अपनी छवि की गुलामी का ‘बेशरम रंग’ क्यों ढो रहे हैं बॉलीवुड के बूढ़े सितारे?


अब जब ‘पठान’ और उससे जुड़े तथाकथित विवाद की धूल थोड़ी बैठी है, लोगों की चीख-पुकार का डेसिबल थोड़ा मद्धम पड़ा है, तो सबसे खुश शाहरुख-दीपिका और इस फिल्म से जुड़े बाकी लोग होंगे क्योंकि फिल्‍म रिलीज होने से पहले ही एक गाने के बहाने चर्चा में आ चुकी है। विवादित गाने के राइट्स से जाने कितनी कमाई हो चुकी है और फिल्‍म का प्री-रिलीज कारोबार 130 करोड़ रुपया बताया जा रहा है।

बाकी, विवाद का क्या है? वह तो इस पर भी हो सकता है कि गाने की शूटिंग स्पेन में क्यों हुई, राष्ट्रवादी नजरिये से तो पांडिचेरी, मुंबई या गोआ में भी यह हो सकता था। विवाद गाने की धुन चोरी की होने को लेकर भी हो सकता था, जिसके आरोप लग चुके हैं। सवाल किसी एक विवाद के बहाने किसी एक फिल्म के बहिष्कार या ‘कैंसल कल्चर’ का नहीं है।

‘पठान’ के उस एक गाने के विरोधियों ने तो ऐसा हास्यास्पद मामला उठाया है जिसका तिया-पांचा इंटरनेट के महावीरों ने आधे घंटे के अंदर कर दिया है। बात बिकि‍नी, उसके भगवा रंग, कथित अश्लीलता, वगैरह की है ही नहीं। बिकिनी ठीक वही होती है जो दीपिका ने पहनी है और उनसे वेष्टि पहनने की मांग अतार्किक है। रहा अश्लीलता का सवाल, तो इंटरनेट की मेहरबानी से हरेक घर में ऐसे तमाम शो और फिल्म उपलब्ध हैं जिनमें तमाम किस्‍म की यौन-क्रीणाएं शामिल हैं। आपत्ति तो इस पर होनी चाहिए कि जनसंचार के एक इतने जबर्दस्त माध्यम को कचरा परोसने का यंत्र क्‍यों बना दिया गया है। मुकदमा तो इस पर दर्ज होना चाहिए कि करोड़ों फूंक कर भी दर्शकों के सामने इस तरह की चीज क्यों परोसी जा रही है। क्‍या इसका शाहरुख की निजी महत्‍वाकांक्षा से कोई लेना-देना हो सकता है?

एक बार शाहरुख खान ने अपने इंटरव्यू में राजदीप सरदेसाई से कहा था कि उन्होंने शाहरुख खान नाम की एक इमेज बनाई है, बन गई है और वह उसके नौकर हैं। शाहरुख अच्छे कम्युनिकेटर हैं और ईमानदार भी हैं, हालांकि यह बिल्कुल अलग बात है कि इंडस्ट्री में तीन दशक बिताने के बाद अब उनके पास इतना पैसा और अतुलित यश है कि वह अपनी नौकरी से इस्तीफा दे सकते हैं, लेकिन वह मजबूर हो चुके हैं। अपनी ही छवि की यह गुलामी चिंताजनक है, यह मजबूरी बेहद परेशान करने वाली है। जितना पैसा बोटॉक्स और वीएफएक्स पर खर्च कर के 57 साल में 37 की दीपिका के साथ उन्‍होंने बेहद छिछोरे स्टेप्स करने में लगाया है, उसके बटा बीस-पच्‍चीस में एक अदद अच्छी कहानी लेकर आ सकते थे। वैभवी मर्चेंट ने दीपिका और शाहरुख की कोरियोग्राफी बेहद गंदे ढंग से की है और काफी सस्ते स्टेप्स उनको दिए हैं। क्‍या किंग ऑफ रोमांस बने रहने के लिए साठ के लपेटे में शाहरुख के लिए यही रास्‍ता बचा था?

दीपिका भी अब उम्र के उस पड़ाव पर हैं कि अगर जल्द ही वह सितारा की जगह ‘अभिनेत्री’ नहीं बनीं, तो अनजान सितारे की तरह डूब जाएंगी। हीरोइनों के रिप्लेसमेंट की दर तो मुंबइया इंडस्ट्री में और भी तेज है। जहां श्रीदेवी और माधुरी को किनारे लगाने में देर नहीं की गयी, वहां दीपिका भला कितनी देर और कैसे टिकेंगी?

