कोरोना और लॉकडाउन से उपजे संकट के बीच इलाहाबाद प्रशासन ने करीब 25 साल से शहर में जी खा रहे जौनपुर के कुछ विस्थापित परिवारों को आधी रात खदेड़ दिया। विडम्बना यह है कि जौनपुर में इनके मूल गांव में इनका कुछ भी शेष नहीं है। बांस के सामान बनाने वाले अनुसूचित जाति के ये पुरुष, महिलाएं और बच्चे जब गांव पहुंचे, तो गांव वालों ने भी कोरोना के डर से आसरा नहीं दिया। जौनपुर पुलिस ने वापस उन्हें इलाहाबाद भेज दिया। इनकी जिंदगी अब अधर में लटकी है।
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार कोरोना महामारी से जंग लड़ने के लिए जहां हर रोज नये-नये नियम कानून बना रही है और दावा कर रही है कि वह अन्य राज्यों की अपेक्षा इस लड़ाई में अधिक सफल है, वहीं इलाहाबाद में बंसोड़ समुदाय के कुछ परिवारों के साथ इलाहाबाद प्रशासन का ताज़ा अमानवीय रवैया सरकार की कलई खोलकर रख देता है।
पुल ने छीना घर, लॉकडाउन ने बसेरा
ये कहानी शहर के बीच कमला नेहरू रोड पर तम्बू तानकर रह रहे कुछ परिवारों की है जो जौनपुर से 25 साल पहले यहां जीने खाने आये थे। देश भर में 24 मार्च की आधी रात से लॉकडाउन-1 घोषित होते ही इलाहाबाद प्रशासन की तरफ से कोरोना संक्रमण के मद्देनजर इन परिवारों के नजदीकी रामवाटिका गेस्ट हाउस में रहने-खाने की व्यवस्था की गयी थी।
मामला कर्नलगंज थाने का था, तो हमने वहां के थाना प्रभारी से बात की। उनके मुताबिक प्रशासन की तरफ से लगभग एक महीना इन्हें खाना खिलाया गया। फिर एक रात दो पुलिसवाले आये और सभी को बस में भरकर जौनपुर बस अड्डा, देसी चौराहे पर छोड़ दिया गया। थाना प्रभारी इस बात पर अफ़सोस जताते नज़र आये कि पुलिस द्वारा इन्हें जौनपुर छोड़ आने के बावजूद ये लोग फिर से शहर में आ गये।
जौनपुर में तो अब इनका कोई घर नहीं है, इसीलिए ये लगभग 25 साल से सड़क पर रह रहे हैं, यह बताने पर प्रभारी ने कहा, “जौनपुर में इनके गांव का पता है। जब गांव-पता है तो जैसे यहां मज़दूरी कर रहे हैं वैसे जौनपुर में भी कर सकते हैं। जौनपुर में जिस गांव के रहने वाले हैं जैसे भी करके रहें, अब इनको घर बनवा कर तो कोई देगा नहीं। घर बनवा के कौन देगा?”
ख़बर मिलने पर हम कमला नेहरू रोड पर अनुसूचित जाति के बंसोड़ परिवारों का हाल जानने पहुंचे। हमने देखा कि सभी अपने परिवार के साथ खाली बैठे हैं। उनके पास कोई काम नहीं है। बच्चे बिना कपड़े के मिट्टी में खेल रहे हैं। महिलाएं दो चार के समूह में बात कर रही हैं। किसी के मुंह पर मास्क नहीं है। न किसी को इस महामारी के बारे में पता है।
समुदाय के बुजुर्ग जगदीश राम (60) बताते हैं, “हम जौनपुर के ओलनगंज नखास में रहते थे, घर के ऊपर से पुल बन गया। हम लोग 25 साल पहले वहां से इलाहाबाद आ गये। यहीं बांस का काम करके इसी सड़क पर परिवार पालने लगे।”
समुदाय की एक महिला कुसुम बांस के टुकड़ों की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं “यही (बांस) जिंदगी है, कोई काम नहीं चल रहा है। उधार-बाढ़ी, मांग-जांच कर काम चलता है। सरकारी राशन लेने गये तो वहां कह रहे हैं आधार कार्ड और राशन कार्ड लेकर आओ। हमारे पास न आधार कार्ड है न राशन कार्ड है। हम कहां से लेकर आयें?”
