तकनीक का इस्तेमाल कर अवैज्ञानिकता को बढ़ावा दिया जा रहा: गौहर रज़ा


इंदौर। “धर्म में ग़लती बताने पर फ़तवा दे दिया जाता है, सिर भी क़लम किया जा सकता है, जबकि विज्ञान में अपने से बड़े या पूर्ववर्ती वैज्ञानिक की ग़लती निकालने पर किसी को नोबेल पुरस्कार भी मिल सकता है। विज्ञान के सवाल फिजिकल फोर्स से नहीं बल्कि वैज्ञानिक पद्धति से हल किये जाते हैं।  धर्म में सवाल ‘क्यों’ से शुरू होते हैं जबकि विज्ञान में सवाल ‘कैसे’ से शुरू होते हैं।” विज्ञान और धर्म के इस बुनियादी फ़र्क़ को कवि और वैज्ञानिक डॉ. गौहर रज़ा ने अपने व्याख्यान में विस्तारपूर्वक बताया। वे वंचित तबकों के हितों के लिए निरंतर सक्रिय रहे पत्रकार संजीव माथुर की स्मृति में आयोजित तीसरे स्मृति दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में “वैज्ञानिक नज़रिये की ज़रूरत” विषय पर बोल रहे थे। 



उन्होंने कहा कि सृष्टि में मानव के पैदा होने की अनेक कहानियाँ प्रचलित है। सभी धर्मों की अपनी-अपनी मान्यताएँ हैं। मान्यता अंधविश्वास तब बनती है उसे अक्ल के पैमाने पर कसा नहीं जाता। इसीलिए बुद्ध कहते हैं  कि स्वयं परखना ज़रूरी है। दुनिया को बदलना आसान काम नहीं है, लेकिन नये तथ्य सामने आने पर दुनिया के बारे में अपनी मान्यताओं को बदलना पड़ता है।  बदलने के संघर्ष की शुरुआत विचारों के संघर्ष से होती है। हमने अपने बड़ों से कभी न कभी यह सवाल ज़रूर पूछे होंगे, ब्रह्माण्ड क्या है, हम क्यों हैं? हम कहाँ से आये हैं? समाज में हमारे बड़े-बुज़ुर्ग अक्सर जटिल सवालों को भगवान की मर्जी कह कर टाल देते हैं। भगवान है अथवा नहीं, ऐसा दावा विज्ञान का नहीं है। जब आप भगवान, अल्लाह, या गॉड जैसी किसी दैवीय शक्ति में यक़ीन करते हैं तो सामान्य नियम वहाँ टूटते हैं। विज्ञान में सामान्य घटनाओं से नियम बनते हैं।  हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी जब स्कूल कॉलेज से बाहर निकलता है तो उसका साइंस से रिश्ता टूट जाता है।  

उन्होंने कहा कि उदारीकरण के बाद समाज में बड़ा बदलाव आया है। अस्पतालों और डॉक्टरों के क्लिनिक में धार्मिक प्रतीक नज़र आने लगे।  वर्ष 2014 के बाद तकनीक का इस्तेमाल ज़रूर बढ़ा लेकिन इसका इस्तेमाल कट्टरपंथी ताक़तों ने भी किया। नतीजतन कल तक जो तोता लेकर पटरी पर बैठे थे, आज वह हवाई जहाज में उड़ रहे हैं। देश में वर्ष 2014 से धर्म की बरसात हो रही है। शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों सहित अनेक सार्वजनिक स्थलों में शायद ही कोई संस्थान होगा जहाँ धार्मिक संरचनाएँ, तस्वीरें आदि नहीं हों। बच्चों के पैदा होने से उसकी मृत्यु तक व्यक्ति को धार्मिक संदेश, उपदेश मिलते रहते हैं। दुनिया में सर्वाधिक बिक्री धार्मिक पुस्तकों की ही होती है, बावजूद इसके युद्ध, हिंसा, अनैतिकता में कोई कमी नहीं आई है। गौहर रज़ा ने कहा कि विज्ञान और तकनीक के बिना कोई भी धार्मिक आयोजन सफल नहीं होता। तमाम संत-महात्मा, पीर- फकीर बिना लाउड स्पीकर के उपयोग के अपनी बात ही हज़ारों-लाखों भक्तों से नहीं कर सकते। विडंबना है कि विज्ञान से पैदा हुई तकनीक का उपयोग करके ही वे विज्ञान को कटघरे में खड़ा करते हैं और अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देते हैं। उन्होंने अपनी विख्यात नज़्म “जब सब ये कहें ख़ामोश रहो, जब सब ये कहें कुछ भी न कहो, आवाज़ उठाना लाज़िम है, हर कर्ज़ चुकाना लाज़िम है” सुनाई।   



