श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाये जाने के खिलाफ़ 22 मई को ट्रेड यूनियनों का देशव्यापी प्रदर्शन


कोरोना संकट और उसके बहाने किये गए लॉकडाउन की आड़ में केंद्र की मोदी सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों ने मज़दूर वर्ग पर भीषण हमला बोल दिया है। यह हमला एक ऐसे समय में बोल गया है जब मज़दूर आबादी का बड़ा हिस्सा लगभग दो माह के लॉक डाउन के चलते बेहद मुश्किल हालात में जिंदा रहने के संघर्ष में फंसा है व भूख और मौत से जूझ रहा है। लाखों मज़दूर भूख और बेकारी से परेशान होकर सैंकड़ों-हज़ार किलोमीटर दूर अपने गाँवों पहुंचने के लिए पैदल ही निकल रहे हैं। इनमें से सड़क और रेल दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले मज़दूरों की संख्या सैंकड़ों में पहुंच चुकी है।

लॉकडाउन के चलते मज़दूर को सड़क पर उतर कर विरोध प्रदर्शन करने से भी वंचित कर दिया गया है। इस देश के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के इशारे पर केंद्र की मोदी सरकार ने इस मौके को मज़दूर वर्ग पर घात लगाकर हमला करते हुए लम्बे समय से पूंजीपति वर्ग द्वारा प्रतीक्षित और वांछित श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाने का काम शुरू कर दिया गया है। पूंजीपति वर्ग,खासकर एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग द्वारा कोरोना सकट काल का फायदा उठाते हुए श्रम कानूनों मे व्यापक बदलाव की बातें की जाने लगी।

चूंकि श्रम कानून संविधान की समवर्ती सूची का हिस्सा हैं अतः इस पर केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का हक़ है। मोदी सरकार द्वारा चालाकी दिखाते हुए सीधे मज़दूरों की नाराजगी मोल लेने के बजाय इस संबंध मे राज्य सरकारों को खुद श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाने का संकेत दे दिया गया। इसी संकेत को पकड़ते हुए अलग अलग राज्य सरकारों द्वारा कार्य दिवस 12 घंटे करने, कारखाना अधिनियम सहित विभिन्न श्रम कानूनों में व्यापक बदलाव करने से लेकर श्रम कानूनों को 3 साल के लिए पूरी तरह अप्रभावी बनाने तक की हद तक जाकर बदलाव किये जा रहे हैं।

सबसे पहले राजस्थान सरकार द्वारा कोरोना संकट के चलते फिजिकल डिस्टेनसिंग के नाम पर कम मज़दूर नियोजित करने की बात करते हुए 3 माह के लिए कार्यदिवस 12 घंटे कर दिया गया, हालांकि इसमें 8 घण्टे के अतिरिक्त 4 घण्टे की अवधि का दुगुने दर से भुगतान किए जाने की बात थी। इस तरह राजस्थान सरकार द्वारा कारखाना अधिनियम में बदलाव करते हुए 12 घण्टे के कार्य दिवस को अनिवार्य बना दिया गया। राजस्थान सरकार की देखादेखी पंजाब की कांग्रेसी सरकार और ओडिसा की बीजू जनता दल की सरकार ने भी कार्यदिवस बदल दिया। इसी क्रम में महाराष्ट्र सरकार ने कारखाना अधिनियम की धारा 51,52,54 व 56 से छूट घोषित करते हुए मजदूरों से 12 घंटे काम लेने की मालिकों को अनुमति दे दी।

गैर भाजपाई सरकारों को पीछे छोड़ते हुए भाजपा शासित राज्य सरकारों ने न केवल 12 घंटे का कार्यदिवस घोषित करते हुए 8 घंटे के बाद अतिरिक्त 4 घंटे दुगुनी दर से भुगतान करने के बंधन से भी मालिकों को मुक्ति दिला दी है। श्रम कानूनों को आंशिक या मुख्यतः निष्प्रभावी बनाने में हिमाचल प्रदेश, गुजरात, असम, मध्य प्रदेश और सबसे अव्वल उत्तर प्रदेश की योगी सरकार है।