समस्या यह है कि सलमान हों, शाहरुख हों या अक्षय-अजय, यानी कथित ए-लिस्टर्स स्टार (जो भी 55 से ऊपर या आसपास हैं), वे उम्र की सच्चाई को स्वीकार कर ही नहीं रहे। यही वजह है कि अब तक हिंदी सिनेमा एक ‘फॉर्मूले’ की खोज में लगा हुआ है और 2022 की शीर्ष दस फिल्‍मों में नौ दक्षिण भारतीय फिल्‍में शामिल हैं।

निर्मल वर्मा ने लिखा था, ‘बूढ़ा होना बहुत बड़ी चुनौती है। ग्रेसफुल तरीके से बूढ़ा होना हर किसी को नहीं आता। जिनको आता है, वे बहुत भव्य हो जाते हैं।’ निर्मल जैसे दुनिया देखे लेखक ने ये बात कही है। सोचकर देखिए, कितनी आनुभविक बात होगी। हमारे कथित नायकों की यही समस्या है। यहीं आप हॉलीवुड को देख लीजिए। एंथनी हॉपकिंस, अल पचीनो, रॉबर्ट डी नीरो और रोबिन विलियम्स आदि की बात तो छोड़ दीजिए। ब्रूस विलिस, जेसन स्टेथन, मैट डैमन, बेन अफ्लेक जैसे एक्शन हीरो भी अपनी उम्र के मुताबिक भूमिकाएं चुन लेते हैं या कम से कम अपने लुक्स को लेकर अतरंगी प्रयोग नहीं करते। ‘डाई हार्ड’ सीरीज की फिल्में भले अरबों में बनी हों, लेकिन ब्रूस विलिस अपने टकले और फटी गंजी, जींस में पूरी फिल्म कर डालते हैं। हिंदी फिल्म में हीरो पिटता रहेगा, लेकिन अरमानी के सूट से बाहर निकल नहीं पाता है।

एंथनी हॉपकिंस ने 84 साल की उम्र में फिल्म की है, ‘द फादर’। इसमें उनकी बेटी ओलिविया कॉलमैन बनी हैं जो 47 की हैं। बाप-बेटी की भूमिका में दोनों ने हिला दिया है। सर एंथनी तो ऑस्कर बटोर ले गए। हिंदी सिनेमा के साथ दिक्कत है कि साठ के आसपास के सितारे भी 24 वर्षों की लड़की के साथ कूल्हे हिलाना चाहते हैं। नायिकाओं के साथ भी यही भेदभाव है। उनको पैसे भी कम मिलते हैं और 40 होते-होते उनको मां-मौसी की भूमिकाएं मिलने लगती हैं, पर हमारे बूढ़े हीरो कभी बूढ़े होते ही नहीं।

यह रोग कोई आज का नहीं है। अमिताभ बच्चन जब अपने उरूज पर थे, तो उनकी मां बननेवाली हीरोइन उम्र में कई बार उनसे छोटी होती थी। वहीदा रहमान उनकी प्रेमिका भी बनीं, भाभी भी और मां भी। अमिताभ बच्चन ने भी बुढ़ापे को ग्रेसफुल तरीके से स्वीकारने से इंकार कर दिया था। वैसे, तब बोटोक्स, जिम की कमी, वीएफएक्स की अनुपस्थिति ने उनके लिए ग्रेस के अधिक मौके छोड़े भी नहीं थे, यानी वह जितना झूठ परोसना चाहते थे वह हो नहीं पाता था। इस लेखक को याद है कि जब ‘मृत्युदाता’ से उनकी वापसी हुई थी तो किस कदर माहौल बनाया गया था, लेकिन उनकी तोंद, आंखों के नीचे लटका मांस और थकान छिप नहीं पाती थी। ‘लाल बादशाह’ में शिल्पा शेट्टी और मनीषा कोइराला के संग थिरक कर उन्होंने जब अपनी भद पिटवाई, तब भी नहीं सुधरे। हां, दिवालिया होने के बाद ‘कौन बनेगा करोड़पति’ ने उन्हें सद्बुद्धि दी और वह मेकओवर के साथ पेश हुए।

आज के बूढ़े हीरो बोटोक्स के इंजेक्शन, हेवी मेकअप, जिम-शिम और वीएफएक्स के जरिये अपने प्रशंसकों को धोखे में डाले रहते हैं, लेकिन वक्त तो बेरहम होता है। ‘बेशरम रंग’ गाने में शाहरुख अपना सिग्नेचर मूव करते हैं, लेकिन अपना ही बदतर कैरिकेचर बनकर रह जाते हैं। वह या उनके सभी साथी अभिनेता अच्छे हैं। हिंदी फिल्म जगत को बस जरूरत है एक अच्छी कहानी खोजने की। बाकी, न तो दर्शकों को गाली देने की जरूरत पड़ेगी, न जबरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा दिखेगा, न ही अंधराष्ट्रवाद उनकी आंखों में चुभेगा।

कुछ नहीं, तो अपने दक्षिण के साथियों से ही सीखें। सुपर सितारे रजनीकांत जब परदे पर नहीं होते हैं तो अपने टकले और कुरते-पाजामे के साथ ही हाजिर होते हैं। यह चीख-चीखकर बताता है कि परदे पर वह सपने बेच रहे हैं। शाहरुख की तरह झूठ नहीं। झूठ और सपने में बहुत बारीक फर्क होता है।



About व्यालोक

Journalist, social media consultant and columnist

View all posts by व्यालोक →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *