आज हर तरफ कोविड-19 का असर साफ दिख रहा है। यह मानवीय जीवन और समाज को काफी गंभीरता से प्रभावित कर रहा है। आगे आने वाले दिनों में बहुत हद तक संभव है कि यह मानवीय सामाजिकता के नए संस्कार, आयाम और प्रतिमान गढ़े। मानव और समाज के बीच पिछले काफी समय से व्यवस्थित रूप से एक खाई बनायी जा रही है। पूँजीवादी व्यवस्था में सामाजिक रूप से मजबूत इंसान व्यवस्था के आदर्शों के अनुकूल नहीं होते। अतः पूँजीवादी व्यवस्था व्यवस्थित रूप से इस समाजिकता के बनावट और संरचना पर प्रहार करती रहती है और उसे लगातार कमजोर करती रहती है। ऐसे में पूँजीवादी व्यवस्था कोविड-19 का इस्तेमाल मनुष्य को समाज से और काटने के लिए कर सकती है। इसी क्रम में हम स्कूली और क्लासरूम शिक्षण प्रणाली पर कोविड-19 के प्रभाव और उससे आने वाले बदलाव पर चर्चा करेंगे।
क्लास रूम को जानें
स्कूली शिक्षण प्रणाली के अंदर ‘क्लासरूम’ का एक अहम् और केंद्रीय स्थान हैं या यूँ कहें कि पूरा ‘स्कूली तंत्र’ ‘क्लासरूम’ के सफल संचालन के इर्द– गिर्द काम करता है।
आखिर ये ‘क्लासरूम’ है क्या और पूरे स्कूली विमर्श के केंद्र में क्यों और कैसे बना रहता है। शिक्षा और शिक्षण व्यवस्था में सदैव से ‘क्लासरूम’ पर नियंत्रण एक शास्त्रीय तथा राजनीतिक चिंतन और विमर्श का हिस्सा बना रहा है। इस वजह से क्लासरूम हमेशा कई तरह के संघर्षों के बीच घिरा रहता है।
साधारण रूप में क्लासरूम एक ‘भौतिक संरचना’ है, जहां शिक्षक और छात्र आपस में मिलते हैं। इस मेल से शिक्षक और छात्र के बीच सीखने और सिखाने के पारस्परिक संबंध का निर्माण होता हैं। शिक्षण व्यवस्था के अंदर इसी संबंध को सुचारु रूप से बनाये रखने के लिए सारी क्रियाएं प्रेषित की जाती हैं। शिक्षणशास्त्र भी इसी संबंध के अन्तर्निहित क्रियाकलापों को परिलक्षित और परिभाषित करने का प्रयास करता है। इन तमाम वजहों के कारण सीखने और सिखाने की यह प्रक्रिया निरंतर कई तरह के संघर्षों का केंद्र बनी रहती है।
क्लासरूम में शैक्षणिक विमर्श के केंद्र बिंदु
यहां यह प्रश्न अहम् हो जाता है कि आखिर ये संघर्ष हैं क्या और ये किस रूप में प्रेषित होते हैं। सरल शब्दों में कहें तो ‘क्लासरूम’ के अंदर का यह संघर्ष बहुआयामी है। इसके अंदर छात्र, शिक्षक तथा स्कूली तंत्र अपने– अपने आदर्शों, आकांक्षाओं, मान्यताओं और मूल्यों को हासिल करने के लिए निरंतर एक दूसरे पर प्रभाव डालने का प्रयास करते हैं। स्कूली प्रणाली और शिक्षक समुदाय तय मानदंडों को सफलतापूर्वक पूरा कर जल्दी से बच्चे को एक बैज, एक लेबल प्रदान कर देना चाहते हैं। यहां यह ध्यान रखने योग्य है कि आज के समय में जो स्कूल इस ‘लेबलिंग’ को जितना सफलतापूर्वक और आदर्श रूप में बना व उभार पाते हैं, वे उतनी सफल शिक्षण प्रणाली के रूप में जाने जाते हैं। इस पर थोड़ा और गौर करें तो आप पाएंगे कि ये स्कूल साथ हीं साथ नामांकित बच्चों के अभिभावको को भी उसी के अनुरूप ढालते जाते हैं, जिससे