बुलडोजर संस्कृति का राजनीतिक अर्थशास्त्र और असमानता की जटिल गुत्थी


साम्प्रदायिक दंगों में हिस्‍सा लेने वाले सामान्य लोग हाते हैं जिनके दिमाग़ में भर दिया जाता है कि यही सबसे सही समय है जब क़ानून को हाथ में लिया जाय नहीं तो धर्म और आराध्य दोनों क़ा अस्तित्व नष्ट हो जाएगा। यह भीड़ का सहज व्यवहार है, जो संस्थागत रूप से सामूहिक व्यवहार के बल पर पूर्ण तैयारी के साथ अमल में लाया जाता है। अपराध विशेषज्ञों का मानना है कि साम्प्रदायिक “…दंगों में कई व्यक्ति शामिल होते हैं जो दूसरों के खिलाफ हानिकारक बल का निर्देशन करते हैं। सामूहिक हिंसा के कार्य पागलपन, विकृति, या जानबूझकर आपराधिक मानसिकता से उत्पन्न नहीं होते हैं; वे रोजमर्रा की जिंदगी और सांसारिक मुद्दों से निकलते हैं, और जो लोग इन कृत्यों को करते हैं वे सामान्य लोग होते हैं जो आश्वस्त हो जाते हैं कि मामलों को अपने हाथों में लेने का समय आ गया है।” उन्‍हें यह आश्वासन सरकारी तंत्र देता है जिसमें मीडिया अर्थात पत्रकारिता का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है। सरकारी तंत्र या मीडिया जब इस तरह के उन्माद को बढ़ावा देते हैं तो वह भूल जाते हैं कि इस तरह की भावना के पैदा होने से सामाजिक विभेद उत्पन्न होता है। सामाजिक विभेद से असमानता पैदा होती है और असमानता से ग़रीबी। इस ग़रीबी की जद में सभी पक्ष आते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है।

अभी भारत के कुछ राज्‍यों की सरकारों द्वारा एक धर्म विशेष के लोगों के मकानों पर धरना, प्रदर्शन और आंदोलन के कारण बुलडोज़र चलाया जा रहा है और इसे प्रशासन द्वारा स्वीकारा जा चुका है। यह प्रक्रिया दूरगामी परिणाम वाली है जिसके वीभत्स रूप सामने आएंगे। बुलडोज़र संस्कृति से अचल सम्पत्तियों के स्वामित्व में असमानता आएगी। एक अंतर्दृष्टिपूर्ण पुस्तक, द मिस्ट्री ऑफ कैपिटल में, पेरू के अर्थशास्त्री हर्नांडो डी सोटो ने नोट किया कि विकासशील दुनिया के अधिकांश गरीबों के पास संपत्ति है जिसे संपार्श्विक (कोलैटरल) के रूप में गिरवी रखा जा सकता है बशर्ते इसकी कानूनी स्थिति संदिग्ध नहीं हो अर्थात् भूमि पर स्वामित्व पूर्ण हो। उदाहरण के लिए, मुंबई में धारावी झुग्गी बस्ती ठोस रूप से निर्मित है और प्रमुख भूमि पर भी है, लेकिन चूंकि वह सरकारी या निजी भूमि पर अतिक्रमण है, इसलिए उसकी कोई कानूनी स्थिति नहीं है। इसलिए वह कोलैटरल के रूप में गिरवी नहीं रखी जा सकती है। ऐसी परिस्थिति में डी सोटो का तर्क है की गरीबों के पास भूमि रहने पर भी गिरवी रख पाने की अक्षमता के कारण वित्त तक उनकी पहुंच नहीं है। वह सुझाव देते हैं कि इस समस्या का समाधान गरीबों को उनकी भूमि पर स्पष्ट अधिकार देना है ताकि गरीब को वित्त मिले और वे स्वरोजगार कर सकें।