गुजरात के सीएम विजय रुपाणी ने घोषणा की है कि गुजरात कम से कम 1200 दिनों तक काम करने वाली नई परियोजनाओं को श्रम कानूनों के प्रावधानों से छूट देने की योजना बना रहा है।

असम सरकार ने उद्योगों में नियत अवधि के रोजगार की शुरुआत की है और कारखाना अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए श्रमिकों की न्यूनतम संख्या बढ़ा कर 10 से 20 (बिजली से चलने वाले कारखानों में) और 20 से 40 (बिना बिजली के चलने वाले कारखानों में) कर दी है। इसने ठेका श्रम अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए न्यूनतम श्रमिकों की संख्या 20 से बढ़ा कर 50 कर दी है और शिफ्ट की अवधि में 8 से 12 घंटे की वृद्धि को भी मंजूरी दी है।

मध्य प्रदेश में, औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 25 को छोड़कर सभी प्रावधानों को शिथिल कर दिया गया है, काम के घंटों को दिन में 12 घंटे तक बढ़ा दिया गया है, 50 से कम श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों को विभिन्न श्रम कानूनों के तहत निरीक्षण से बाहर रखा गया है , साथ ही 100 से कम मजदूरों वाले उद्योगों को मध्य प्रदेश औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम के प्रावधानों से छूट दे दी गई है, नियत अवधि के रोजगार (फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट) को मंजूरी दे दी गई है, श्रम कानूनों के तहत विभिन्न रजिस्टरों के बजाय एक ही रजिस्टर बनाए रखने का प्रावधान लाया गया है और 13 के बजाय मात्र एकल रिटर्न दाखिल करने का प्रावधान भी लाया गया है। कारखाना अधिनियम के तहत कारखानों को तीन महीने की अवधि के लिए निरीक्षण से छूट दे दी गई है।

योगी सरकार द्वारा लगभग सभी प्रमुख श्रम कानूनों को मनमाने तरीके से एक निश्चित अवधि के लिए स्थगित कर दिया गया है। योगी सरकार ने तीन साल के लिए सभी प्रतिष्ठानों, कारखानों और व्यवसायों को अधिकांश श्रम कानूनों के दायरे से छूट देने वाले अध्यादेश को मंजूरी दे दी है। अब लागू न होने वाले कानूनों में न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, व्यापार संघ अधिनियम, औद्योगिक विवाद अधिनियम, कारखाना अधिनियम, ठेका मज़दूरी अधिनियम, बोनस का भुगतान अधिनियम, अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक अधिनियम, वर्किंग जर्नलिस्ट अधिनियम, कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम शामिल हैं। यह अध्यादेश अब केंद्र सरकार की मंजूरी के लिए लंबित है।

इस तरह श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाने की प्रक्रिया को राज्यों के हवाले कर दी गयी है और धीरे धीरे यह पूरे देश के स्तर पर लागू हो जाएगी और वस्तुतः श्रम कानूनों का औचित्य ही पूरी तरह खत्म कर दिया जाएगा।

श्रम कानूनों पर इतना बड़ा हमला यकायक होने वाली चीज नहीं है।यह एक लंबी प्रक्रिया है जिसकी जड़ें वैश्विक स्तर पर श्रम और पूंजी के शक्ति संतुलन के पूरी तरह पूंजी के पक्ष में झुकने और वैश्विक स्तर पर पूंजी द्वारा श्रम पर किये गए हमले से जुड़ी हैं। इस हमले को साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के नाम से जाना जाता है।

नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से सरकारें श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाने की कार्यवाहियां शुरू कर दी थी। इसी उद्देश्य के लिए गठित दूसरे श्रम आयोग, जो 1998 में गठित हुआ और जिसकी रिपोर्ट 2002 में प्रकाशित हुई, की सिफारिशों में वस्तुतः श्रम कानूनों को काँटछांटकर काफी हद तक कमजोर और निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की गई थी। तत्कालीन भाजपा नीत राजग सरकार व उसके बाद कांग्रेसनीत सं.प्र.ग. सरकार के दौरान ने दूसरे श्रम आयोग की सिफारिशों के कुछ अंशों को टुकड़ों टुकड़ों में पिछले दरवाजे से लागू करने के प्रयास किए।

इस धीमी प्रगति से खफा एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ने 2014 में संघी फासीवादियों से गठजोड़ कर लिया और 2014 में मोदी नीत राजग गठबंधन सरकार ने 44 के लगभग केंद्रीय श्रम कानूनों को प्रभावहीन और व्यवहारतः लागू करने में दुष्कर बनाते हुए एवम पूंजीपतियों के पक्ष में मोड़ते हुए 4 श्रम संहिताओं में विघटित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी।

मोदी के दूसरे कार्यकाल के लगभग 4 माह के अंदर वेतन संहिता को मोदी सरकार ने संसद से पारित करवाकर अधिनियम में बदलने में सफलता हासिल कर ली। शीघ्र ही मोदी सरकार अन्य तीन संहिताओं को भी औपचारिकताओं को पूरा करते हुए यथाशीघ्र संसद द्वारा पारित करने की कोशिशों में जुट गई लेकिन व्यापक मज़दूर आबादी के संभावित प्रतिरोध की आशंका के चलते वह इन्हें एक झटके में लागू करने का साहस नहीं कर रहा था।

लॉकडाउन के दौरान पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने घटते मुनाफे की भरपाई मज़दूरों से करने के प्रयास लगातार तेज़ हो गए। साथ ही वैश्विक आर्थिक संस्थाओं द्वारा लम्बे समय तक,ज्यादातर अनुमानों के मुताबिक आगामी 3 साल तक, वैश्विक स्तर पर गंभीर आर्थिक संकट आशंका के चलते भी इस संकट का बोझ पूंजीपति वर्ग मज़दूरों पर डालना चाहता था। मज़दूर वर्ग को पूर्ण अधिकारविहीनता की स्थिति में धकेलकर उसके निरंकुश और निर्बाध शोषण के बदौलत ही पूंजीपति वर्ग इस संकट से पार पाने के मंसूबे बनाने लगा और मौजूदा कोरोना संकट की आड़ में उसने यह अवसर प्राप्त कर लिया। मज़दूर वर्ग पर इस हमले को पूंजीपति वर्ग को तरह तरह की लफ़्फ़ाज़ी के साथ पेश कर रहा है।

श्रम कानूनों पर हमले को देश भक्ति और आत्मनिर्भरता हासिल करने के महान व पुनीत कर्तव्य के रूप में पेश किया जा रहा है। मज़दूरों को एक बार फिर संतोष का पाठ पढ़ाया जा रहा है। देश बचाने के बहाने मजदूरों से त्याग करने, यहां तक कि नौकरी गंवाने व वेतन कटौती को तैयार रहने के उपदेश दिए जा रहे हैं। केंद्र व राज्य सरकारों व व्यवस्था के अन्य हिस्सों द्वारा मज़दूर वर्ग के ऊपर संख्त का बोझ लादने, श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाने, मज़दूरों मेहनतकशों के साथ बेहद अमानवीय और दोयम दर्जे के व्यवहार के विरोध को नकारात्मक विचार घोषित कर मज़दूरों से ऐसे नकारात्मक विचार मन में न लाने के प्रवचन दिए जा रहे हैं। प्रसिद्ध जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की ये बातें आज सहज ही प्रासंगिक लगती है- “दस्तरखान (खाना खाने की मेज) जिनके सजे होते हैं,वे दूसरों को संतोष का है पाठ पढ़ाते”।

