“बाबरी के बाद प्रगतिशील लोगों ने कश्मीर को मुस्लिम बहुसंख्यक का मुद्दा समझ कर गलती कर दी”!


कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने की पहली बरसी पर फिल्मकार संजय काक से जितेंद्र कुमार की बातचीत

(लिप्यंतरण अंकुर जायसवाल)

आज हम कश्मीर के मामले पर बात कर रहे हैं संजय काक से. संजय काक डॉक्युमेंट्री फिल्ममेकर हैं और उन्होंने कश्मीर पर एक किताब लिखी थी. करीब आठ साल हो गये हैं लगभग. बहुत अच्छी किताब थी और कश्मीर के ढेर सारे पहलुओं पर उसमें बात की थी. फिर अभी तीन साल पहले कश्मीर पर जो फोटोग्राफी हुई है, उसकी एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब है जिसमें से दो फ़ोटोग्राफर को पुलित्जर अवार्ड मिला था. मेरी समझ से चूँकि मैं फोटो को अच्छी तरह नहीं समझता लेकिन फिल्म को थोड़ा समझता हूँ. संजय काक ने एक बहुत महत्वपूर्ण डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई थी “जश्न-ए-आज़ादी”. हर एक आदमी को यह फिल्म देखना चाहिए. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म है, खासकर के कश्मीर की समस्या को समझने में.

एक साल हो गया है कश्मीर से धारा 370 को हटाए हुए और कल पांच तारीख है.. पूरा साल भर… तो कश्मीर क्या है और कश्मीर में कैसे हुआ और अब क्या हो रहा है. और कश्मीर का भविष्य क्या होगा? इस पर हम बात करेंगे. तो संजय जी बहुत-बहुत शुक्रिया आपका.

शुक्रिया जितेन्द्र जी.

तो सर कश्मीर पर एक बेसिक… मतलब भारतीय जनता पार्टी की जो सरकार है, जो आरएसएस की सरकार है, इनका स्लोगन भी था कि 370 हम हटाएंगे और अब 370 को उसने हटा दिया है. अभी आपने आउटलुक में जो इन्टरव्यू दिया था कि वो कश्मीर का समाधान नहीं है, वो इंडिया के लिए भी बहुत जरूरी है कि समाधान हो. उससे एक हफ्ते पहले राम माधव का एक इन्टरव्यू है वहां. और राम माधव कहते हैं कि 370 हटने से लोकतंत्र कितना मजबूत हुआ है इस देश में. तो आप क्या देखते हैं? 370 का हटना किस रूप में है? मतलब, एक तो कह रहा है कि लोकतंत्र मजबूत हुआ और दूसरा आपका क्या टेक है उसमें?

