पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से लेकर बीते एक साल में कांग्रेस पार्टी ने अपनी ताकत अगर कहीं झोंकी है, तो वह उत्तर प्रदेश है। प्रदेश में पार्टी सहित समूचे संगठन और जिलास्तर की इकाइयों को नये सिरे से जिंदा किया गया। चुनाव से पहले एक बड़ी खेप दूसरे राजनीतिक विचारों और संगठनों से यूपी कांग्रेस में आयी थी। चुनाव के बाद भी प्रदेश भर से युवाओं की आमद संगठन में जारी रही। कमान प्रियंका गांधी को थमायी गयी और उनके सिपहसालार बने जेएनयू के एक पूर्व वामपंथी छात्र नेता संदीप सिंह। पार्टी ने ज़मीन से उठे और वंचित समुदाय का नेतृत्व करने वाले अजय कुमार लल्लू को अध्यक्ष बना दिया। सोशल मीडिया को कसा गया। पार्टी के हस्तक्षेपों की श्रृंखला सोनभद्र के आदिवासी नरसंहार से शुरू होकर लॉकडाउन में बस विवाद और देशभर में विरोधियों के खिलाफ एफआइआर अभियान तक पहुंची। फिलहाल लल्लू जेल में हैं। संदीप के खिलाफ एक एफआइआर है। युवा जोश ठंडा पड़ा है तो सोनिया गांधी को “स्पीक अप इंडिया” के रास्ते सामने आना पड़ा है। यूपी की अंधेरी सुरंग में पार्टी के उभार की जो रोशनी दिख रही थी, वह उस पार से आते एक ट्रक की हेडलाइट निकली। आखिर चूक कहां हुई? नेशनल मूवमेंट फ्रंट के संयोजक सौरभ बाजपेयी ने जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि पर बड़े जतन से एक श्रृंखला अपने फेसबुक पर शुरू की है जिसमें वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अंदरूनी संकटों की पड़ताल कर रहे हैं। अब तक वे तीन भाग लिख चुके हैं। उनकी सहमति से जनपथ तीनों भाग एक साथ प्रकाशित कर रहा है। आगे इस श्रृंखला में आने वाले और लेख यहीं प्रकाशित किये जाएंगे।
संपादक
कांग्रेस एक सोलर सिस्टम या सौरमंडल की तरह है. अन्तरिक्षीय सौरमंडल के केन्द्र (कोर) में सूर्य है, जिसके नाम पर इस समूची व्यवस्था का नामकरण हुआ है. यदि सूर्य को उसके नियत स्थान यानी धुरी की स्थिति से हटाया गया तो सौरमंडल का उसकी परिधीय कक्षाओं (पेरिफेरल ऑर्बिट्स) समेत नष्ट होना तय है.
यह नहीं हो सकता कि प्लूटो को उठाकर केन्द्र में स्थापित कर दिया जाए और सूर्य को उठाकर सौरमंडल की सबसे बाहरी कक्षा में स्थापित कर दिया जाए. यहाँ तक कि सूर्य की सबसे नजदीकी कक्षा में बैठा बुध भी सूर्य की जगह नहीं ले सकता. क्योंकि वो आखिरकार बुध है, सूर्य नहीं.
अब क्षण भर के लिए सूर्य की जगह गाँधी-नेहरू पढ़िए और प्लूटो या बुध की जगह मार्क्स-लेनिन. सिर्फ़ विचार ही नहीं यह कार्यशैली पर भी उतना ही लागू होता है। क्या उत्तर प्रदेश कांग्रेस में ऐसे ही अनर्थकारी विस्थापन की कोशिश की जा रही है? आज नेहरूजी की पुण्यतिथि पर लम्बे समय से लम्बित यह प्रश्न पूछना लाजमी लग रहा है.