तबाह हाल मज़दूर वर्ग के व्यापक हिस्सों के लिए संतोष व देशभक्ति की इन फ़र्ज़ी बातों का वैसे तो कोई खास मतलब नहीं है लेकिन मज़दूर वर्ग के एक अपेक्षाकृत अधिक वेतन व सुविधाएं पाने वाले हिस्से अभिजात मजदूरों पर इसका खासा असर हो रहा है। यह मज़दूर आंदोलन के लिए घातक साबित होगा क्योंकि यही अभिजात मज़दूर आज ट्रेड यूनियन आंदोलन के नेतृत्व में है।

मज़दूरों को दिए जाने वाले ये उपदेश कितने खोखले हैं इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि एक तरफ मोदी सरकार देश भक्ति व आत्मनिर्भरता की पाखंड पूर्ण बातें कर मजदूरों को मूर्ख बना रही है तो वहीं दूसरी तरफ इसी दौरान रक्षा क्षेत्र मैं विदेशी निवेश की सीमा को बढा कर 74 % तक करने की कवायद कर रही है। जहां एक ओर वह मजदूरों पर लाठियां बरसाती है वहीं दूसरी ओर अमीरों को विदेश से भारत लाने के लिए विशेष विमानों व बसों की व्यवस्था करती है ।

इसी बीच पूंजीपतियों को भांति भांति के पैकेज दिए जा रहे हैं।देश के सबसे बड़े पूंजीपति अम्बानी से लेकर मेहुल चौकसी, नीरव मोदी,विजय माल्या और रामदेव जैसे लोगों का लगभग 68 हज़ार करोड़ का कर्ज बट्टे खाते में डाल कर माफ किया जा रहा है।

ये तथ्य इनके पाखन्ड को उजागर करते हैं। ये साबित करते हैं कि इनकी देश भक्ति की बातें बिल्कुल फर्जी हैं। ये पूंजीपतियों के पक्के सेवक हैं और साम्राज्यवादपरस्त हैं। उन्हीं के हितों की खातिर ये मज़दूर वर्ग को अधिकाधिक नोचने -खसोटने और उनका और अधिक खून-पसीना निचोड़ने की योजनाएं बना रहे हैं।

साथियो,साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीतियों को लागू हुए 3 दशक होने जा रहे हैं। इस दौर में पूंजीपतियों को लूट की खुली छूट के तहत श्रम कानून शनैःशनैः व्यवहार में लागू होने बंद होते चले गये हैं। इस दौर में मज़दूरों को अपने कानून प्रदत्त अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष ही मज़दूर आंदोलन का मुख्य संघर्ष बन गया है।

इस दौरान कारखाना अधिनियम,1948 के भी कागजों की शोभा बनने के परिणाम स्वरूप कारखानों के भीतर दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ती चली । दुर्घटनाओं में मजदूरों के अपाहिज होने से लेकर उनकी मृत्यु के मामले बढ़ते चले गये। सुरक्षा मापदंडों के उल्लंघन के कारण कारखानों में आगजनी की घटनाएं और उनमें मजदूरों की मौतें आये दिन की बात हो गई। ऐसे में अब जबकि कारखाना अधिनियम औपचारिक तौर पर भी निरस्त कर दिया जायेगा तब हालत कितने भयावह हो जायेंगे इसका एक अनुमान लगाया जा सकता है।

श्रम कानूनों पर मौजूदा हमले और 12 घंटे का कार्य दिवस लागू हो जाने पर स्थायी मजदूरों की स्थिति में होने वाली गिरावट जहां उन्हें ठेका, कैजुअल मजदूरों की स्थिति की ओर धकेलेगी वहीं खुद ठेका कैज़ुअल मजदूरों के हालात पहले से भी ज्यादा बुरे हो जायेंगे। पूंजीपतियों के लिये मजदूरों की भारी छंटनी का रास्ता साफ हो जायेगा।