अभिभावकगण अपने बच्चों के मूल स्वभाव, उम्मीद और आकांक्षा की परवाह न कर स्कूल द्वारा विकसित मानदंडों को असली मान कर उन्हीं आधारों पर अपने बच्चों के विकास का मूल्यांकन करने लग जाते हैं। इस तरह पूरी शिक्षण प्रणाली एक ‘घुड़दौड़’ में परिणत हो जाती है, जिसमें सबसे अच्छे और तेज भागने वाले घोड़े को व्यवस्था द्वारा सबसे ज़्यदा तालियां और ईनाम बक्शा जाता है। आज जब कोविड– 19 के संक्रमण से मानव समुदाय जूझ रहा है तब एक बार फिर ‘क्लासरूम’ को एक अलग तरह के दबाव का सामना करना पड़ रहा है।
बालमन के सरल और सुलभ पोषण के आधार
ऊपर के भाग में हमने स्कूली शिक्षण में ‘क्लासरूम’ के अंदर विविध प्रकार के चलने वाले संघर्ष को जानने, समझने का प्रयास किया। इस संभाग में हम ‘क्लासरूम’ को बच्चों के नज़रिये से जानने– समझने का प्रयास करेंगे। जब हम क्लासरूम को बच्चों के नज़रिये से देखने का प्रयास करते हैं तब आपको अपने नज़रिये में कुछ छोटे– मोटे से लेकर गंभीर बदलाव लाने की आवश्यकता होती है, अन्यथा आप वो नहीं देख पाते हैं, जो आपकी आंखों के सामने चल रहा होता है। आप इसे ठीक इस तरह से समझने का प्रयास करें कि मानिए आप ‘थिएटर’ देखने गए हैं। आप थिएटर में एंटर करते हैं, अँधेरा और शांति सब तरफ से आपको घेर लेती है– पर्दा उठता है और आप कलाकारों के वशीभूत होकर अगले कुछ पल कलाकारों के हिसाब से हँसते हैं, रोते हैं और जीते हैं। आपका यहां कुछ नहीं चलता– अगर थिएटर देखते वक्त आपके साथ ऐसा हादसा हो चुका है तो यक़ीन मानिए कि एक ‘क्लासरूम’ को ‘होते’ हुए देखते वक्त आप ठीक ऐसे हीं रोमांच से भर जाएंगे और आपका समय कब खत्म हो जाएगा आपको इसका आभास भी नहीं होगा।
बच्चों के लिए ‘क्लासरूम’ और उनके शिक्षक सिर्फ एक कमरा, एक इंसान भर नहीं होते अपितु वे उनके विश्वास, उम्मीद और सपनों का केंद्र होते हैं।
बच्चे यहां शिक्षक की निगरानी में सीखने के स्वाभाविक क्रियाकलाप में संलग्न रहते हैं। यहां आपको शब्द, रंग, आकृति, मानव शरीर और विकसित हो रही मानवीय चेतना का ऐसा संयोग मिलेगा, जिसे देख आप अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाएंगे। बच्चे सीख रहे हैं– शब्दों, रंगों, आवाज़ और अपने भाव भंगिमा से कई- कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं, अद्भुत ताना-बाना बुन रहे हैं। हां, मैं समझाता हूं कि इनमें से कई चीज आपको उलजुलूल लग सकती है क्योंकि आप निर्मित और तैयार चीजों को देखने और उपभोग करने के आदी हो चुके हैं। आप संभवतः किसी भी चीज की निर्माण-प्रक्रिया को नजदीक से नहीं देखे हैं। मैं ये दावे के साथ कह सकता हूं कि आप जो कार, टीवी, रेफ्रीजिरेटर और वो मकान जिसमें आप रहते हैं, उन्हें अगर उनके निर्माणाधीन अवस्था में देखे होते तो शायद आप इन क्रियाकलापो का पूरा मतलब समझ पाते। आप सीखने-सिखाने के इस क्रियाकलाप को ‘होते’ हुए देख रहे हैं तो यकीन करें कि आप मानव जीवन के कुछ सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक और सृजनशील पक्षों को साकार होते हुए करीब से देख रहे हैं।
