किनिर: आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करने वाली नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाती कविता


वंदना टेटे का दूसरा कविता संग्रह ‘किनिर’ प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, झारखंड से छपकर आया है। किनिर का अर्थ जंगल होता है। वंदना टेटे जी का पहला कविता संग्रह ‘कोनजोंगा’ भी काफी प्रसिद्ध हुआ था। जैसा कि नाम से लग रहा है कि इसमें किस तरह की कविताएं होंगी। वंदना आदिवासियत को बचाये रखने की परंपरा की मुख्य वाहक हैं। उनकी कविता आदिवासियत से ओतप्रोत है। वह जंगल के माध्यम से मानव सभ्यता को बचाये रखने की उम्मीद भी करती हैं और गुहार भी लगाती हैं।

वंदना टेटे इस कविता संग्रह की भूमिका में ही अपनी बात स्पष्ट करती हैं-

जंगल आदिवासियों का प्राण-तत्व है। जंगल ही उसे जीवन देता है। शिकार के लिए, खेती के लिए और जीवन की सभी आवश्यक जरूरतों के लिए। हर तरह के उद्दम और कला-कौशल के लिए। जहां उसके पुरखों का निवास है, जहां उसके बोंगा रहते हैं और जहां वह उन सभी शक्तियों को गोहारता है जो उसके अभिभावक हैं।

कविता संग्रह की मूल अंतर्वस्तु ही जंगल को बचाने की है। कविता संग्रह के माध्यम से जंगल गाथा कहने में तनिक हिचकिचाहट नहीं दिखायी देती। ये कविताएं नये भावबोध से लैस हैं। यहां नया भावबोध का तात्पर्य यह भी है कि उनकी कविताएं किसी परंपरागत सौंदर्यशास्त्र के पैमाने के अनुसार न चलकर अपनी स्वयं की जमीन बनायी हैं। उनके यहां जंगल की पूरी गाथा मिलती है। संग्रह में शामिल आदिवासी कविताएं हमें आदिवासियत की मूल परंपरा तक ले जाती हैं। जंगल गीत भी मिलते हैं। बेहद सरल भाषा में वह संवाद करती दिखायी देती हैं। जाहिर है कि संवाद जहां भी एकतरफा होगा वहां अनिष्ट होना तय है। धरती से भी मनुष्यों का एकतरफा संवाद आज के विनाश का कारण बनता जा रहा है। धरती भी कुछ कहती है किन्तु मनुष्य अपने विकास के अंधी दौड़ में उसे अनसुना कर देता है।

एक कविता से कुछ पंक्तियां देखिए-

हम कविता नहीं करते

अपनी बात कहते हैं

जैसे कहती है धरती

आसमान, पहाड़, नदियां…

उनकी कविता में प्रकृति मुख्य केंद्रीय बिन्दु है। कविताएं किसी शास्त्री द्वारा बनाए गए रूप-सौन्दर्य की आकांक्षी नहीं हैं बल्कि वे प्रकृति के बीच स्वतः निखरती हैं। वह किसी भी उपमानों से बंधी नहीं हैं बल्कि धूप की तरह सर्वत्र फैल रही हैं। बहुत सारी कविताओं में प्रकृति बस स्मृति के रूप में आती है क्योंकि वह लगातार नष्ट हो रही है। प्रकृति के अंदर ही मनुष्य भी है। वंदना टेटे की कविताएं उन स्मृतियों को बचाये रखने की जद्दोजहद कर रही हैं।