कांग्रेस के सौरमंडल का जगमगाता सूर्य भारत का महान स्वाधीनता संग्राम है. वह स्वाधीनता संग्राम जिसके सर्वोच्च और सर्वमान्य नेता महात्मा गाँधी थे. उनके अतिरिक्त महानायकों की एक पूरी फेहरिश्त है जिसमें नेहरू, पटेल, सुभाष, मौलाना आजाद से लेकर तमाम अन्य धाराओं को समेटती तकरीबन साठ साल की समृद्ध कांग्रेस-परम्परा है.
आजादी की लड़ाई के दौरान एक छतरी की तरह सबको समेटने वाली कांग्रेस 1947 के बाद एक राजनीतिक पार्टी में तब्दील हो गयी. कभी उसका हिस्सा रहे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और कुछ अन्य महत्वपूर्ण नेताओं ने कांग्रेस से अलग अपनी खास विचारधारा और पहचान पर आधारित अलग राजनीतिक दलों का निर्माण कर लिया. इनमें से अधिकांश राजनीतिक प्रयोग कालान्तर में विफल रहे, लेकिन कांग्रेस देश की मुख्यधारा की राजनीतिक ताकत के तौर पर आज तक मौजूद है.
इसकी सबसे बड़ी वजह उसे विरासत में मिली कांग्रेस की अपनी यह समावेशी सौरमंडलीय संरचना है. सौरमंडल में सूर्य से दूरी के हिसाब से बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, नेप्चून और प्लूटो आदि अपनी-अपनी कक्षाओं में विद्यमान हैं. इसी तरह कांग्रेस के सौरमंडल की विभिन्न कक्षाओं में तमाम तरह की राजनीतिक प्रवृत्तियाँ अपनी सापेक्षिक कक्षाओं में बैठी हैं.
हाँ, अन्तरिक्षीय सौरमंडल से कांग्रेस का सौरमंडल इस मामले में भिन्न है कि इन कक्षाओं की केन्द्र से दूरी समय-काल-परिस्थिति के अनुरूप घटती-बढ़ती रहती है. इन कक्षाओं में दक्षिणपंथी से लेकर वामपंथी, यहाँ तक कि दूर की कक्षाओं में तो धुर वामपंथी तक, अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार बने रह सकते हैं. लेकिन इस सौरमंडल की बुनियादी शर्त यह है कि गाँधी-नेहरु की अगुवाई वाले स्वाधीनता संग्राम की विरासत इसके केन्द्र में रहनी चाहिए.
इस विशेषाधिकार वाली स्थिति के बावजूद, कांग्रेस का केन्द्र अपने आप में बहुत समावेशी रहा है. धुरी पर घूमती कोई राजनीतिक प्रवृत्ति उसके केन्द्रीय तत्व के साथ विलय के लिए तत्पर दिखती है तो उसने दोनों हाथ फैलाकर उसका स्वागत किया है.
लेकिन इसकी दो मूल शर्तें हैं- पहला, वह प्रवृत्ति उसकी केन्द्रीय प्रवृत्ति की पूरक होनी चाहिए, विरोधी नहीं. दूसरा यह कि विलय की शर्तें कांग्रेस की कोर आइडियोलॉजी तय करेगी न कि विलय होने वाला समूह खुद बताएगा कि क्या करना है. इसलिए हर हाल में यह सिर्फ और सिर्फ कोर में पेरिफेरी का ‘विलय’ होगा, किसी भी कीमत पर कांग्रेस की कोर आइडियोलॉजी का ‘विस्थापन’ नहीं.
यह मान्यता बिल्कुल गलत है कि कांग्रेस बिना किसी ठोस वैचारिक आधार का एक ढीलाढाला संगठन है. कांग्रेस की कार्यशैली को दक्षिणपंथ या वामपंथ कुछ हद तक घुसकर प्रभावित भले कर सकता है, लेकिन अगर उसके कोर को जरा-सा भी खिसकाने की कोशिश की गयी तो यह देश का बहुत बड़ा नुकसान होगा.
