बात बोलेगी: लोकतंत्र के ह्रास में बसी है जिनकी आस…


अगर आप जन्मजात और समय के साथ प्रशिक्षित व दक्ष इग्नोरेंट (मासूम नहीं) हैं; पाठ्यक्रमों में लगी या लगायी गयी किताबों के अतिरिक्त आपने इधर-उधर नहीं देखा; हमेशा अपने काम से काम रखा- पढ़ाई की, डिग्री हासिल की, कंपीटिटिव एग्ज़ाम्स की तैयारी की और चुन लिए गये; बड़े पैकेज के साथ एक बढ़िया नौकरी मिल गयी, फिर शानदार ढंग से शादी हो गयी, पर्याप्त दान-दहेज़ मिल गया; रीति-रिवाज़, धर्म-गोत्र, जाति-वर्ण सभी तराजुओं पर आप खरे उतर गये और अब ज़िंदगी का पैंतीसवां वसंत देखने से पहले ही खुद का घर, कार, डिपोजिट्स, शेयर, शॉपिंग, आउटिंग, नेट्फ़्लिक्स आदि से आपका जीवन निर्बाध गति से चल रहा है; तो यकीन मानिए आप बहुत खुशनसीब हैं क्योंकि आप इस लोकतन्त्र नामक राजनैतिक व्यवस्था के एक अच्छे उपभोक्ता हैं।

हां, दैहिक तापा आपको जरूर व्याप सकता है जिसके लिए आप पहले ही जिम की मेम्बरशिप ले चुके होंगे। बाकी, आप मस्त रहें। देश की बहुसंख्य जनता आपके इस वैभव को बनाये रखने के लिए दिन-रात काम कर रही है।

गाँव-गाड़ों में कई लोगों का इसलिए भी सम्मान कर दिया जाता है क्योंकि वह दिवाली पर बेंगलुरु से वापस घर आया है और बेंगलुरु में वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है; क्योंकि उसका पैकेज लाखों में है; क्योंकि वह इसी साल एक डुप्लेक्स खरीद रहा है; क्योंकि वह दफ्तर के काम से जर्मनी और यूएस आता-जाता रहता है; क्योंकि वह पढ़ने में होशियार रहा है और इधर-उधर नहीं देखता क्योंकि उसे कोई मतलब नहीं है कि देश में विषमता कैसे बढ़ रही है; क्योंकि वह राम मंदिर का समर्थन करता है; क्योंकि वह अपने यहां किसी मुस्लिम या दलित को नौकरी नहीं देता है; क्योंकि जब उसने अपने लिए डुप्लेक्स मकान बुक किया तब यह भी देखा कि उस सोसायटी में किसी मुसलमान या दलित को घर नहीं मिलना चाहिए; और क्योंकि अंतत: वह एक सफल बच्चा है जो अपनी सफलता से घर, गाँव, जाति आदि का वैभव बढ़ा रहा है।

यह हमारे समाज का एक ऐसा ट्रेंड है जिसमें गहराई से देखने पर आपको अंदाज़ा होगा कि इस वैभव का सबसे बड़ा दुश्मन चाहे-अनचाहे संविधान को बना दिया गया है क्योंकि इस सफलता के वैभव में वह कुछ ऐसा व्यवधान पैदा कर देता है जिससे घर, गाँव, जाति और रिश्तेदारों का ज़ायका खराब हो जाता है। आप समझते रहिए कि जिस संस्थान से पढ़कर बेटा सफलता के अध्याय लिख रहा है वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संविधान में भरोसा रखने वाली किसी सरकार की देन है, परंतु उसका वैभव इतना विराट है, उसकी सफलता इतनी ऊंची है कि जिसके सामने ये संविधान, समानता, बंधुत्व, न्याय सब गैर-ज़रूरी हैं या बना दिये गये हैं।

संविधान का आर्टिकल-14 तो उसकी कलाई पर बंधी रोलेक्स घड़ी के बराबर भी नहीं है। उसके रे-बन चश्मे के रुतबे पर आर्टिकल-19 कुरबान। उसके जिमयाफ्ता शरीर पर सजी पीटर इंग्लैंड की बुशशर्ट की बखत और संविधान की प्रस्तावना का कोई जोड़ है क्या? न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका से कभी कोई वास्ता रखना पड़ा है क्या उसे, जो उनकी तरफ देखेगा? और जब वो नहीं देखेगा तो सोचिए उसे कितनी बड़ी सहूलियत मिल जाती है! ये सफलताएं अपने आसपास कितनी बख्तरबंद सहूलियतें खड़ा कर लेती हैं। चाक-चौबन्द। कोई खलल नहीं। सफलताओं के वैभव चैन की नींद सो सकते हैं।

गौर से देखें तो एक बड़ा वर्ग ऐसे ही तैयार हुआ है, जिसके लिए पूरी व्यवस्था के जो सह-उत्पाद यानी बाय-प्रोडक्ट हैं वे उसी के उपभोक्ता के तौर पर तैयार किये गये हैं। यही वर्ग है जो अपने इस वैभव की सुरक्षा के लिए ‘आयेगा तो फलाने ही’ करता रहा है। यही वो वर्ग रहा है जो बहुसंख्यक होने के नाते डर में जीने का ढोंग रचता है। यही वो मन-मस्तिष्क है जो ‘हाउडी और नमस्ते’ जैसे आयोजनों को अपनी करतल ध्वनियों से सफल बनाता रहा है। यही तो हैं वो जिन्हें लगता रहा है कि बचेंगे तो हम ही।

इनके जन्म लेने के मुहूर्त में नक्षत्र बड़े अच्छे संयोग में थे। इन्हें मेरिट से मतलब है लेकिन मेरिट के लिए ज़रूरी संसाधनों और सुविधाओं को लेकर कभी कोई खयाल गलती से भी इनके ज़ेहन के दरवाजे पर दस्तक नहीं दे सकता। इनके घरों के साथ-साथ इनके ज़ेहन के दरवाजों पर भी सीसीटीवी के पुख्ता इंतजामात किये जा चुके हैं। मजाल कि कोई ऐसा अनामंत्रित खयाल बिना किसी दरयाफ़्त के अंदर प्रवेश पा ले!

