भारत में प्रतिवर्ष लाखों पत्रिकाओं/जर्नल्स का सम्पादन होता है। इनमें कुछ मासिक, त्रैमासिक, छमाही व वार्षिक पत्रिकाएँ शामिल हैं। पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए एक विदेशी संस्था द्वारा आइएसएसएन नंबर जारी किया जाता है। भारत में इसे निस्केयर के द्वारा संचालित किया जाता है। मुद्रित पत्रिका निकालने के लिए भारत सरकार द्वारा जारी आरएनआइ नंबर होना अनिवार्य है, वहीं ऑनलाइन के लिए सिर्फ आइएसएसएन काफी है। इन्टरनेट के आगमन के बाद वेब पत्रिकाओं की संख्या में बेतहाशा इजाफा हुआ है। पहले कुछ बड़े शहरों से ही अच्छी पत्रिकाएं व जर्नल्स निकलते थे किन्तु इन्टरनेट ने इसे सुगम कर दिया। अब कोई भी कहीं से भी वेब पत्रिकाओं का सम्पादन कर सकता है। इसने पत्रिकाओं के सम्पादन में लगने वाले खर्चे को भी कम कर दिया है। इन्टरनेट पर पहले सिर्फ अँग्रेजी में ऐक्सेस मौजूद था किन्तु युनिकोड के आने से हिन्दी भाषा की पत्रिकाओं व जर्नल्स भी अधिक मात्रा में निकलने लगीं। एक तरीके से यह भी कहा जा सकता है कि हिन्दी के विकास को नये पंख लग गए।
भारत में विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध कार्यों पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) अपना नियंत्रण रखता है और समय-समय पर निर्देश जारी करता है। 2016 के पहले पीएचडी/एमफिल और पीडीएफ की थीसिस में शोध-पत्र की अनिवार्यता नहीं थी। इसके बाद यूजीसी ने पीएचडी थीसिस/एमफिल डिजर्टेशन के साथ दो शोध-पत्र और दो सेमिनार पत्र को लगाना अनिवार्य कर दिया है। ये शोध-पत्र किसी रेफर्ड आइएसएसएन नंबर की पत्रिका में छपना अनिवार्य होता था। यूजीसी ने 2018 में यूजीसी एप्रूव्ड लिस्ट नाम से पत्रिकाओं और जर्नल्स की सूची जारी की थी जिसमें उसका स्पष्ट निर्देश था कि अब से विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापकों की नियुक्ति व पीएचडी/एमफिल थीसिस में यूजीसी एप्रूव्ड लिस्ट में शामिल पत्रिकाओं/जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्र ही मान्य किए जाएंगे। इसके बाद धड़ल्ले से सभी लोगों ने अपनी-अपनी पत्रिकाओं को इस कतार में शामिल करवाना शुरू कर दिया।
यूजीसी लिस्टेड पत्रिकाओं की सूची के बाद यूजीसी ने 2019 में यूजीसी ने CARE नाम से नई सूची जारी की है। यूजीसी के अनुसार अब इसमें शामिल पत्रिकाओं/जर्नल्स में ही प्रकाशित शोध-पत्र मान्य होंगे। इस समय ज़्यादातर संस्थागत पत्रिकाएं ही इस लिस्ट में शामिल हैं। निजी पत्रिकाएं या अन्य गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएं लगभग न के बराबर शामिल हैं। इधर यूजीसी केयर पत्रिका नाम का शिगूफ़ा आने के बाद पत्रिका संपादित करने वालों के तो जैसे पर ही निकल आए। यूजीसी CARE के नाम पर इस समय कुछ पत्रिकाएं व जर्नल शोधार्थियों से 2000 से 3000 तक रुपये वसूल रहे हैं। अक्सर देखा गया है कि इस लिस्ट में शामिल पत्रिकाओं का स्तर निम्नतर है। शोध जैसा कुछ भी नहीं दिखाई देता है। यूजीसी CARE लिस्ट सिर्फ एक कोटापूर्ति बन कर रह गई है। आए दिन यह भी शिकायतें मिलती हैं कि फलां विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में शोधार्थियों को बाध्य किया जा रहा है कि वे अपने शोध-पत्र का प्रकाशन यूजीसी लिस्ट में शामिल पत्रिकाओं में करवाएं। अब शोधार्थी के पास पैसे देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। बहरहाल, यहां शोधार्थियों की उदासीनता भी दिखाई देती है। जो अच्छे शोधार्थी होते हैं वे पहले से कुछ अच्छे जर्नल व पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा लेते हैं।