शिक्षण–प्रशिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक एक महत्वपूर्ण धुरी
इस शैक्षिक प्रक्रिया को सहज और सुचारु रूप से चलाने के लिए ‘बोझमुक्त क्लास रूम’ और ‘खुली एवं विस्तृत दृष्टि’ के साथ एक शिक्षक का होना अनिवार्य है। ऐसे में ये शिक्षक का शैक्षणिक कर्म है कि वे इस तरह के वातावरण का निर्माण करें जिसमें बच्चे सरल और सुलभ तरीक़े से एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए सीखते रहें। यहां यह उल्लेखित करना भी महत्वपूर्ण है कि शिक्षक-छात्र के संयोग से चलने वाली सीखने-सिखाने की इस प्रक्रिया के दौरान, जहां एक तरफ अधिगम संबंधी क्रियाकलाप का निष्पादन हो रहा होता है वहीं दूसरी तरफ सूक्ष्मता के साथ मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं तथा आकांक्षाओं को पल्लवित किया जा रहा होता है।
शिक्षक को यह भी सुनिश्चित करना है कि इन्हीं शैक्षणिक गतिविधियों से अवधारणा के वे नए मापदंड निकालें जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है, न कि गतिविधि उन मानक मानदंडों के आधार पर तय करें जो शिक्षण-प्रणाली द्वारा उनको दी गयी है। यहां पर अगर शिक्षक दूसरी प्रणाली का चयन करते हैं तो वे शिक्षण-प्रशिक्षण प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करते हैं और बच्चों के स्वाभाविक रूप से सीखने की प्रक्रिया को ‘यंत्रीकरण’ की प्रक्रिया में तब्दील कर देते हैं। ऐसे में यह शिक्षण-प्रणाली उदास, असफल और असंतुष्ट बच्चों की फ़ौज तैयार करती है।
कोविड-19 के बहाने क्लासरूम के यंत्रीकरण का कुचक्र
कोविड-19 की वजह से हर तरफ लॉकडाउन रहा, मतलब घर से निकलने पर पाबन्दी। ऐसे में कामकाज के वैकल्पिक समाधान के रूप में ‘वर्क-फ्रॉम होम’ जैसे कॉन्सेप्ट को बढ़ावा दिया गया। इसी तर्ज पर बच्चों के लिए लर्न-फ्रॉम-होम के विकल्प को आगे बढ़ाया गया। ऐसा मान लेना कि लर्न-फ्रॉम-होम कोविड-19 की वजह से हुआ तो यह अपने को भुलावे में रखने के समान होगा क्योंकि पिछले कुछ समय से लगातार यह कोशिश चल रही थी कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में यंत्रीकृत शिक्षा पद्धति को स्थापित किया जाय। इसके लिए यंत्रीकृत शिक्षण के कई स्तरीय कार्यक्रम निरंतर चल रहे थे। यंत्रीकृत शिक्षा पद्धति की सूक्ष्म रूप से क्लासरूम के बाहर ‘सहयोगी गतिविधियों’ के रूप में शुरुआत हो चुकी थी। कोविड-19 ने उसको वो अवसर प्रदान किया जिससे वो पूर्णतः क्लासरूम के विकल्प के रूप में सामने आ गयी।
यंत्रीकृत शिक्षा पद्धति आखिर है क्या? यंत्रीकृत शिक्षा से हमारा अभिप्राय शिक्षा के निष्पादन में कंप्यूटर जैसी मशीन का अधिकता में उपयोग से है। क्लासरूम आधारित शिक्षण पद्धति पर दबाव बढ़ा है और शिक्षक-छात्र के संयोग से चलने वाली पद्धति में मूलभूत परिवर्तन होने की गुंजाइश बढ़ी है।