देखिए अनुच्छेद 370 जो है. वो कश्मीर का और भारत के बीच के रिश्ते का एक तरीके से हम मानें तो लिंक था. सच मानें तो पिछले पचास एक साल में एकदम उसे खोखला कर दिया गया था. तो मुझे लगता है कि कुछ भी उसके पहलू जिनका कोई महत्त्व हो अब उसमें बाकी नहीं रह गये थे. तो अनुच्छेद 370 में जो बचा था, दो-तीन चीज थी। वो ज्यादातर आर्टिकल 35ए से जुड़े हुए हैं. वो था कि एक स्टेट सब्जेक्ट की आइडेंटिटी थी और स्टेट में जमीन की खरीद-फरोख्त और सरकारी नौकरियों पर जो था वो स्टेट के सब्जेक्ट्स जो थे, उनके लिए वो आरक्षित थे. तो हम असली में अगर अनुच्छेद 370 को देखें तो भारत ने पिछले पचास साल में अनुच्छेद 370 को एकदम बेमायने कर दिया था. वो एक बिलकुल खोखला सा शेल था. सांकेतिक था, लेकिन एक बहुत ही जरूरी चीज का संकेत था कि जम्मू-कश्मीर, पार्टीशन के टाइम से यह मामला अभी सेटल नहीं हुआ है, उसी चीज का एक संकेत था. और इसमें कई पहलू थे. और वो सिर्फ इंटर्नल पहलू नहीं थे. इसके कई एक्सटर्नल पहलू भी थे. और आज की डेट में अगर हम मानें तो जो भारत और चीन के बीच में जो टेंशन्स उभर कर सामने आये हैं, एक तरीके से अनुच्छेद 370 को हटाने का उसमें बहुत अहम रोल है. जो जानने वाले हैं उन्होंने तभी एक साल पहले यह नोट किया था कि बाकी किसी सरकार ने इसके बारे में कुछ कहा हो या नहीं कहा हो लेकिन चायनीज गवर्नमेंट ने बहुत क्लीयरली कहा कि भाई आपने इसे हटा दिया इसका मतलब जो यूएन रिजोल्यूशंस जे एंड के के तहत अप्लाई करते थे अब हम उनको मानते हैं कि रद्द कर दिया गया है. तो कहने का यह मतलब है कि जो सिम्बोलिक वैल्यू या सांकेतिक वैल्यू जो था अनुच्छेद 370 का उसको तो आपने हटा दिया, लेकिन आपमें यह क्षमता नहीं है यह समझने की कि यह जम्मू और कश्मीर का जो मामला है वो आप कह रहे हैं कि विवादित नहीं है, उसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया भर लोग यह समझते नहीं है कि यह विवादित है. विवादित था और विवादित रहेगा, जब तक कि इसका कोई समाधान नहीं निकलेगा. तो मैंने चाइना का इसलिए बताया आपको क्योंकि जैसे ही आपने 370 हटा दिया और जम्मू और कश्मीर को दो यूनियन टेरेटरीज में बांट दिया तो चीन ने इमिडीएटली कहा कि हमारा तो लदाख के ऊपर हक है. तो मैं समझता हूं कि भाजपा या आरएसएस के दिल में अनुच्छेद 370 हटाना बहुत ज्यादा अहमियत रखता जरूर हो लेकिन शायद वो जो उनके बुद्धिजीवी हैं और जरूर होंगे.. कहीं तो छिपे होंगे उनके बुद्धिजीवी.. तो उन्होंने शायद इस पर कभी गौर नहीं फरमाया कि यह जो मुद्दा है यह सिर्फ पाकिस्तान और इण्डिया के बीच में नहीं है. इसमें चाइना भी इन्वोल्व है और मैं समझता हूँ कि आज 370 हटाने के एक साल बाद और चीन के साथ यह जो नया टेंशन खुल चुका है, इनका बहुत ही गहरा संबंध है.

अच्छा, इसको एक साल पूरा हो गया है. मतलब जुलाई के अंत में अमित शाह ने लोगों को खाली कराना शुरू किया कि निकलो.. जो तीर्थयात्री वहां थे उनको वहां से निकाला वगैरह, लेकिन उसके बाद बहुत से इस देश के जो पुराने लिबरल लोग हैं.. जो किसी तरह से नेहरूवियन विचार में विश्वास करते हैं, उन लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 370 ख़त्म होगा. उनको लगा था कि यह सरकार कुछ तो करेगी ऐसा-वैसा लेकिन 370 के बारे में नहीं सोचा था। वो लोग भी सदमे में रहे. लेकिन कश्मीरी जो लगातार एसर्ट करता रहा.. एक.. या तो मीडिया में खबर नहीं है.. और या वो सचमुच चुप ही है. या यह तूफान से पहले की चुप्पी है. वहां है क्या?