उत्तर प्रदेश कांग्रेस पर सीपीआई (एमएल) तत्वों के बढ़ते दबदबे पर इसी सन्दर्भ में बात करना जरूरी है. कहीं यह कांग्रेस के सौरमंडल को इस हद तक नुकसान न पहुँचा दे कि आजाद भारत के सबसे कठिन दौर में हमारी लड़ने की क्षमताएँ पंगु हो जाएँ. हमारे जैसे तमाम लोग जो कांग्रेस के बाहर होते हुए भी कांग्रेस को इस निर्णायक लड़ाई की एकमात्र उम्मीद मानते रहे हैं, उनकी चिन्ता की मूल वजह यही है.
कई प्रभाव अक्सर अनजाने और अनायास आते हैं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के ऊपर धुर कम्युनिज्म का यह प्रभाव भी संभवतः अनजाना और अनायास है. अनजाना इसलिए कि शायद इसकी प्रामाणिक ख़बर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँचने नहीं दी जाती है. या फिर पहुँचने पर उसकी भ्रामक व्याख्या कर दी जाती है.
अनायास इसलिए कि भले ही ऐसा करना किसी का सायास उद्देश्य न हो, लेकिन बेहद यांत्रिक तरीके से यह होता चला जा रहा है. हो सकता है कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस में यह हस्तक्षेप एक सुषुप्त संगठन में फ़ौरी तौर पर कुछ हरकत पैदा करे, आख़िरकार यह आत्मघाती सिद्ध होगा. जिस संगठन को लम्बे समय तक पोषण और उपचार की जरूरत है, स्टेरॉयड देकर उसके शरीर को कृत्रिम रूप से फुलाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है.
कम्युनिस्ट पार्टियों से कांग्रेस में आये तमाम युवाओं का स्वागत करना चाहिए, लेकिन कांग्रेस सौरमंडल (पिछली पोस्ट में वर्णित) में उन्हें एक ‘निश्चित समय’ तक किसी पेरिफ़ेरी (परिधि) पर ही रखना चाहिए था. यह ‘निश्चित समय’ दरअसल एक मेटामॉर्फ़ोसिस या कायापलट की प्रक्रिया है जिसमें कोई भी नए संगठन की ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद की कंडीशनिंग करता है.
जिन लोगों को कम्युनिस्ट पार्टियों के डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म का अंदाज़ा है, वो जानते हैं कि इसने ख़ुद कम्युनिस्ट पार्टियों का कितना नुकसान किया है. इस तरह की तमाम अन्य प्रवृत्तियाँ कांग्रेस में आने वाले लोगों में अगर बची रह गयी हों तो कांग्रेस संगठन का भी बेड़ा ग़र्क कर सकती हैं.
स्वाभाविक रूप से एक ख़ास किस्म की राजनीतिक ट्रेनिंग आपका समूचा व्यक्तिव गढ़ती है. इसका प्रभाव कैडर की राजनीतिक विचारधारा पर ही नहीं बल्कि दुनिया को समझने के नज़रिये, रोजमर्रा की भाषा, राजनीतिक तेवर और सामाजिक व्यवहार पर भी बहुत गहराई से पड़ता है.
लेफ़्ट और राइट यानी दोनों ही कैडर आधारित संगठनों, जहाँ बहुत कड़ा राजनीतिक प्रशिक्षण होता है, पर ख़ासतौर से यह बात लागू होती है. थोड़े समय तक वामपंथ या दक्षिणपंथ के प्रभाव में आये लोगों पर यह बात लागू नहीं होती है, लेकिन जिनका समूचा वैचारिक विकास इन सगठनों के साये में होता है, उनके व्यक्तित्व में उनकी ट्रेनिंग दूध और पानी की तरह घुल जाती है.
कोई भी व्यक्ति नयी पार्टी कब ज्वाइन करता है? पहली वजह- किसी अच्छे अवसर की तलाश में कोई अपने मूल्यों, आस्थाओं और विचारों से समझौता कर ले. सामान्य भाषा में इसे ‘अवसरवाद’ तथा वामपंथी शब्दावली में ‘समझौतावाद’ या ‘संशोधनवाद’ कहा जाता है.