इस दौरान सुप्रीम कोर्ट के मजदूर विरोधी रुख बहुत मुखर रूप से सामने आया है। खासकर लॉक डाउन के दौरान वेतन भुगतान पर मालिकों की याचिका को स्वीकार कर लेने, वेतन भुगतान के मामले में सरकार को स्पष्टीकरण दाखिल करने हेतु दो हफ्ते की मोहलत देने व इस दौरान वेतन भुगतान न करने वाले मालिकों पर कोई कार्यवाही न करने की बात कहकर उन्हें राहत देने का काम किया जाता है और दूसरी ओर मोदी सरकार के खिलाफ मजदूरों की मौत की जिम्मेदारी तय करने व मज़दूरों को घर भेजने की व्यवस्था न करने के विरोध में लगाई याचिका को खारिज कर दिया जाता है।

कई याचिकाकर्ताओं पर भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारी जुर्माना लगाने, मोदी सरकार द्वारा मजदूरों को घर भेजने की पर्याप्त व्यवस्था करने को लगाया गये शपथपत्र को बिना स्पष्टीकरण या सवाल जवाब के स्वीकार कर लेने आदि बातों से भी सर्वोच्च न्यायालय की पक्षधरता स्पष्ट जाहिर हो जाती है।

कुल मिलाकर समूचे पूंजीपति वर्ग और राज्य मशीनरी ने मज़दूर वर्ग के खिलाफ भयंकर हमला बोल दिया है। जाहिर है कि मज़दूर वर्ग पर यह हमला पूंजीपति वर्ग द्वारा किया गया एक वर्गीय हमला है जिसका मुकाबला मज़दूर वर्ग अपनी वर्गीय एकजुटता के दम पर ही कर सकता है। मज़दूर वर्ग की वर्गीय एकता को खंडित करने के लिए साम्प्रदायिक हिंसा को उकसाने-भड़काने की कोशिशें इस बीच सत्ताधारी पार्टियों और उनके भाड़े के दलालों और गोदी मीडिया द्वारा लगातार जारी हैं। मुसलमानों के खिलाफ लगातार कुत्सा और झूठा जहरीला प्रचार करके उनके प्रति नफरत फैलाने और उनका दानवीकरण करने (इस्लामोफोबिया निर्मित करने) में दिन रात जुटा है।

मज़दूर वर्ग को सचेत तौर पर शासक वर्ग के ऐसे घिनौने विभाजनकारी षड्यंत्रों का पर्दाफाश करते हुए मज़दूर वर्ग की वर्गीय और संग्रामी एकता को बुलंद करना होगा।

आज मज़दूर वर्ग की वर्गीय और संग्रामी एकता की राह में एक बाधा खुद मज़दूर वर्ग के भीतर पैठा गद्दार नेतृत्व और विजातीय प्रवृत्तियां हैं लेकिन मज़दूर वर्ग में विद्यमान तमाम विजातीय प्रवृत्तियों से पर पाने में भी वर्गीय आधार पर संगठित संघर्ष ही कारगर होगा।

इंक़लाबी मज़दूर केंद्र मज़दूर आबादी के सभी हिस्सों, ट्रेड यूनियनों व संघर्षरत मज़दूर वर्गीय संगठनों से अपील करता है कि मज़दूर वर्ग पर पूँजीपति वर्ग के इस हमले का कारगर और असरकारी जवाब देने के लिए एकजुट हों। अपने स्तर पर प्रतिरोध के हर मुमकिन अवसर को पहचानते हुए, हर मुमकिन जुझारू कार्यवाही और तरीकों को अमल में लाएं।

22 मई को केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा आहूत और मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) द्वारा समर्थित देशव्यापी विरोध प्रदर्शन में सक्रिय व जुझारू भागीदारी करें।

जारीकर्ता- खीमानंद
महासचिव,इंक़लाबी मज़दूर केंद्र


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