देखिए.. जब 5 अगस्त, 2019 को 370 हटाया गया, उसके पहले क्योंकि मैं खुद उन दिनों श्रीनगर में था, मैं खुद अमरनाथ यात्रा कर के लौटा था क्योंकि मैं उसके बारे में कुछ लिखना चाहता हूं किसी दिन.. तो माहौल जो था.. वो मुझे लगता है कि दस-पंद्रह साल में उस तरह का माहौल किसी ने नहीं देखा था. सिर्फ यह बात नहीं थी कि तीर्थयात्रिओं को लौटा दिया गया या पर्यटकों को लौटा दिया गया. कश्मीर में जो सेना तैनात होती है खासकर गाँव में, घाटी में, गाँव-कस्बों में, उसकी भी जो संख्या थी वो बहुत बढ़ा दी गयी. गिरफ्तारियां जो थीं उनकी कोई सीमा नहीं थी. मतलब आप यह मानिए कि कहा जाता था कि जो बन्दा किसी गाँव या किसी मोहल्ले में जिसको दस से ज्यादा लोग दुआ-सलाम भी जिसके साथ करते हैं उसको भी उठा के अन्दर कर दिया था. और यह सिर्फ जो सेपरेटिस्ट या अलगाववादी पोलिटिकल तबका है उसकी बात नहीं कर रहे हैं, जो प्रो-इण्डिया तबका भी है. अब देखिए फ़ारुख अब्दुल्ला से लेकर उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती तीनों स्टेट के चीफ मिनिस्टर रह चुके हैं उनकी पार्टियां जो हैं नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी उनका पूरा काडर.. तो कुल मिला के हम यह मानें कि कश्मीर घाटी का जो सियासी तबका या पोलिटिकल क्लास जो है उसको पूरी तरह से अरेस्ट किया जा चुका था और वो लोग कोई तीन महीने के बाद छोड़े गये, कोई छः महीने के बाद और महबूबा मुफ़्ती जो हैं वो अभी भी अन्दर हैं. तो एक तो आपने सेना तैनात की, दूसरे आपने पोलिटिकल क्लास को हटा दिया और तीसरी बात जो कम्युनिकेशन ब्लैकआउट किया आपने – पहले तो आपने लैंडलाइन भी काट दी, मोबाइल भी काट दिया, इंटरनेट काट दिया. तो अफवाहों को छोड़ कर और कुछ नहीं था.. तो लोगों का मोबलाइजेशन जो होता है उसके क्या तरीके होते हैं? या तो आप… आजकल तो लोग फोन पर या व्हाट्सएप पर करते हैं मोबलाइजेशन, या फिर फिजिकल, आप घर से बाहर निकलें मोहल्ले में जाएं. यह सब जो था बिलकुल ही.. मतलब उसकी कोई पोसिबिलिटी ही नहीं छोड़ी थी. और यह बहुत महीनों तक चला. कम से कम तीन एक महीने तक सख्ती थी वहां. एक तो आपने सेना तैनात की, दूसरी बात आपने पोलिटिकल क्लास को बंद कर दिया, तीसरा आपने कम्युनिकेशन के जो साधन थे वो बंद कर दिया। चौथी बात – कश्मीर के लोग, मुझे लगता है कि यह समझ गये थे कि इस बारी सड़क पर आने से कोई फायदा नहीं होगा. क्या होगा.. लोग सड़कों पर आएंगे, पचास, सौ हो सकता है डेढ़ सौ, दो सौ नौजवान मारे जाएंगे.. कुछ महीनों-हफ़्तों के लिए हड़बड़ी रहेगी.. और फिर लोग एक बारी थक के फिर सहम जाएंगे. तो इसका उल्टा हुआ.. लोग नहीं निकले और जो सिक्योरिटी फोर्सेस थीं वो थक गईं इन्तजार में कि कब कुछ होग. तो अगस्त से लेकर सितम्बर से लेकर अक्तूबर.. जब तक कि बरफ और ठण्ड पूरी तरह से पकड़ नहीं लेती है घाटी को तब तक यह लोगों की जो चुप्पी थी, वही जो है सिक्योरिटी एपरेटस को थका रही थी. क्या इसका मतलब है कि लोग पीछे हट गये हैं? बिलकुल नहीं. मैं समझता हूँ कि यह जो एक-एक कदम भारतीय सरकार लेती है कश्मीर के संदर्भ में उससे जो भी कंस्टीट्यूएन्सी कश्मीर में थी जो इण्डिया के पक्ष में रही है, उसे भी आपने और बीस-पचीस साल के लिए मोल ले ली है.

