अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले हिंदी दिवस को याद करिए। न सही छप्पन इंच लेकिन हम हिंदीवालों की छाती चौड़ी हो गई थी कि हमारा हिंदी का लेखक-कवि खुलकर मैदान में आया है, पुरस्कार लौटा रहा है और बरसों बाद प्रतीकात्मक ही सही लेकिन एक राजनीतिक कार्रवाई तो कर रहा है। पहला पुरस्कार 4 सितंबर को उदय प्रकाश ने लौटाया था साहित्य अकादमी का। इस घटना के एक साल दस दिन बाद क्या मंज़र है, आप जानते हैं? नहीं?
लगता है लेखक लोग पुरस्कार लौटाकर ऐतिहासिक जिम्मेदारी से मुक्त हो चुके हैं और पाठकगण अपने-अपने खेमे तय कर चुके हैं, इसलिए चुप बैठे हैं। इसीलिए बीते पांच दिनों से ट्विटर पर सर्कुलेट हो रहे साहित्य अकादमी के इस आमंत्रण को न किसी ने देखा और न ही इसका दबी जुबान भी इसका कोई जिंक्र किया:
”साहित्य अकादेमी एवं ज़ी एंटरटेनमेंट द्वारा ‘हिंदी दिवस 2016‘ में 14 सितंबर को नई दिल्ली में आप आमंत्रित हैं”
छाती पीटों हिंदीवालों… छाती पीटो। क्या तुम नहीं जानते कि सुभाष चंद्रा कौन है? झूठ मत बोलना। इकलौते राष्ट्रवादी चैनल का मालिक; जिसके चैनल के संपादक सौ करोड़ की फिरौती के चक्कर में जेल जा चुके हैं और फिर भी अपने पद पर बने हुए हैं; जिसने अपनी आत्मकथा में अपने कारोबारी बनने की भोंडी, भ्रष्ट और गर्हित यात्रा को महिमामंडित किया है; जिसके ऊपर राज्यसभा की सांसदी पाने के लिए चुनाव आयोग के नामांकन पत्र पर फर्जी तरीके से दस्तखत करने का आरोप है; जो भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के चुनावी मंच पर चढ़कर उसका प्रचार करता है, सांसदी पाता है और उसका जश्न समाजवादी पार्टी की मेज़बानी में मनाता है।
यही ”चर्चित हिंदी विद्वान” सुभाष चंद्रा 14 सितंबर को ”हिंदी की वर्तमान स्थिति- चुनौतियां एवं समाधान” विषय पर अशोक चक्रधर के साथ विशेष परिचर्चा करेगा और साहित्य अकादमी पूरी बेशर्मी से इस कार्यक्रम का आमंत्रण भेज रही है। समय है शाम 6 बजे, जगह है रवींद्र भवन।
अशोक चक्रधर के बारे में किसी को कोई शक़ हो तो बात और है। अकादमी के बारे में भी किसी को कोई शक हो तो बात और है। आप कह सकते हैं कि फिर सवाल क्या है? क्यों छाती पीटें? मत पीटिए। अपनी बला से। तो क्या मान लिया जाए कि हिंदी का पढ़ा-लिखा समाज साहित्य अकादमी का बहिष्कार कर चुका है? अगर ऐसा है, तब कोई शिकायत नहीं।
अगर ऐसा नहीं है, और खासकर वे लेखक जो पिछले साल घटी पुरस्कार वापसी की घटना को आज प्रतीकात्मक बता-बता कर मंगलेश डबराल आदि लेखकों की फेसबुक जैसे माध्यम पर ”विच-हंटिंग” कर रहे हैं, क्या वे बताएंगे कि आज की तारीख में वे कहां खड़े हैं? सुभाष चंद्रा के ज़ी एंटरटेनमेंट व साहित्य अकादमी के नापाक गठजोड़ के साथ या अपने लेखकों के साथ? एक पाला तो चुनना होगा। अगर आपका लेखक पिछले साल आपके मुताबिक ”स्टंट” कर रहा था, तो क्या साहित्य अकादमी और ज़ी का यह सहवास पुण्यकर्म है?
जिन्होंने पुरस्कार लौटा दिए, यह सवाल मुख्यत: उनसे नहीं है। यह सवाल उनसे है जो इस लेखकों को आड़े हाथों लेते रहे हैं और उसकी आड़ में अपना पाला साफ़ करने से बचते रहे हैं।
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फासिस्ट सत्ता और कलम के चाकरों की कुत्सित करतूत के रूप में यह जुगलबन्दी उनको और भी नंगा कर रही है। पट्टा पहने कलम के फनकार गुलामों से भी गये गुजरे हैं।
गुलाम तो परास्त होने के बाद पट्टे से जबरन जकड़ दिया जाता था। ये तो स्वेच्छा से चमचागिरी में आत्मोत्कर्ष देख कर अपने आपको चारण बना लेते हैं।