हमारी कविताएं और गीत

धूप की तरह हैं

जिनका रूप-सौन्दर्य कोई शास्त्री नहीं

प्रकृति का विराट साया

निरखता और गुनता है।      

आदिवासी काव्य-परंपरा में कोई आलोचक नहीं होता। बस एक सामूहिक जीवन-दृष्टि होती है जिसमें निजता और सामूहिकता इस तरह से गुंथे हुए होते हैं कि दोनों को गैर-आदिवासी विश्व के ‘दूध और पानी’ दर्शन की तरह अलग ही नहीं किया जा सकता। इस सृष्टि में जिस प्रकृति से हम घिरे हैं उसके एक जीवंत अंश से कट जाने की पीड़ा और बेचैनी वंदना टेटे की कविताओं में कई तरह से अभिव्यंजित हुई है। आदिवासी-परंपरा की इस चिंतन-दृष्टि में प्रकृति की समग्रता की चिंता निहित है। इसलिए इसे केवल अस्मितागत दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। उन्हें जितना विस्थापित किया गया वे उतनी ही अधिक अपनी जड़ों से जुड़ते गए। आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करती नीतियों के प्रति ये कविताएं आवाज़ उठाती हैं, तो साथ ही प्रकृति और पुरखों से चली आ रही परंपराओं को लेकर भी सजग हैं किन्तु इन चिंताओं और विरोधी तेवर के बावजूद जमीनी हकीकत से वे वाकिफ हैं। वह स्पष्ट रूप से कहती हैं कि–

हम फैले हुए हैं

हम पसरे हुए हैं

हम यहीं इसी पुरखा जमीन में धँसे हैं सदियों से

हमें कौन विस्थापित कर सकता है

सनसनाती हवाओं और तूफानी-सी

हमारी ध्वनियों-भाषाओं को

कौन विलोपित कर सकता है।


  • पुस्तक का नाम : किनिर
  • कवयित्री : वंदना टेटे 
  • प्रकाशक : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची, झारखंड
  • प्रकाशन वर्ष : 2022
  • मूल्य : 150 रुपये


भूमंडलीकरण के दौर में हम एक-दूसरे से बहुत दूर होते जा रहे हैं। हमारे पास सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं होते हुए भी हम एक-दूसरे से दूर हैं। वह आदिवासियों को समझाते हुए कहती हैं कि कभी-कभी दिखना चाहिए वरना हमारा अस्तित्व रहते हुए भी खो जाएगा। दिखने का तात्पर्य यहां वंदना टेटे के अनुसार यह है कि हमें अपनी संस्कृति, सामाजिक सम्बन्धों को बनाकर चलना चाहिए।

कभी-कभी दिखना भी चाहिए

वरना तुम्हारा अस्तित्व और इतिहास

दोनों को एयरकंडीशन

चट कर जाएगा !     

विस्थापन पर भी उनकी कलम चुप नहीं रहती है। ईसा संग्रह में कई कविताएं हैं जो इस दुष्चक्र के खिलाफ आवाज उठती हैं और सवाल पूछती हैं। वह पूछती हैं कि आखिर आदिवासी कहां जाएंगे?

ए ढेंचुवा

बारिश में आदिवासी कहाँ जाएंगे?

इस पर लोकतन्त्र चुप है! 

वह पर्यावरण के अवमूल्यन से चिंतित हैं। जंगलों के लगातार दोहन से निराश हैं। वह यह सोचती हैं आखिर हमें क्या और किस तरह से सोचना चाहिए। क्योंकि अक्सर सभ्य इंसान के दिमाग में जंगलों की तरह सोचने की क्षमता नहीं होती है। मनुष्य और प्रकृति के अन्योन्याश्रित संबंध तथा आदिवासी संस्कृति और परंपरा को सूक्ष्म रूप से समझकर उसके महत्त्व को निरूपित करने का यह सर्वाधिक उचित समय है। ये पंक्तियां एक अनिश्चित और भयावह भविष्य की ओर इशारा करती हैं। इनमें यह आशंका व्याप्त है कि कहीं आज जो कुछ बचा है, वह भी नष्ट न हो जाए। कविताओं ने प्रकृति के साथ अपने जीवन की विडम्बनाओं के भी मार्मिक चित्र खींचे हैं। वंदना टेटे अपने चिंतन द्वारा इसे मुखरता से प्रतिपादित करती हैं।