अच्छा.. यह जो कश्मीर के मसले पर भारतीय मानस की चुप्पी.. मुझे जो खासकर के हम जो इंटेलेक्चुअल एक्टिविटी देख रहे हैं अखबारों में, पता नहीं मीडिया ने ऐसा रुख क्यों अख्तियार किया. मेरा मानना है कि मालिक की सहमति है. लोग कह रहे हैं कि एडिटर की सहमति है. मुझे लगता है कि मालिक कंट्रोल्ड है गवर्नमेंट के द्वारा. इस चुप्पी को आप किस रूप में देखते हैं?

हम बुद्धिजीवियों पर बाद में आते हैं, पहले एक समाज के तौर पर यदि हम देखें तो कश्मीर के मुद्दे को एक तरीके से भारत-पाकिस्तान का इश्यू बनाने में भारत सरकार शुरू से ही बहुत सफल रही है. और क्योंकि पाकिस्तान को एक दुश्मन के रूप में देखना सिर्फ राइट विंग का दायित्व नहीं था, यहां पर लिबरल-प्रोग्रेसिव-लेफ्ट-वामपंथ सब जो थे उन्हें पाकिस्तान को एक दुश्मन के रूप में देखने में कोई दिक्कत नहीं थी, तो कश्मीर का जो मसला है वो इन दोनों के बीच में कहीं दबा दिया गया था. अगर हम फिफ्टीस से देखें और तीस-चालीस साल तक जब तक कि आर्म्ड इन्सरजेंसी नहीं उठी, कश्मीर में नब्बे के दशक में तब तक कोई दिलचस्पी ही नहीं थी. अगर आप देखें कि कुल मिला कर कितना यूनिवर्सिटीज़ में काम किया गया है, हिस्ट्री में क्या निकाला गया है, किस तरह का रिसर्च हुआ है? तो जहां मुग़ल इण्डिया पर कम से कम तीन हजार पीएचडी किए गए होंगे उस दौरान कश्मीर पर पांच या दस किये गये होंगे. तो यह था कि जो एकेडमिक कम्युनिटी थी और जो स्कोलरली कम्युनिटी थी, जो इंटेलेक्चुअल कम्युनिटी थी उनके लिए यह बहुत आसान तरीका था कि यह उनका पाकिस्तान के साथ कोई मुद्दा है और यही है. तो नब्बे के बाद इसमें फर्क आने लगा. लोग जाने लगे.. कुछ अच्छी फैक्ट-फाइंडिंग टीम गईं नब्बे की शुरुआत में भी. लेकिन धीरे-धीरे यह क्या हुआ कि.. यह मेरी निजी समझ है कि बाबरी मस्जिद को तोड़ने के बाद जो यहां का लिबरल-प्रोग्रेसिव तबका है वह जुट गया एक ही काम में कि मेजोरिटेरियन कम्युनलिज्म से हम कैसे लड़ें? अब वो लड़े कि नहीं लड़े यह दूसरी बात है, लेकिन वह अपना एक रोल समझते थे. उसमें कश्मीर जो है वह एक तरीके का चैलेन्ज था क्योंकि उनकी समझ में कश्मीर में जो हो रहा है वह भी एक तरह से मुस्लिम मेजोरिटेरियनिस्म का मुद्दा था. समझ रहे हैं आप? ऊपर से फिर बात हुई कि कश्मीरी पंडितों का वहां से जो पलायन हुआ. तो उसे भी जिस तरह पेश किया गया तो वह इस तरह पेश किया गया कि यह देखो मुसलमानों ने उनको वहां से निकाल दिया है. सच्चाई उसकी क्या रही होगी उसे आप रहने दीजिए. उसको इस तरह से पेश किया और जो भारत का इंटेलेक्चुअल क्लास है, उन्होंने उसी को उसी तरह एक्सेप्ट भी कर लिया. इसमें चेंज आने लगा तो मैं समझता हूँ कि पिछले दस एक पंद्रह साल में. धीरे-धीरे यूनिवर्सिटीज में स्टूडेंट्स आ रहे हैं. कश्मीरी स्टूडेंट्स रिसर्च कर रहे हैं. गैर-कश्मीरी स्टूडेंट्स रिसर्च कर रहे हैं. स्कोलरली वर्क आ रहा है. यूनिवर्सिटीज़ में चर्चा हो रही है. तो आज के डेट में मैं समझता हूँ कि नई पीढ़ी जो निकलेगी इण्डिया में इंटेलेक्चुअल्स की उनमें आप वो साइलेन्स आप नहीं पाएंगे.