पत्रकार, एक्टिविस्ट, कवि और नाट्यकर्मी संजीव का निधन 2023 की 28 जून को 48 वर्ष की आयु में हो गया था। वे शुरुआत में आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) और सीपीआई से जुड़े थे। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से अंत तक जुड़े रहे। उन्होंने कुछ वर्ष इंदौर में भी काम किया था और पत्रकारों का संगठन बनाने का प्रयास भी किया था।

अपने अंतिम वर्षों में उनके प्रयास ग़रीब बच्चों को वैज्ञानिक शिक्षा देने और मज़दूरों और दलितों को एक साथ जोड़कर मोर्चा बनाने पर था।  इस वर्ष उन्हें याद करने के लिए संजीव के दोस्तों ने संदर्भ केंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ, जन नाट्य संघ (इप्टा), स्टेट प्रेस क्लब आदि के सहयोग से इंदौर में 28 जून को अभिनव कला समाज में कार्यक्रम का आयोजन किया था। 

शाम छः बजे से हुए गौहर रज़ा के व्याख्यान के पहले दिन भर क़रीब पाँच घंटे संजीव को मीडिया पर वैचारिक मंथन के माध्यम से याद किया गया। देश के विभिन्न अंचलों से आये संजीव के मित्र, पत्रकार अन्य प्रबुद्ध जन इंदौर में एकत्र हुए और मीडिया पर अंतर्संवाद के तहत “क्रांतिकारी बदलाव में मीडिया की भूमिका” विषय पर खुलकर चिंतन-मनन हुआ। 

वरिष्ठ पत्रकार हरनाम सिंह ने कहा कि भारत में मुख्यधारा मीडिया के पतन का दौर 1957 से ही प्रारंभ हो गया था जब देश और दुनिया की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को सीआईए की मदद से गिराया गया था। उस दौरान समाचार पत्रों की भूमिका बेहद शर्मनाक थी। उन्होंने झूठे, आक्रामक प्रचार के माध्यम से सरकार के खिलाफ माहौल बनाया। पीत पत्रकारिता से होते हुए भारतीय पत्रकारिता वर्तमान में प्रोपेगेंडा पत्रकारिता में तब्दील हो चुकी है। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के कारण मीडिया संस्थानों पर औद्योगिक समूहों का क़ब्ज़ा हो गया है। मीडिया से गाँव, ग़रीब, आदिवासी, मज़दूर के मुद्दे ग़ायब कर दिए गए हैं। 

संजीव के साथ पत्रकारिता में साथी रहे बिज़नेस स्टैंडर्ड के वरिष्ठ पत्रकार संदीप कुमार संजीव को याद करते हुए बताया कि संजीव तकनीक का विरोधी न होकर भी अपने संपादक के आदेश के खिलाफ गया और पेज सेटिंग करने  कर दिया क्योंकि उससे पेज सेटिंग करने वाले की नौकरी चली जाने वाली थी। उन्होंने मीडिया की भूमिका में आ रहे बदलाव और मीडिया कर्मियों में वैचारिक विचलन को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि बिना विचार का पत्रकार चैट जीपीटी की तरह केवल कमांड फॉलो करता है जो अपने आप में एक खतरनाक बात है।



भोपाल की वरिष्ठ पत्रकार पूजा सिंह ने तहलका में नौकरी के दौरान संजीव के साथ अपने अनुभव बाँटे। उन्होंने मीडिया में व्याप्त लैंगिक असमानता और समाचारों तथा न्यूज़ रूम पर इसके दुष्प्रभावों को उदाहरणों के साथ सामने रखा और मीडिया के भीतर लैंगिक ढाँचे में बदलाव की ज़रूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि विभिन्न मीडिया संस्थानों और मीडिया स्कूल्स को जेंडर सेंसिटिव बनाये बिना मीडिया के भीतर लैंगिक संवेदनशीलता नहीं आएगी।

रायपुर से आये संपादक और नाट्यकर्मी सुभाष मिश्र ने इस सन्दर्भ में रायपुर में किये गए प्रयोग की जानकारी दी जब उन्हों ने अपने एक चैनल में सिर्फ़ महिला पत्रकारों को नौकरी पर रखा था और उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर उनसे फ़ील्ड रिपोर्टिंग भी करवाई थी। इस पहल में उन्होंने एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी शामिल किया था। बाद में वह चैनल संसाधनों के अभाव में चल नहीं पाया और बंद हो गया।  

भोपाल से आये एनडीटीवी के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कार्यकारी संपादक अनुराग द्वारी ने कहा कि हम अपने हिस्से की ईमानदारी बरतें तो ही मीडिया में बदलाव आ सकता है। वर्तमान में खबरों की सच्चाई को रेटिंग से मापा जाता है। हम अपनी इंसानियत को बचाए रखकर ही कर्तव्य पालन कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि जब समूचा मीडिया टीआरपी के लिए मुसलमानों को ईद पर सड़कों पर नमाज़ पढ़ते दिखाने पर आमादा था तो उन्होंने भोपाल के लिए यह कहकर इसकी रिपोर्टिंग से मना कर दिया था कि भोपाल में बहुत बड़ी मस्जिद है और यहाँ लोग सडकों पर नमाज़ नहीं पढ़ते तो मैं क्यों दिखाऊँ। उनका कहना था कि अगर हमने अपने भीतर सच  बचाये रखा है तो चाहे मेनस्ट्रीम हो या कोई और माध्यम, हम सच को ही दिखाएँगे। नौकरियों का दबाव होता है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन अपना ईमान भी होता है।   

वरिष्ठ पत्रकार और आउटलुक हिंदी के कुछ समय पूर्व तक संपादक रहे अभिषेक श्रीवास्तव ने कहा कि क्रांतिकारी बदलाव में वर्तमान मुख्यधारा मीडिया की भूमिका नकारात्मक ही होगी। इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। भारतीय मीडिया का चरित्र जन विरोधी है। वह राज्य और वैश्विक पूंजी का हित चिंतक हैं। मीडिया के मालिकों और उद्योगपतियों में गठजोड़ है। वैकल्पिक मीडिया के नाम पर भी अनेक संस्थान एनजीओ बनाकर दुकान चला रहे हैं। मेरा मानना है कि चाहे हम मेनस्ट्रीम में हों या वैकल्पिक पत्रकारिता में या ब्लॉगिंग आदि किसी भी क्षेत्र में, हमें अपनी पत्रकारिता को जन आंदोलन के साथ जोड़कर रखना ज़रूरी है तभी हमारी पत्रकारिता क्रान्तिकारी बदलाव में अपनी छोटी-बड़ी भूमिका निभा सकती है।



आयोजन का संचालन करते हुए संजीव के दोस्त रहे प्रलेसं के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कहा कि इस विषय को रखने के पीछे उद्देश्य यह था कि संजीव चाहे कविता लिखता हो, या नाटक करता हो, या शिक्षा के आंदोलन में काम करता हो या पत्रकारिता में नौकरी कर रहा हो, वह सब करते हुए उसकी खोज दरअसल एक बदलावकारी काम करने की थी। जब क्रान्तिकारी बदलाव में मीडिया की भूमिका की बात होगी तो ज़ाहिर है कि वह मीडिया भी मुख्यधारा का पूंजीपतियों के नियंत्रण वाला मीडिया न होकर क्रन्तिकारी मीडिया होगा जो जनता के मुद्दों को प्रमुखता से उठाएगा। रूस, चीन, जर्मनी, क्यूबा आदि अनेक देशों के अंदर क्रांति के और भारत में स्वतंत्र आंदोलन के दौर में, या हाल के वक़्त में नेपाल, वेनेज़ुएला, श्रीलंका आदि देशों में  मीडिया की भूमिका को देखकर हम आज की मुश्किलों का हल ढूँढने में इतिहास के अनुभवों और मौजूदा प्रयोगों की मदद ले सकते हैं। ज़रूरत है क्रांति के ख़्वाब को साकार करने की। 

भोपाल से आये कवि अनिल करमेले ने “गोरे रंग का मर्सिया” कविता का पाठ किया। आयोजन का शुभारंभ शर्मिष्ठा घोष द्वारा गाये गीतों से हुआ, तबले पर संगत विनय कुमार राठौर ने की। उन्होंने हबीब जालिब कि नज़्म “दस्तूर” और भूपेन हज़ारिका के गीत “ओ गंगा बहती हो क्यों” की प्रस्तुति दी। 



इस मौके पर रूपांकन की ओर से पत्रकारिता पर आधारित एक पोस्टर प्रदर्शनी और युद्ध विरोधी पोस्टरों की प्रदर्शनी भी लगायी गई थी। परिचर्चा में अभय नेमा, विनोद बंडावाला, जयप्रकाश गूगरी, अशोक शर्मा, चुन्नीलाल वाधवानी, जया मेहता, मौली शर्मा, जयप्रकाश, सुभाष मिश्रा, संजय वर्मा, सारिका श्रीवास्तव, चक्रेश जैन, अथर्व शिंत्रे  आदि ने भाग लिया। अतिथियों को बुद्ध की प्रतिमा का स्मृति चिह्न दिया संजीव की जीवन साथी रहीं रश्मि शशि और संजीव के दोस्तों कपिल स्वामी, खुशीराम, मोहिनी, मोहित (दिल्ली) आदि ने और आभार प्रदर्शन बालकराम (दिल्ली) ने किया। कार्यक्रम में दिल्ली, गाज़ियाबाद, जामिया, उज्जैन, रायपुर, बुलढाणा, भोपाल, देवास आदि स्थानों से लोग शामिल हुए।


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