पेड़ों की तरह सोचती हूं

तो जंगल हो जाती हूँ

बादल की तरह की सोचती हूँ

तो नदी हो जाती हूँ

घास की तरह सोचती हूं

तो घोसला हो जाती हूं

और विकसित सभ्यता

की तरह सोचती हू

तो दिल्ली महानगर का कभी न छंटने वाली जानलेवा

विषैला धुंध हो जाती हूं

वंदना टेटे अपनी पुरखों की विरासत को संभालकर रखना चाहती हैं। आदिवासी परंपरा में पुरखों को कभी मृत प्राणी की संज्ञा नहीं दी जाती है। वाचिक परंपरा में उनसे जुड़े किस्से, संगीत पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं। इस संग्रह के माध्यम से वह पुरखों की स्मृतियों को सँजोने का जतन भी करती दिखायी देती हैं।

लौटते हैं पुरखे

अपनी पुरानी दुनिया के साथ

कहावतों में मुहावरों में

गीतों में कहानियों में

बांसुरी बजाते हुए  

वंदना की कविताएं आदिवासी पहचान और आवाज की कविताएं हैं। वे किसी हिन्दी मुहावरे या रूढ़ सांचे का अनुकरण नहीं करती। उनके पास कहने को अपनी बात है और अपना भाषिक लहजा। इसलिए उनकी काव्याभिव्यक्ति में विविधता है। वे अपनी जड़ों से जुड़ी रहकर हिन्दी में सृजनशीलता का परिचय देती हैं। वंदना टेटे जिस काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों को खारिज करती हैं उनकी काव्याभिव्यक्ति के सहज प्रवाह में वे स्वाभाविक उपस्थिति दर्ज कराते हैं, उसे अधिक व्यंजक बनाते हैं। किन्तु ये बिंब आदिवासी जीवन-यथार्थ का अभिन्न हिस्सा हैं। कविताओं में हमें सौन्दर्य का बखान करने के लिए उन्हें किसी बाह्य रूपकों की आवश्यकता नहीं पड़ती है बल्कि वह अपनी परम्पराओं से जुड़ी चीजों में से ही रूपकों का निर्माण करती हैं।  

टांगी, हंसिया, दाब, दरान्ती

ये सब हमारी सुंदरता के प्रसाधन हैं

जिन्हें हाथ में पकड़ते ही

मैं दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री हो जाती हूँ।

आदिवासी कविता बिना किसी असुविधा के अपनी बात कह देने का माद्दा रखती है। यही बेबाकी आदिवासी कविता को अपनी एक नई जमीन तलाशने व परखने का मौका देती है। वंदना टेटे का स्पष्ट मानना है कि आदिवासी भाषाएं कोई सिजेरियन से पैदा नहीं हुई हैं बल्कि यह सदियों से उनके पुरखों द्वारा अनवरत बह रही हैं। इसे किसी भी नियम या राजनीतिक गलियारों के या किसी सामाजिक बंधनों में मत बांधिए। भाषा कोई बांधने की वस्तु नहीं है। वास्तव में भाषाओं पर बंधन लगाने से वह धीरे-धीरे मरने लगती है। इसके बाद उससे संबन्धित पूरा समाज भी कटने लगता है।

भाषा को जेंडर मत बनाओ

धर्मशास्त्रों में मत बांधों

राजनीतिक गलियारे में

उसका रेप मत करो

भाषा को बोली के गर्भ में

चैन से सांस लेने दो

उसे हर कहीं बगैर सिजेरियन

जन्म लेने दो    

प्रकृति का निरंतर दोहन करने वाले लोग उसकी मूल अंतरात्मा को नहीं समझ सकते। आज के समय में दिन-प्रतिदिन पर्यावरण पर संकट गहराता जा रहा है क्योंकि नित्य बढ़ते प्रदूषण का इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि आज के समय में पर्यावरण संरक्षण का महत्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है और यदि हमनें इस समस्या पर अब भी ध्यान नही दिया तो वह दिन दूर नही, जब अपनी ही गलतियों के कारण मानव जाति के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगेगा।