मुझे याद है कि 2010 में जब कश्मीर में बहुत जबरदस्त प्रोटेस्ट चल रहे थे, सिविलियन प्रोटेस्ट. तो दिल्ली जैसे शहर में युनिवर्सिटीज में हर दो हफ्ते मीटिंग हुआ करती थी. दिल्ली युनिवर्सिटी में खुद मैंने दो-तीन मीटिंग अटेंड की होंगी, जेएनयू में दो-तीन, जामिया में दो. तो इस तरह की जो उत्सुकता थी, जानने के लिए कि यह क्या हो रहा है कश्मीर में, मैं समझता हूँ कि इसमें बदलाव आने लगा था. लेकिन जिस तरह कि सिर्फ कश्मीर नहीं अब तो किसी भी मुद्दे पर यूनिवर्सिटीज नहीं, इंटेलेक्चुअल सर्कल में या प्रोग्रेसिव सर्कल में बात करना धीरे-धीरे बहुत मुश्किल हो रहा है, तो कश्मीर का मुद्दा एक बार फिर दब गया, दबा दिया गया. फर्क यही था कि अगर हम 1950 से लेकर 2000 तक जो पचास साल हैं, अगर इंटेलेक्चुअल क्लास ने उसे इग्नोर किया कश्मीर के मुद्दे को, तो अब जब उनकी उत्सुकता बढ़ी थी तब उसको दबा दिया गया था. स्टेट की तरफ से प्रेशर कर के.

कश्मीरी पंडितों की सच्च्चाई क्या है? मतलब गवर्नमेंट ने जो पोर्ट्रे किया है कि उनको भगा दिया गया जबकि अच्छी तरह मैं जानता हूँ इस बात को कि जगमोहन जब वहां पर गवर्नर थे उन्होंने कहा था कि आप लोग कुछ दिनों के लिए जाइए. मतलब वीपी सिंह के समय. लेकिन इसके अलावा मुझे भी नहीं पता है कि कश्मीरी पंडित का मसला है क्या…

