जारी कर देश भर में अपने सदस्यों से कहा है कि मौजूदा सरकार से आरपार की लड़ाई के लिए वे तैयार हो जाएं। मेहनतकश वर्ग के हालात, उद्योगपतियों की अमीरी, बेरोज़गारी, निजीकरण, अर्थव्यवस्था की जर्जर हालत के बारे में विस्तार से बताते हुए सर्कुलर में आह्वान किया गया है:
हमें भविष्य में देशव्यापी हड़ताल के लिए तैयार रहने की जरूरत है। अब आराम करने का समय नहीं है, हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों और राष्ट्रीय संपत्ति, हमारी मेहनत से जीते गये श्रम अधिकारों, नौकरियों, मजदूरी और आजीविका को बचाने के लिए दृढ़ संकल्प लेना होगा। युद्ध की रेखाएं खिंची हुई हैं और हमें आगे बढ़ना है।
जस्टिस काटजू और देश की सबसे बड़ी व प्रभावी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों में से एक सीटू के बयानों के मजमून को देखें तो बात बहुत स्पष्ट हो जाएगी- आम भारतीय जनता की हालत फिर से आज़ादी पूर्व स्थिति में जा रही है, जब अकाल की क़ीमत पर गोरे अपने मुनाफ़े को रत्ती भर नहीं छोड़ना चाहते थे। बंगाल में अकाल पड़ा तब भी चावल देश से बाहर भेजा जाता रहा। भयंकर भुखमरी के समय भी लगान को चाबुक के ज़ोर पर वसूला जाता रहा। महामारी के समय भी मज़दूरों के वेतन में कटौती होती रही।
किसी को इस बात पर हैरानी हो सकती है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध ट्रेड यूनियन सीटू के बयान में क्रांति शब्द क्यों ग़ायब हो गया और क्यों एक नॉन-पार्टिसन स्वतंत्र बुद्धिजीवी की हैसियत रखने वाले पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू को भारत के मौजूदा हालात क्रांति की पूर्व परिस्थिति जैसे दिखायी देते हैं।
अगर हम इस जिरह में नहीं भी जाएं कि किसने क्या कहा या क्यों चुप्पी लगा ली, तो ज़मीनी हालात क्या बता रहे हैं?
देश की बहुसंख्य आबादी एक जून की रोटी पर गुजारा कर रही है। खाते-पीते मध्यवर्ग को यह एक मज़ाक लग सकता है, वैसे ही जैसे उच्च जाति के अधिकांश व्यक्तियों को जातिवादी भेदभाव के आरोप हास्यास्पद लगते हैं। जब मौजूदा सरकार के आंकड़े खुद यही कह रहे हों, तो शक करना मंशा पर संदेह पैदा कर सकता है।
मसलन, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मई में ही कह दिया था कि देश की 80 करोड़ मेहनतकश आबादी को सरकार की ओर से मुफ़्त राशन या बना-बनाया खाना दिया गया। उनका दावा था कि पैदल ही घर को निकले या अपनी जगहों पर फंसे प्रवासी मज़दूरों को तीनों वक़्त भरपेट भोजन सरकार की ओर से बिल्कुल मुफ़्त कराया गया।
यह एक सफेद झूठ हो सकता है, लेकिन वित्त मंत्री का बयान यह भी बताता है कि देश की 80 करोड़ जनता मनमाने तरीके से लगाये गये लॉकडाउन में भुखमरी का शिकार हो गयी थी। यानी सवा सौ करोड़ की आबादी में 60 प्रतिशत आबादी। इसमें क़रीब 20 करोड़ प्रवासी मज़दूरों को शामिल समझा जाए।
सीआइएमई के आंकड़े बता रहे हैं कि देश में 2.1 करोड़ वेतनधारी नौकरियां लॉकडाउन की भेंट चढ़ चुकी हैं। आपदा को अवसर बनाते हुए मोदी सरकार जिस पैमाने पर निजीकरण की आंधी चला रही है, बहुत सुरक्षित समझी जाने वाली सरकारी नौकरियां भी लाखों की संख्या में जाने वाली हैं। कुछ वक़्त पहले तक जिस भारतीय मध्यवर्ग का तेज़ी से विस्तार हो रहा था, वह अचानक संकुचन की स्थिति में आ गया है।
बेरोज़गारों की फ़ौज ने हाल फिलहाल सांकेतिक ही सही, विरोध की अपनी ताक़त का अहसास कराया है और ये अब भी जारी है। किसान मंडी ख़त्म करने और कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग के ख़िलाफ़ मोदी सरकार से किसान दो-दो हाथ करने का मन बना चुके हैं।
पर्यावरण क़ानूनों को ढीला करके बड़े पैमाने पर जंगलों को निजी कंपनियों के हवाले करने के फैसले पर मुहर लग चुकी है। देश के 10.4 करोड़ आदिवासी (2011 की जनगणना के अनुसार) इसके विरोध में हैं।
इस फ़ेहरिस्त में देश का कोई तबका अछूता नहीं बचा है। मोदी-शाह की जातिवादी और साम्प्रदायिक सत्ता के दमन की सबसे अधिक आंच अल्पसंख्यक और दलित समुदाय झेल रहा है, जिनकी कुल आबादी में हिस्सेदारी क़रीब 30 प्रतिशत बैठती है।
ये कुछ सपाट आंकड़े हैं और इनसे बहुत नियत निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है, लेकिन ये मोटामोटी बताते हैं कि देश की बहुतायत जनता घनघोर विपत्ति में ज़िंदा रहने पर मज़बूर कर दी गयी है। सत्तर साल की आज़ादी, आधी सपने देखने में चली गयी और आधी मुसीबत से पार पाने में।
ऐसे में अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो हाल फिलहाल भारतीय सत्ता के शीर्ष पर रह चुका हो, यह कहे कि क्रांति के बिना काम नहीं चलेगा, तो व्यवस्था की हालत सहज ही समझी जा सकती है।
यूं ही नहीं होता है कि जब मज़दूर आक्रोशित होते हैं तो ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे गूंजने लगते हैं। बेशक यह हो सकता है कि वे इंकलाब यानी क्रांति को उन्हीं अर्थों में नहीं समझते हों, जैसा जस्टिस काटजू समझते हैं या जैसा स्वनामधन्य क्रांतिकारी समझते हैं या ट्रेड यूनियनें समझती हैं। लेकिन धरातल पर भावनाएं एक होते कितनी देर लगती है?
28 सितम्बर को शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का जन्मदिन है। उन्हीं भगत सिंह का, जिन्होंने इंकलाब ज़िंदाबाद और क्रांति जैसे शब्दों को भारत के जन जन तक पहुंचाया था। इसी दिन देश भर के युवा, बेरोज़गार और ट्रेड यूनियनों ने अपनी आवाज़ बुलंद करने की ठानी है।
ये कुछ आहटें हैं जिसे जस्टिस काटजू सुनने की कोशिश कर रहे हैं। क्या आप सुन पा रहे हैं?