निर्माणकारी घटक के रूप में क्लासरूम
क्लासरूम आधारित शिक्षण पद्धति बच्चों को सीखने के बहुआयामी अवसर प्रदान करती है। यहां बच्चे आपस में एक साथ मिलते-जुलते हैं, अपने तथा अपने परिवार से अलग के लोगों को देखते, सुनते तथा जानते है। रंग, गंध, आकार और प्रकार का विशेष ज्ञान पाते हैं। एक दूसरे के साथ खेलते, गाते, नाचते और लड़ते-झगड़ते हुए वे जीवन के मूल तत्वों से अवगत होते जाते हैं। इन्हीं गतिविधियों के दौरान वे एक दूसरे पर भरोसा और विश्वास करना सीखते हैं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान वे सीखते हैं कि किससे सहयोग करना है तथा किससे असहयोग करना है। वे विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालना सीखते हैं। इस तरह की शिक्षण पद्धति से बच्चों के बहुआयामी व्यक्तित्व और चरित्र का निर्माण होता है। वे सामाजिक चेतना और सरोकार से परिपूर्ण एक पूर्ण मानव के रूप में विकसित होते हैं। शिक्षण गतिविधियों तथा सरोकार से संबंधित ये कुछ वैसे तत्व हैं, जिसको प्राप्त करना शिक्षण शास्त्रों द्वारा लक्ष्य के रूप में निर्धारित किया गया है। समय-समय पर अलग-अलग शिक्षाविदों ने भी शिक्षा में सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करने पर जोर दिया है।
यंत्रीकृत शिक्षण पद्धति से यंत्रवत व्यवहारिकता का उदय
यंत्रीकृत शिक्षण पद्धति से यह पूरा परिदृश्य बदलने वाला है या यूं कहें कि औंधे मुँह गिरने वाला है। एक नयी परिपाटी, नये आदर्शों तथा नये संकल्पों के साथ रूप ले रही है, जो स्कूल, शिक्षक और बच्चों की परिकल्पना को नये रूप में गढ़ेगी। ऐसे में सीखने-सिखाने के आवश्यक व मौलिक आदर्शों का यंत्रवत रूपांतरण होगा। शैक्षणिक कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होगा और बच्चों तथा शिक्षकों की सृजनात्मक तथा रचनात्मक भूमिका सीमित हो जाएगी। इस पूरे कार्यक्रम के दौरान उनकी भूमिका ‘भाग लेने वाले’ तक सीमित हो जाएगी। शिक्षक और छात्र के संबंध के बीच अलगाव और दूरी आ जाएगी। एक तरफ से निर्देश जारी किया जाएगा तो दूसरी तरफ से उसका निष्पादन किया जाएगा। तर्क करना, खोज करना, भूल करना और भूल को सुधारने जैसे मूलभूत शैक्षणिक क्रियाकलापों पर अंकुश लगेगा। बच्चों के स्वभाव और चरित्र में गंभीर परिवर्तन आएगा। वे व्यवहार और स्वभाव से एकांकी होंगे और सामाजिक सरोकारों से दूर हटेंगे। ज्ञान की जगह पर तकनीकी सोच और समझ का विस्तार होगा। वे ‘सोचने, समझने वाले’ से ‘करने वाले’ के रूप में परिणत हो जाएंगे। ऐसे यंत्रीकृत शैक्षणिक वातावरण से निकले लोग यंत्रवत तरीके से संचालित किये जा सकेंगे। इस तरह के शैक्षणिक परिदृश्य के विकास और निर्माण के कुचक्र के संबंध में शिक्षणशास्त्र तथा शिक्षाविद हमें समय-समय चेताते आये हैं।
यह लेख insurgentscripts.org से साभार प्रकाशित है। मूल लेख देखने के लिए यहां जाएं
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