देखिए, एक तो मैं यह जो जगमोहन वाला एक्स्प्लनेशन है, यह शायद जरूर सच भी रहा होगा लेकिन इसे अक्सर लोग एक बहुत ही आसान कवच के तौर पर उठा लेते हैं जब कश्मीरी पंडितों के पलायन की बात होती है. आपने पूछा कि कश्मीरी पंडितों का सच क्या है? सच तो आप जानते हैं कि किसी भी मुद्दे में कोई एक सच नहीं होता. सच के कई पहलू होते हैं. अगर मैं आपसे यह सवाल पूछूं कि भारत और पाकिस्तान के विभाजन का सच क्या है? क्या आप मुझे एक जवाब दे पाएंगे? नहीं दे पाएंगे. उसके कई सच हैं और वह सच इस पर निर्भर करता है कि कौन आपको वह कहानी बता रहा है. अब आएं कश्मीरी पंडितों के ऊपर, तो सच इतना ही हम कह सकते हैं कि दो लाख करीबन कश्मीरी पंडित जो थे वे 1990 और 2000 के बीच में कश्मीर छोड़ कर के गये. इसमें से कुछ हो सकता है कि पचास-साठ हजार पहले साल में गये हों, कुछ एक लाख के करीब अगले एक-दो साल में गये हों. और कुछ जो थे, जैसा मैंने आपको कहा 2000 तक थोड़े-थोड़े इंस्टालमेंट्स ने निकलते गए. यह जरूर है कि जिसका मैं बड़े कांफिडेंटली खंडन कर सकता हूँ कि ऐसा नहीं हुआ कि एक रात को कुछ ऐसा भूचाल आया कि हर कश्मीरी मुसलमान अपने हर कश्मीरी पंडित के खिलाफ हो चुका और मस्जिदों से आवाजें निकलने लगीं और एक ही रात को दो लाख लोग निकल गये. ऐसा तो नहीं हुआ. तो अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर जो हम सच जो ढूंढ रहे हैं उसके कई अंश हैं – यह सच है कि जगमोहन ने खासकर सरकारी मुलाजिम जो थे उनको कहा कि आप अभी जाइए. यहां हालात बहुत खराब हैं, आपको प्रोटेक्ट नहीं कर सकते, जाइए जब हालत ठीक हो जाएं तो वापस आ जाइए.

यह भी सच है कि कुछ लोग थे जो मारे गये थे कश्मीरी पंडित और जिनको बोलते हैं नामालूम बंदूकदार कश्मीर में, एनोनिमस गनमैन से, तो लोग डर से ख़ासतौर से उन इलाकों से पलायन करना शुरू हो गये. कुछ यह भी था कि बहुत सारे लोग.. कश्मीर में ऐसी अफरा-तफरी मची हुई थी कि सिर्फ कश्मीरी पंडित ही नहीं पलायन कर रहे थे, कश्मीरी मुसलमान भी पलायन कर रहे थे. अगर आप आंकड़े देखिए तो जितने कश्मीरी पंडित कश्मीर को छोड़ कर गये उससे कहीं ज्यादा कश्मीरी मुसलमान छोड़ कर के गये. मैं तो यह कहने को तैयार हूँ कि नब्बे के दशक की शुरुआत में जो एक पढ़ा-लिखा तबका था- हमारे जो डॉक्टर थे, इंजीनियर थे, जिसके भी घर में हैसियत थी उन्होंने उनको कश्मीर से निकाल के विदेश भेज दिया. तो आज जो कश्मीरी डॉक्टर या इंजीनियर यूनाइटेड स्टेट्स, योरप और आस्ट्रेलिया में बिखरे हुए हैं वो कौन हैं? वह वही हैं जिनके परिवारों के पास थोड़ा-बहुत पैसा-वैसा था तो उनको भेज पाये.