मत भूलो कोई एक पेड़

सिर्फ एक पेड़ भर नहीं है

वह फूल, फल है

धरती का बल है

मनुष्य की भोगवादी प्रवृति ने आज प्रकृति के संतुलन को खतरे में डाल दिया है। यही कारण है कि हमें अकाल, बाढ़, सूखा आदि का निरन्तर सामना करना पड़ रहा है। हर वर्ष कहीं न कहीं प्राकृतिक विनाश की घटनाएं घटती ही रहती हैं। भोगवादी मानव के साथ वैज्ञानिक प्रयोगों से भी प्रकृति को नष्ट किया जा रहा है। अज्ञेय ने अपनी कविता में कहा है कि- “मानव का रचा हुआ सूरज मानव को भाप बनकर सोख रहा है।”

नहीं रहेंगे पेड़

तो विशाल समंदरों वाले इस ग्रह में

धरती को कौन बांध कर रखेगा

तुम्हारे जैसे हर जीव को

आसरा कौन देगा

उत्तर-आधुनिक युग में भूमंडलीकरण व अबाध लूट व मुनाफे पर आधारित उपभोक्तावाद ने जिस तेजी के साथ इस प्रकृति का विनाश किया है वह पूर्ववर्ती कवियों ने सोचा भी नहीं होगा। इस संग्रह की कविताएं जो बाजारवादी-उपभोक्तावादी संस्कृति का मुखर विरोध करती हैं, इसी में वह पर्यावरण संकट पर चिंता जाहिर करते हुए पृथ्वी को बचाने का आह्वान करती है। वंदना लिखती हैं-

घर मिल जाएगा

खाने पहनने को मिल जाएगा

मगर बिना भाषा-संस्कृति के

हमारी पहचान क्या होगी

अपना इतिहास, अपनी भाषा

संस्कृति नहीं जानना

खुश होने या गर्व की बात है

इस भ्रम को तोड़ना चाहती हूं

इसलिए आप सबसे मदइत मांगती हूं।

निजी जगत से व्यापक विश्व चेतना तक वे अत्यंत सहजता से पहुँच बनाती हैं। वस्तुतः इसके पीछे भी आदिवासी जीवन-दर्शन का सह-अस्तित्व का विचार क्रियाशील है। आदिवासी जीवन दृष्टि व संस्कृति के वैशिष्‍ट्य के साथ कथित सभ्य समाज की संकीर्ण और एकांगी दृष्टि विकास की एकपक्षीय नीतियों पर नज़र रखते हुए वे बेबाकी से प्रश्न करती हैं और आपत्तियां सम्मुख लाती हैं। आदिवासी समाज की जातीय स्मृतियों को जीवंत रखते हुए सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में अस्तित्व की रक्षा हेतु सचेत रहने का भाव भी उनमें प्रखर है। नवशिक्षित आदिवासी समुदाय में सांस्कृतिक पहचान की चिंता के साथ परिवेश की विडंबनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि है।

पालना चाहती हूं मैं

अपने बच्चे को

थेथर की तरह

जहां भी तुम फेंको

ताकि जब भी तुम उखाड़ो

वह अपनी जड़ जमा ले

किनिर कविता संग्रह के माध्यम से वंदना टेटे द्वारा उठाए गए सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं। आज हमें आवश्यकता है कि साहित्य के नजरिये को बदलने कि और आदिवासी नजरिये से भी समाज को देखें व समझने की कोशिश करें। वास्तव में आदिवासियत की अवधारणा में ‘मैं’ नहीं बल्कि ‘हम’ की अवधारणा बेहद महत्वपूर्ण होती है। उनके यहां पूरा का पूरा एक समाज एक सामूहिक दर्जे के साथ रहता है।


सहायक प्रोफेसर (तदर्थ), हिन्दी विभाग
गुरु घासीदास (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
सह-संपादक, द पर्सपेक्टिव अंतर्राष्ट्रीय जर्नल (www.tpijssh.com)
सह-संपादक, स्वनिम त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका, हिन्दी विभाग, गुरु घासीदास (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़  Email anishaditya52@gmail.com


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