राजनीति या लोकनीति? विनोबा के जन्‍मदिवस पर याद रखने लायक कुछ सबक


मैं एक अलग ही दुनिया का आदमी हूं। मेरी दुनिया निराली है। मेरा दावा है कि मेरे पास प्रेम है और उस प्रेम का अनुभव मैं सतत ले रहा हूं। मेरे पास मत नहीं हैं। मेरे पास विचार हैं।

अपनी आत्मकथा में विनोबा भावे

आज पूरे देश में राजनीति का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। भारत के प्रधानमंत्री को विपक्षी दल के नेता चोर कहते हैं, वहीं सत्ता में बैठे लोग विपक्ष के नेताओं को मूर्ख और बेवकूफ़ कहकर भाषा की मर्यादा को लांघते हैं। सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक मंचों तक अमर्यादित भाषा का प्रयोग कर झूठ का साम्राज्य स्थापित किया जा रहा है। आज तमाम राजनैतिक पार्टियां सत्ता हथियाने के लिए जनता का इस्तेमाल महज़ एक हथियार के रूप में कर रही हैं और आम नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को सत्ता के पैरों तले कुचलती जा रही हैं। इन सभी परिस्थितियों के बीच हमें विनोबा दर्शन और उनके विचारों की याद आती है।

विनोबा भावे सही मायनों में सच्चे संत थे। निष्काम और निस्वार्थ भाव से सबकी भलाई के काम करते रहना ही उनके जीवन का परम ध्येय था। वे भूदान यज्ञ के प्रणेता थे और भारतीय संत परंपरा के प्रतिनिधि। उनका मानना था कि सत्ता का कुछ-न-कुछ उपयोग है, यह तो सबने स्वीकार किया है लेकिन आजकल तो मानो लोग सत्ता को ही लाभ का जरिया मान बैठे हैं। इसके लिए होड़ मची है। इसमें से प्रतिपक्ष, उपपक्ष फूट निकलते हैं और फिर भी मोह भंग नहीं होता। ओहदों पर चिपके रहने की वृत्ति पैदा होती है। यह सब आश्चर्यजनक नहीं, दुखदायी है।

आश्चर्यजनक इसलिए नहीं कि अंधे का खंभे से टकराना तो स्वाभाविक है क्योंकि उसे दीखता नहीं है लेकिन आँखवाले को तो दूर से दीखता है कि वह जिस दिशा में जा रहा है, उसमें टकराने के सिवा और कुछ भी नहीं है। दरअसल, विनोबा राजनीति का विकल्प लोकनीति के रूप में देखते थे। उनका विचार था कि धर्म-संस्था और शासन-संस्था दोनों संस्थाएं लोक-सेवा के हेतु से बनी थीं। आज भी ये संस्थाएं काम तो कर रही हैं, लेकिन अब धीरे-धीरे ये खत्म होती जा रही हैं।

वो कहते थे कि इन दोनों संस्थाओं से मुक्त होना समाज के लिए जरूरी हो गया है। उनका मानना था कि सेवा के नाम पर जो शासन चलता है, उससे छुटकारा पाना जरूरी है।

आचार्य विनोबा भावे सार्वजनिक व्यवस्था में राजनीति के बजाय लोकनीति के पक्षधर थे। आम तौर पर सार्वजनिक व्यवस्था में तीन शब्द प्रयोग में लाये जाते हैं- पहला लोकसत्ता, दूसरा लोकतंत्र और तीसरा लोकनीति। जिस इंतज़ाम में साधारण इंसान की इज्ज़त होती है उसे लोकसत्ता कहते हैं। यहां इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि सत्ता का असली अर्थ हुकूमत नहीं बल्कि प्रतिष्ठा का जीवन है।

वहीं दूसरी तरफ जिस पद्धति में साधारण नागरिक की प्रतिष्ठा होती है उसे लोकतंत्र की श्रेणी में रखा जा सकता है। इन दोनों शब्दों से ज्यादा महत्वपूर्ण लोकनीति और उसका विचार है जो कहता है कि नागरिकों में एक दूसरे के लिए इज्ज़त हो। जब एक नागरिक दूसरे नागरिक की सुख-सुविधा का विचार अपनी सुख सुविधा से पहले करता है तब उस नागरिक व्यवहार को लोकनीति की संज्ञा दी जाती है।

कहने का आशय सिर्फ इतना है कि लोकनीति के बिना लोकतंत्र ठहर नहीं सकता है और न ही लोकसत्ता चरितार्थ हो सकती है। किसी भी समाज व राष्ट्र के नागरिकों के चरित्र का आधार ही लोकनीति है।

विनोबा इस लोकनीति के माध्यम से जनप्रतिनिधियों से कहते थे:

ऐसे लोग जनता द्वारा चुने गए चुनिन्दा सेवक हैं। भारत की जनता में थोड़े-बहुत लोग श्रीमंत हैं, फिर भी सामान्यतः यह गरीब देश ही है। इसलिए चुने हुए सारे ही प्रतिनिधि गरीबों के प्रतिनिधि हैं। इसलिए मेरी आप जन-प्रतिनिधियों से यही एक अर्ज़ है कि आप खाएँ, पीएँ और मौज करें! लेकिन एक बात का हमेशा खयाल रखिएगा कि आप किसके लिए राज्य करते हैं।

विनोबा भावे

आज जबकि सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता, कानून का सरेआम उल्लंघन, महिलाओं का अपमान, आपसी लड़ाई-झगड़े, स्वार्थ, ईर्ष्या और बदले की भावना से समाज दिन प्रतिदिन विखंडित होता जा रहा है; मनुष्य-मनुष्य के बीच संवाद के सभी रास्ते बंद होते नज़र आ रहे हैं; तब हमें इस बात को समझना होगा कि समाज के हित में किसी तथाकथित मत की नहीं बल्कि उस विचार और लोकनीति की जरूरत है जो घृणा को प्रेम से, असत्य को सत्य से और हिंसा को अहिंसा से समाप्त करने का संदेश जन-जन तक प्रेषित करती हो।


गौरव चौहान महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में शोधार्थी हैं


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