तो यह फिर से जुड़ता है.. यह जो पलायन है उसको मैं फिर से जोडूंगा 92 में बाबरी मस्जिद को तोड़ने के साथ क्योंकि उस वक्त भारत में जो माहौल था वह पहली बारी यह जो हिंदुत्व का उबाल एक तरह से आया था, तो कश्मीरी पंडित जो थे वह कश्मीर से निकले और सीधे उस उबाल के बीच में अपने आप को पाया उन्होंने. अब यह दूसरी बात है कि शायद उनका भी एक राजनीतिक दायित्व बनता था कि वह सोच कि यदि कोई आपको अपनी साइड में लेना चाहता है तो आपके ऊपर भी निर्भर है न कि आप उनको अपनाना चाहते हैं कि नहीं तो शायद उनकी अपनी भी सिम्पैथीज़ रही होंगी.. तो एक तरीके से कश्मीरी पंडित और हिंदुत्व पोलिटिक्स का एक बहुत ही गहरा संबंध बन चुका था. कश्मीर में जिस तरह के ऑर्गेनाइजेशन थे वह कुछ छुपाते भी नहीं थे कि उनकी सोच क्या थी; वह क्या समझते थे कि कश्मीर का फ्यूचर कैसा होना चाहिए. तो इससे क्या हुआ कि अगर आप कश्मीर में बैठे हों, जहां आपको लग रहा है कि आपकी टक्कर एक तरीके से एक हिन्दू इण्डिया के साथ है और जो कश्मीरी पंडित हैं उनके साथ एलाइड हैं तो इसमें बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एक तरह की जो एंग्जाइटी थी वह दोनों तरह में थी. अगर कश्मीरी पंडितों की एंग्जाइटी थी कश्मीरी मुसलमानों के प्रति कि यह लोग किस तरह का कश्मीर बनाना चाहते हैं क्योंकि उस पर भी कोई स्पष्टता नहीं थी, उतनी ही कश्मीरी मुसलमानों की थी कश्मीरी पंडितों और भारत के प्रति कि इनका क्या.. यह क्या सोच रहे हैं हमारे प्रति. तो एक बहुत ही पेचीदा मामला था और बीसेक साल में उसमें कभी कोई ऐसा नहीं.. किसी ने कोई ऐसी मुहीम नहीं चलायी कि इसको तोड़ा जाए. अब इसमें हैं गिने-चुने.. अब जैसे कश्मीर में आज भी चार-पांच हजार कश्मीरी पंडित रहते हैं न.. और वो सिर्फ श्रीनगर में नहीं रहते, कैम्पों में नहीं रहते.. उनमें से कई जो हैं जो छोटे-छोटे गाँव में कहीं एक घर हैं.. कहीं दो घर हैं.. कहीं तीन घर हैं.. उन्हें तो कभी किसी ने कुछ नहीं कहा.. दुकानदार हैं श्रीनगर में, कई किस्म के लोग हैं. तो यह मैं मानूंगा कि कश्मीर के मुद्दे के लिए बाकी कुछ भी हो लेकिन कश्मीरी पंडितों का वहां से निकलना एक बहुत ही गहरा.. एक चोट है. मैं आरोप नहीं कहूँगा, इसको मैं चोट कहूंगा क्योंकि उसका किसी एक के ऊपर जो है.. न तो जगमोहन के ऊपर हम उसका ब्लेम थोप सकते हैं न ही कश्मीर घाटी के लोगों पर. न ही कश्मीरी पंडितों के खुद के ऊपर कि आप निकल गये क्योंकि आप डर गये. ऐसा भी नहीं सच होगा. सच जो है वो इन सब चीजों के मिश्रण से निकलेगा.

अच्छा, जब 370 ख़त्म किया गया तो किसी भी राजनीतिक दल ने आउटराइटली उसको खारिज नहीं किया. मतलब इफ-बट-लेकिन-परन्तु-यह है-वह है! तो क्या पोलिटिकल बैंकरप्सी का फेज इस तरह से पहुंच गया है कि हिंदुत्व में ही सब समाधान ढूंढा जाने लगा?

मैं आपसे पूछुंगा कि आज हम बात कर रहे हैं कि कल पांच अगस्त है, कल प्रधानमंत्री अयोध्या जा रहे हैं मंदिर के शिलान्यास के लिए तो क्या इस मुद्दे पर किसी पोलिटिकल पार्टी ने खुल कर कोई स्टेटमेंट दिया है? नहीं. तो यह मैं समझूंगा कि यह हिंदुत्व की जो राजनीति है उसकी सफलता रही है कि उन्होंने पब्लिक डिस्कोर्स को इस तरह से एक तरीके से कब्जे में ले रखा है कि ओपोजीशन जो हो और मैं सिर्फ कांग्रेस की बात नहीं कर रहा हूं, मैं वामपंथ की भी यहां बात कर रहा हूं- इन अहम मुद्दों पर यह उनको इस तरह से पैरलाइज कर के छोड़ते हैं कि उस पर अगर वो कोई पोजीशन ले तो आप उनको एंटी-नेशनल बोल देंगे. तो यही है कि अगर आप आर्टिकल-370 को हटाने के खिलाफ में हैं तो इसका मतलब कि आप भारत के खिलाफ हो चुके हैं. तो सच्चाई बिलकुल इसकी है नहीं, लेकिन इनकी सफलता हमें माननी चाहिए हमको कि यह इस तरह कर पाये.