दूसरी, जब उसे अहसास हो जाये कि उसकी मूल पार्टी अपनी समकालीन चुनौतियों का सामना करने में असमर्थ है या हो चुकी है. ऐसी स्थिति में वो एक नयी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत करने का निश्चय करता है. नए राजनीतिक परिवेश, संस्कृति और परंपरा के साथ तारतम्य बिठाने के लिए वो या तो अपनी मूल स्थापनाओं को तिलांजलि देता है या फिर उनको चुनौती देते हुए एक नयी विचारधारात्मक यात्रा पर निकल पड़ता है.
इस यात्रा की बुनियादी शर्त ही यह है कि व्यक्ति नया सोचने और नया सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार है. राजनीतिक दृष्टि से कहें तो यही उसके मेटामॉर्फ़ोसिस या कायापलट की शुरुआत है. कई लोग इस प्रक्रिया का सामना करने से हिचकते हैं और राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हो जाते हैं.
कम्युनिस्ट पॉलिटिक्स के कई लोग इस ‘डॉग्मा’ को तोड़ नहीं पाते और ख़ुद को महज़ बौद्धिक गतिविधियों तक समेट लेते हैं क्योंकि लम्बे समय तक गाँधीजी को “मैस्कॉट ऑफ़ बुर्जुआज़ी” और “जोनाह ऑफ़ रेवोलुशन” मानने के बाद अचानक उनमें एक क्रांतिकारी की खोज एक जटिल और लम्बी बौद्धिक प्रक्रिया है.
इसलिए धुर कम्युनिज्म की रेडिकल ट्रेनिंग से निकलकर वाया अन्ना आन्दोलन और आम आदमी पार्टी, उत्तर प्रदेश कांग्रेस पर कब्ज़े की कोशिशों की इंटेलेक्चुअल ट्रेजेक्टरी (वैचारिक प्रक्षेपपथ), गाँधी-नेहरू का प्रतिबद्ध शिष्य होने के नाते, ट्रेस करना एक ख़ालिस राजनीतिक सवाल है, व्यक्तिगत नहीं. यह तय है वैचारिक कायापलट के बिना किसी पार्टी संगठन पर आकर प्रभुत्व जमाने की कोई सतही कोशिश अर्थ का अनर्थ कर देती है.
ऐसे समझिये कि कोई पुरानी पार्टी का दिल-दिमाग और गुर्दा लाकर नयी पार्टी के शरीर में ज़बरदस्ती फिट करने की कोशिश करे और मरीज़ की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती चली जाए. कांग्रेस की गाँधीवादी और नेहरूवादी छवि के नीचे जाने-अनजाने उत्तर प्रदेश कांग्रेस की एक ऐसी सर्जरी चल रही है जो दरअसल पोस्टमॉर्टेम न बन जाए, यही चिंता है.
यह मेटामोर्फोसिस या कायान्तरण क्यों ज़रूरी है? क्योंकि हर राजनीतिक विचारधारा एक अलग ईकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) का निर्माण करती है. एक ईकोसिस्टम में पले-बढ़े व्यक्ति को दूसरे ईकोसिस्टम में बहुत “एडजस्ट” करना पड़ता है.
एडजस्ट करना यानी अनुकूलन एक बहुत जटिल और लम्बी प्रक्रिया है क्योंकि विचारधारात्मक रूढ़ियों को तोड़ने के लिए उतने ही मजबूत विचार की जरूरत होती है. रेडिकल लेफ़्ट या रेडिकल राइट की विचारधारा में रचे-बसे किसी व्यक्ति के लिए तथाकथित रूप से “सेंटर” की राजनीति में एडजस्ट करना वाकई एक बड़ी जटिल और लम्बी प्रक्रिया है.