Illustration courtesy Moneyguru, Medium

इस चाक-चौबन्द सुरक्षा में अब पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था जैसे खयाल ने सेंधमारी की है। पाँच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का खयाल किसी बहुरूपिये की तरह इनके ज़ेहन में घुसपैठ कर गया है। इस खयाल मात्र ने इनके दिलो-दिमाग में कितनी प्रकार की सुभाषित बाँछें (श्रीलाल शुक्ल के हवाले से, जो शरीर में कहीं भी हो सकती हैं!) खिला रखी थीं कि उसके लिए इन्होंने हर उस बात का समर्थन किया जहां इनसे कुछ विरोध की उम्मीद इस देश के लोग कर रहे थे।

आज जब पाँच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का खोखला खयाल आज़ादी के बाद से सबसे बुरे दौर की तरफ हमें धकेल चुका है, तब ऊंचे इरादों और संकुचित तासीर से बुने गये इनके वैभव को उसी नाव में सवारी के लिए अभिशप्त होना पड़ा है। अब भी हालांकि एक जैसे वैभव के कई हज़ार मुसाफिर यह सोच कर खुश हैं कि इस डूबती नाव में वे तो उस तरफ सवार हैं जहां छेद नहीं है। यानी पानी तो नाव में घुसेगा पर उनकी जानिब नहीं आयेगा और वे सुरक्षित रह जाने वाले हैं।

इन्हें अब भी ये गुमान है कि जिस न्यू इंडिया को बनाने में इनके मौन ने बेहद मुखरता से काम किया, इनके वैभव और अर्जित सफलताओं ने उसे खाद-पानी दिया और इनके जिस आभामंडल ने इनके अनुसार नक्षत्रों की दिशाएँ बदल दीं- उसके सुस्वादु फल को चखने का मौसम अब आ गया है। कोरोना न आता तो फसल का मौसम ऐसा बेनूर न बीतता- यह कहकर मन को समझा तो ले रहे हैं पर आस अब भी कहीं अटकी हुई है।

हर अच्छे उत्पाद के उपभोक्ताओं की तरह इनके लिए देश का लोकतन्त्र भी एक अच्छा उत्पाद साबित हुआ है, लेकिन हर उत्पाद की तरह उसमें भी आरएण्डडी यानी अनुसंधान और विकास की ज़रूरत की तरह ये इस दौर को देख रहे हैं, जिसके मुख्य अनुसंधानकर्ता के रूप में नरेंद्र मोदी नेतृत्व दे रहे हैं। इनकी रुचि दोनों में है।

इसलिए जब एक अहमक़ नेता इनकी जमात के कम्यूनिकेशन इंजीनियर्स और अन्य कामों मे मुब्तिला कर्मचारियों को देशद्रोही कहता है, दूरसंचार तकनीकी की सबसे पुरानी सरकारी कंपनी बीएसएनएल को कलंक कहता है, तब ये उसे महज़ आरएण्डडी की एक प्रक्रिया मानते हैं और इसलिए इस बयान को ज़रूरी मानते हैं।

लोकतन्त्र को महज़ एक उत्पाद के तौर पर नहीं देखने वाले लोग जब देश के एक बड़े अदीब, दरवेश और शायर को श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं जबकि ढेरों अहमक़ उन्हें गालियों से विभूषित कर रहे होते हैं, तब भी ये लोकतन्त्र जैसे उत्पाद में हो रहे उत्पाद सुधार की मुहिम की तरह इसे देखते हैं और धैर्य से अगले चरण की प्रतीक्षा करते हैं।

अगर कभी मन विचलित हुआ कि मार्केटिंग डिपार्टमेंट कम खपत की बात कर रहा है, तो अनुसंधान और विकास का नेता उन्हें कल्पनाओं के समुंदर में ले जाता है कि सोचो! क्या 2014 से पहले हम कोरोना का ठीक से सामना कर पाते? फिर इनका क्षणिक विचलन थिर हो जाता है। ये वहीं ठहर जाते हैं जहां ये रहना चाहते हैं।

इनकी उम्मीदें तब तक जिंदा हैं जब तक अनुसंधान करते-करते पुराना उत्पाद किसी काम का नहीं रह जाएगा; या फिर नया उत्पाद पुराने से बेहतर साबित नहीं हो जाता अथवा कोरोना की आड़ में इनके लिए इनकी अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए निर्बाध रास्ते नहीं बन जाते।

इनका भरोसा तब तक जिंदा रहने वाला है जब तक विपक्षी दलों का ज़ोर परशुराम की मूर्तियों पर लगा रहेगा। इनका भरोसा तब तक कायम रहेगा जब तक इस उत्पाद सुधार की मुहिम के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को सलाखों में कैद किया जाता रहेगा। इनका इत्मीनान तब तक ज़िंदा रहेगा जब तक पिछली पीढ़ियों के संघर्ष का हासिल यह लोकतन्त्र, इस अनुसंधान के आगे खेत नहीं हो जाता।



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