और लास्ट सवाल! क्या आप कश्मीर का कोई समाधान देखते हैं? मतलब इण्डियन कांस्टीट्यूशन के इर्द-गिर्द? मतलब कश्मीर अलग हो जाएगा और अलग देश बन जाये इसके इतर भी कोई समाधान है?

देखिए, कश्मीर.. भारतीय संविधान.. आप और मेरे जैसे लोग जो हैं और जो तबका जिसकी आप बात कर रहे थे जो प्रोग्रेसिव-लिबरल या वामपंथी हैं, वह सब कांस्टीट्यूशन को एक तरीके से एक बहुत ही इगैलिटेरियन और इमैन्सिपेटेड डॉक्यूमेंट के तौर से देखते हैं लेकिन कई रिसर्चर्स ने बहुत ही बारीकी से इसको देखा है. कश्मीर में जो भी कुछ अभी तक हुआ है, वह गैर-संवैधानिक नहीं है. वहां जो आपने ज्यादतियां की हैं.. उनको आप ही के इस कांस्टीट्यूशन के किसी न किसी सेक्शन को लेकर वहां आपने लोगों पर किया है. तो आपके लिए यह कांस्टीट्यूशन जो है, संविधान जो है, यह बहुत ही अहमियत रखता हो लेकिन कश्मीर के लोगों का जो अनुभव है उस कांस्टीट्यूशन का वो ऐसा नहीं है जो आप इमैजिन करते हैं, जिसकी आप कल्पना कर रहे हैं कि हमारा जो कांस्टीट्यूशन इतना बढ़िया है और इतना पाक है और इतना.. क्योंकि उसी कांस्टीट्यूशन ने कश्मीरियों को पचास साल तक उसमें जकड़ कर रखा है. कुछ साल पहले तक मैं अक्सर इस सवाल का जवाब देता था कि कश्मीर में डेमोक्रेसी की जरूरत है और अगर आप डेमोक्रेसी नहीं वापस लाएंगे तब तक आप यह नहीं जान पाएंगे कि समाधान किस डायरेक्शन में होना चाहिए और लोग खुद के लिए यह नहीं जान पाएंगे कि क्या उनका जो भविष्य है वह इण्डिया के साथ है, वह इंडिपेंडेंट है या कोई तीसरा कोई.

आज की डेट में जो क्राइसिस है वो भारत के बीच में क्राइसिस इतना बड़ा है, मैं यह नहीं समझता हूं कि जब तक कि जिस तरह का कांस्टीट्यूशनल और एक सोशल क्राइसिस जो इस वक्त भारत को जकड़े हुए है… और 5 अगस्त के अयोध्या का शिलान्यास जो है बहुत ही तगड़ा प्रतीक है… तब तक कश्मीर का जो मुद्दा है उसके ऊपर कोई भी नजर नहीं जाएगी. उसका मतलब यह नहीं कि कश्मीर में जो लोग हैं वो चुप बैठेंगे. कुल मिला कर मैं समझता हूं कि अगले दस=पंद्रह-बीस साल का अगर हम होराइज़न देखें तो कश्मीर में अस्थिरता और उसकी वजह से हम भारत में भी.. काफी हद तक उसकी जो गूंज है वो आती रहेगी.

बहुत-बहुत शुक्रिया सर.                      


इस साक्षात्कार का लिप्यंतरण अंकुर जायसवाल ने किया है। पूरा साक्षात्कार नीचे दिए लिंक पर सुना जा सकता है।


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