यूजीसी ने तमाम विरोधों के बावजूद पियर रिव्यूड पत्रिकाओं को भी नियुक्ति और पीएचडी थीसिस के मान्य तो कर दिया है लेकिन अभी कुछ संस्थाएं अपनी मनमानी से बाज़ नहीं आती। इससे गंभीर शोध प्रभावित हो रहा है। मनमाने तरीके से शोध-पत्रों का प्रकाशन हो रहा है। ऐसी कई यूजीसी एप्रूव्ड और यूजीसी केयर लिस्टेड पत्रिकाएं देखता रहता हूं जिनमें एक पेज या दो पेज के शोध-पत्र प्रकाशित हुए हैं। कोई-कोई जर्नल 1000 पेज के एक अंक निकाल दे रहे हैं। कई ऐसे पियर रिव्यूड जर्नल्स हैं जहां न कोई पब्लिश करने का फार्मेट है न ही कोई पैटर्न। कट-पेस्ट किया हुआ आर्टिकल भी प्रकाशित किया जा रहा है। यह काम धड़ल्ले से हो रहा है। इस काम ने आज के समय में व्यवसाय का रूप ले लिया है।
आइएसएसएन नंबर देने वाली संस्था का कार्य भी इतना ढीला है कि लगभग सभी को आइएसएसएन नंबर मिल जाता है। सिर्फ दिखावे के लिए उसमें समीक्षक मण्डल, संपादकीय मण्डल को भर दिया जाता है। बाकी सभी काम मालिक का होता है। पैसा दीजिए, एक हफ्ते अथवा 10 से 15 दिन में आर्टिकल प्रकाशित हो जाता है। ज़्यादातर जर्नल्स में प्लेगियरिज़्म (चोरी) चेक भी नहीं होता है। यह काम ऑनलाइन पत्रिकाओं व जर्नल्स में ज्यादा होता है। वे पैसे लेकर पीछे के अंकों में भी आर्टिकल प्रकाशित कर देते हैं। यह व्यवसाय आजकल काफी धड़ल्ले से चल रहा है। घर बैठे लोग लाखों रुपये कमा रहे हैं। शोध के नाम पर सिर्फ कट-पेस्ट ही हो रहा है। इस प्रकार के जर्नल्स में प्रकाशित 10 पेज के आर्टिकल को पढ़ने पर एक पंक्ति भी मौलिक नहीं दिखाई देती। ऐसे में हम गंभीर शोध की उम्मीद भी क्या ही कर सकते हैं।
इस पर चिंता जताते हुए वरिष्ठ कथाकार डॉ. देवेंद्र कहते हैं कि ‘नौकरियों के लिए केयर लिस्टेड पत्रिकाओं में प्रकाशन की अनिवार्य शर्तों ने रचनात्मकता के नाम पर हिन्दी विभागों को एक विशाल और बदबूदार कूड़ाघर बनाकर रख दिया है। इन केयर लिस्टेड पत्रिकाओं में आज तक एक भी ऐसा लेख नहीं छपा जिसकी कोई अनुगूंज साहित्यिक गोष्ठियों में सुनाई दी हो।’
अब आते हैं इम्पैक्ट फैक्टर पर। यूजीसी का निर्देश है कि थॉमसन रायटर्स द्वारा प्रदान किए गए इम्पैक्ट फैक्टर ही जर्नल्स के लिए मान्य होंगे, लेकिन आजकल यह काम भी बड़े धड़ल्ले से चल पड़ा है। ऐसी कई गैर-सरकारी संस्थाएं हैं जो इम्पैक्ट बांटने का काम करती हैं। एक साल के इम्पैक्ट लेने के लिए 5000 से 10000 रुपये तक वसूल रही हैं। पैसा दीजिए, मनचाहा इम्पैक्ट फैक्टर पाइए। दस में से आठ इम्पैक्ट फैक्टर वाले जर्नल का भी कोई गंभीर शोध नहीं दिखाई देता है।
हिन्दी के क्षेत्र में ऐसे गैर-जिम्मेदाराना तरीके से थोपा गया यह काम हिन्दी के लिए साथ अन्य सभी अनुशासनों के लिए भी नुकसानदायक साबित हो रहा है। हिन्दी भाषा और साहित्य की ऐसी कई पत्रिकाएं हैं जिनका अभी तक आइएसएसएन नंबर नहीं है किन्तु उनका स्तर काफी अच्छा है। ऐसी ही पत्रिकाओं ने हिन्दी साहित्य की गंभीरता को बचाए रखा है, लेकिन यूजीसी की केयर लिस्ट इन गंभीर पत्रिकाओं के अरमानों पर भी पानी फेरती दिखाई दे रही है। हिन्दी में हंस, कथादेश, उद्भावना, प्रतिमान, साखी जैसी पत्रिकाओं के लिए कोई जरूरी नहीं है कि वे यूजीसी लिस्ट में शामिल हैं या नहीं। उसकी गंभीरता अब भी बनी हुई है।
अभी हाल में यूजीसी ने एक नोटिस निकाला था कि संभवतः पीएचडी के दौरान दो शोध-पत्रों के प्रकाशन संबंधी अनिवार्यता पर पुनर्विचार हो रहा है। फिलहाल ऐसा होता है तो यह एक अच्छी पहल होगी। अब भी विश्वविद्यालयों में शोध के क्षेत्र में सुधार व क्रियान्वयन की आवश्यकता है, विशेषकर हिन्दी क्षेत्र में।
डॉ. अनीश कुमार
anishaditya52@gmail.com
- सहायक प्रोफेसर (तदर्थ), हिन्दी विभाग, गुरु घासीदास (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
- सह-संपादक, द पर्सपेक्टिव अंतर्राष्ट्रीय जर्नल (www.tpijssh.com)
- सह-संपादक, स्वनिम त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका, हिन्दी विभाग, गुरु घासीदास (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़