मिसाल के तौर पर रेडिकल कम्युनिस्ट पार्टियां एक सशस्त्र क्रान्ति का सपना देखती हैं. हथियारों के बल पर अपने वर्ग-शत्रुओं का सफ़ाया उसकी राजनीतिक पद्धति है. दुनिया के अन्य समाजों में यह वाज़िब भी हो सकती है, लेकिन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इस सपने ने समाजवाद की संभावनाओं को बहुत नुकसान पहुंचाया है। तेलंगाना से लेकर नक्सलबाड़ी और आज की माओवादी हिंसा तक- सशस्त्र क्रान्ति का यह सपना ही भारत में वामपंथ के भीतर धुर वामपंथ के पनपने की जड़ है.
सशस्त्र क्रान्ति के सपने से आयी यह हिंसा धुर कम्युनिस्ट पार्टियों की सोच में बहुत अंतर्भूत (इन्ट्रिंसिक) है. एक शोषणमुक्त दुनिया बनाने के पवित्र उद्देश्य से विचार में पनपी यह हिंसा एक लंबे अंतराल में व्यक्तिव के भीतर बहुत गहरे समा जाती है. अपने बीच से “हेरेटिक” और “रेनेगेड” यानी प्रतिक्रान्तिकारी वर्ग-शत्रुओं को ख़ोजकर उन्हें पार्टी में किनारे लगाना एक क्रांतिकारी कार्यभार मान लिया जाता है.
चूँकि यह काम पार्टी से जुड़ा हर व्यक्ति करता रहता है, सभी एक-दूसरे के प्रति गहन संदेह से भरे रहते हैं. इस संदेह को एक-दूसरे के प्रति साजिश में बदलते देर नहीं लगती. यह एक बेहद असुरक्षित मानसिकता का निर्माण करता है और कालान्तर में धुर वामपंथ का स्थायी असुरक्षाबोध बन गया.
गाँधी की राजनीति के विपरीत इस रणनीति में मुश्किल पड़ने पर झूठ बोलना भी स्वीकृत है. लोकमान्य तिलक, गाँधी आदि कांग्रेस नेताओं से प्रभावित कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे मेरठ कांस्पीरेसी केस (1929) में शामिल थे. पकड़े जाने पर उनके अधिकतर साथियों ने तय किया कि जब उनसे पूछा जाएगा: “क्या तुम कम्युनिस्ट हो”, वो चुप रहेंगे और ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी से भेजे गए डिफेन्स अटॉर्नी की सलाह का इंतज़ार करेंगे. लेकिन डांगे ने कहा कि वो स्वीकार करेंगे कि “हाँ मैं (कम्युनिस्ट) हूँ” क्योंकि कांग्रेस के कार्यकर्ता पकड़े जाने पर झूठ नहीं बोलते बल्कि सच बोलकर शान से जेल जाते हैं.
डांगे उलाहना देते हुए कहते हैं कि यह एक “ब्लडी रेवोल्युशनरी पार्टी” थी जिसका दावा था कि वो क्रान्ति करने जा रही है. इस पर डांगे को पार्टी अनुशासन तोड़ने के अपराध में एक साल का बायकॉट झेलना पडा. एक ही अपराध में झूठ बोलने वालों को महज़ एक साल की और सच बोलने वाले डांगे को तीन साल की सजा सुनाई जाती है.
यह मिसाल यह बताने के लिए काफ़ी है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट तौर-तरीक़ों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क रहा है. यही वो गहरी परंपरा है जिसमें दोनों का भिन्न-भिन्न ईकोसिस्टम विकसित होता है.
इसलिए यह पूछना लाज़मी है कि क्या सीपीआई (एमएल) लिबरेशन से आये लोगों ने रेडिकल वामपंथी ईकोसिस्टम में जो लर्न किया था, उसे अनलर्न कर दिया है? अगर नहीं किया है तो क्या उनके पुराने ईकोसिस्टम के तौर-तरीक़ों को कांग्रेस में जमाने के लिए पुराने बरगद गिराए जाएंगे?
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