न गांव में काम, न शहर में खरीददार
बीते 17 अप्रैल को मुख्यमंत्री कार्यालय से एक सूचना जारी की गयी थी जिसमें स्पष्ट निर्देश था कि “जन वितरण प्रणाली का सार्वभौमिकरण (Universalisation of PDS) किया जाय। इसके तहत यह सुनिश्चित किया जाय कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में प्रत्येक जरूरतमंद को राशन अवश्य मिले, भले ही उसके पास राशनकार्ड अथवा आधार कार्ड न हो।”
अब तक इन लोगों तक किसी प्रकार की मदद नहीं पहुंची है। हमने इस सन्दर्भ में इलाहाबाद के जिलाधिकारी से बात करने की कोशिश की, लेकिन उनसे सम्पर्क नहीं हो सका। राशन के बारे में पूछने पर कर्नलगंज के प्रभारी ने दो टूक कहा, “पुलिस का काम राशन का नहीं है। राशन नहीं पहुंच रहा है तो गांव में जाकर मजदूरी करें, राशन लें। कोई प्राकृतिक आपदा आ गयी तो सरकार इन्हें यूं ही दो-दो साल तक राशन खिलाती रहेगी?”
इन परिवारों पर संकट दुतरफा है। विस्थापित समुदायों पर शोध कर चुके डॉ. रमाशंकर सिंह बताते हैं, “इनकी समस्या पहले से विकराल हो गयी है। अपने जन्मस्थान पर इनके लिए अनुकूल परिस्थितियां पहले ही नहीं थीं। वे लगभग भूमिहीन थे। यदि गांव लौट जाएंगे और बांस का सामान बेचेंगे तो उससे मिले पैसे से दो जून का भोजन भी नहीं जुट पाएगा। मनरेगा है तो वह भी साल भर के लिए नहीं है।”
वे कहते हैं “शहर में भी इनके ग्राहक निम्न मध्य वर्ग के लोग, गरीब और छात्र थे जो उनके द्वारा बांस से बनायी वस्तुएं खरीदते थे। वे सब के सब या तो शहर छोड़कर जा चुके हैं या उनकी क्रय क्षमता ही समाप्त हो गयी है। ऐसे में शहर में भी जीवन मुश्किल हो गया है। इस स्थिति में जिम्मेदार लोगों को बहुत संवेदनशील होने की जरूरत है।”
अधर में जिंदगी
संवेदनशील होने की बात तो दूर रही, पुलिस ने आधी रात बस में इन परिवारों को भरकर 100 किलोमीटर दूर एक ऐसे गांव में छोड़ दिया जहां अब न उनका कोई घर-द्वार है, न कोई परिवार और समाज है। वहां से खदेड़े जाने पर ये बेबस परिवार अपने बच्चों को कंधे पर लादे दोबारा उसी रास्ते पैदल इलाहाबाद की ओर निकल लिए।
इन सभी लोगों का कहना है जब ये जौनपुर पहुंचे और गांव की ओर रुकने के लिए पहुँचे तो गांव के लोगों ने इन्हें कोरोना के डर से गांव में नहीं घुसने दिया। थोड़ी देर बाद जौनपुर पुलिस भी इन्हें भगाने लगी।
सुशीला बताती हैं, “घर दुवार है ही नहीं तो कहां जाएं? जबरजस्ती मोटर (बस) पर बैठा लिये और जौनपुर छोड़ दिये। हम वहां गांव में अपने बिरादर के घर गये तो वे लोग बोले भागो-भागो कोरोना लेकर आये हो। हम लोग जौनपुर से पैदल आये। रास्ते में एक ट्रक मिला जो इलाहाबाद तक छोड़ा”
समुदाय के सदस्य बीरबल (32) बताते हैं, “अधिकारी लोग बोले परिवार को लेकर अपने घर जाओ। हम लोगों को दो पुलिसवालों के साथ बस से जौनपुर बस अड्डे पर छोड़ दिया गया। वहां से पुलिस और गांववाले भगाने लगे। घर रहेगा तब तो घर जाएंगे।”
गौरव इलाहाबाद स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं
दुखांत अब द्रवित नहीं करता,हमारी अपनी दीवारें हैं, अपनी सरहदें।
यहां से ताक झांक लेते हैं कथित तौर पर इसे ही संवेदनशील होना मान लिया जाता है।
यह रिपोर्ट पढ़ते हुए मैं अपने घर में सुरक्षित हूं।
और टिप्पणी कर रहा हूं।
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