यह एक उदाहरण है जहां अर्थशास्त्री गरीबों को भूमि स्वामित्व देने की बात कहते हैं, जबकि हमारे हुक्मरान घर तोड़ने पर आमादा हैं। इसके चलते लोगों को अपने घर-दुकान से हाथ धोना पड़ रहा है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रघुराम राजन और लुई जिंगल्स कहते हैं, “दूसरी ओर, यदि गरीबों का जमीन पर कब्जा करने का एक लंबा इतिहास रहा है और ऐसा करने में समुदाय की मंजूरी है… वैधीकरण द्वारा बनाये गये प्रोत्साहन पूरी तरह से विकृत नहीं हो सकते हैं।” अर्थात, अतिक्रमण वाली भूमि पर स्वामित्व का लंबा इतिहास है तो उसे न्यायपूर्ण ढंग से स्वामित्व देने की कोशिश की जा सकती है। विस्तार में कहें, तो जब समाज विशेष द्वारा घर को मान्यता दे दी गई हो तो सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन में भाग लेने के कारण कार्यपालिका द्वारा उसको ज़मींदोज़ करना प्रजा को न्यायपालिका के ख़िलाफ़ खड़ा करने जैसा देशद्रोह है। लोगों का न्यायपालिका से विश्वास उठ जाएगा क्योंकि उसमें समय लगता है। जहाँ न्यायपालिका समस्त विश्व में प्राकृतिक न्याय से इतर राजनीतिक और ऐतिहासिक आधार खोजने में व्यस्त है, भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां आज भी प्राकृतिक न्याय और आचार-विचार का अनुपालन किया जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार, “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र में कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।” वहीं अनुच्छेद 21 के अनुसार, “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।” अनुच्छेद 21 में शब्द ‘राज्य’ नहीं है अर्थात् यह सब पर लागू होता है।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने 1975 के आपातकाल के दौरान गोपालन के निहितार्थों को महसूस करते हुए पूर्ण परिवर्तन किया और कहा कि अनुच्छेद 21 का अब यह मतलब नहीं होगा कि कानून प्रक्रिया किसी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए कुछ अंशों को निर्धारित कर सकती है, चाहे वह मनमाना या काल्पनिक क्यों न हो। अब इसका अर्थ यह है कि प्रक्रिया को निष्पक्ष और उचित होने के अर्थ में कुछ आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए। प्रक्रिया “मनमाना, अनुचित या अकारण नहीं हो सकती”। तर्कशीलता की अवधारणा को अनुच्छेद 21 द्वारा परिकल्पित प्रक्रिया में पेश किया जाना चाहिए। न्यायालय ने अब किसी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया की निष्पक्षता और न्यायसंगतता का न्याय करने की शक्ति ग्रहण की है। न्यायमूर्ति भगवती ने कहा है, “तर्कसंगतता का सिद्धांत जो कानूनी रूप से और साथ ही दार्शनिक रूप से समानता या गैर-मनमानापन का एक अनिवार्य तत्व है, अनुच्छेद 14 में एक व्यापक सर्वव्यापिता की तरह व्याप्त है”। इस प्रकार अनुच्छेद 21 में निहित प्रक्रिया “सही, न्यायसंगत और निष्पक्ष होनी चाहिए” न कि मनमानी, काल्पनिक या दमनकारी, अन्यथा, यह कोई प्रक्रिया नहीं होगी और अनुच्छेद 21 की प्रक्रिया भी किसी रूप में संतुष्ट नहीं होगा। भारत में विधि विशेषज्ञों ने अनुच्छेद 21 को संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में निहित मौलिक नियत प्रक्रिया के अनुरूप माना है। जिस देश के पास इतना सशक्त संविधान हो वह देश हिन्दुस्तान अन्याय और जुल्म का पर्याय नहीं हो सकता है।

जब ऊपर वित्तीय ऋण की बात हमने की थी तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ग़रीबों के खाते में आज के दिन भी महाजनों का ऋण चढ़ा होता है जिसे चुकाना उसके लिए अपनी सारी ज़िंदगी की कमाई को बट्टे खाते में डाल देना जैसा होता है। वह सतत संघर्षरत रहता है, ऐसे में उसके आशियाने को छीन लेना विभाजनकारी नीति को बढ़ावा देना जैसा ही है जो क़तई देशद्रोह की श्रेणी में आता है। क़ानून और न्याय के कई सारे परिप्रेक्ष्य हैं जिनमें से क़ानून का मुख्यता शांतिपूर्ण व्यवस्था बनाये रखना, उच्च मानक स्थापित करना, विवादों का शांतिपूर्ण समाधान और स्वतंत्रता तथा अधिकारों की रक्षा करना होता है। इसी तरह न्याय के परिप्रेक्ष्य में मुख्यतः क़ानून का प्रवर्तन अर्थात् अपराध क़ा पूर्ण अनुसंधान करना, साथ ही सबूत जुटाना और आपराधिक गतिविधियों पर प्रतिवेदन लेना होता है। फिर उसे न्यायालय के समक्ष दर्ज कराना होता है जो यह सुनिश्चित करता है कि विवाद का समाधान न्यायपूर्ण हो। उसके बाद नम्बर आता है सुधार का, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि दोषी को कम से कम इतनी सजा मिले जिससे उसमें और समाज में सुधार हो। अतः कार्यपालिका का न्यायपालिका के ऊपर जाकर बैठना लोककल्याणकारी राज्य के लिए कहीं से भी हितकारी नहीं है। जब कार्यपालिका अपना दायित्व भूल विधायिका या न्यायपालिका बन जाय तो समझिए तानाशाही का दौर शुरू हो चुका है।

भारत बहुत मुश्किल से आर्थिक उदारीकरण के बाद असमानता को आहिस्ता-आहिस्ता दूर कर रहा था। गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद साम्प्रदायिक दंगों की खबर आना बंद हो गई थी। सच्चर कमिटी की एक रिपोर्ट के अनुसार गुजरात के ग्रामीण मुसलमानों की प्रति व्यक्ति औसत मासिक आय गुजरात के ही ग्रामीण हिंदुओं से 24 रुपये अधिक थी और समूचे भारत के ग्रामीण मुसलमानों की तुलना में 115 रुपये अधिक। वहीं शहरी गुजराती मुसलमानों की प्रति व्यक्ति औसत मासिक आय समूचे भारत के शहरी मुसलमानों की औसत मासिक आय से 71 रुपए अधिक थी। जहां समूचे राज्य में मात्र 93.1 फ़ीसदी लोगों को पीने का पानी उपलब्ध था वहीं 97.7 फ़ीसदी गुजराती मुसलमानों को यह सुविधा प्राप्त थी जबकि भारत के स्तर पर यह आँकड़ा मात्र 92.8 फ़ीसदी था। गुजरात के 73.5 फ़ीसदी मुसलमान शिक्षित हो गये। समुद्र किनारों पर रहने वाले मछुआरों के लिए 11000 करोड़ रुपये की सागरखेड़ू योजना शुरू की गई जिसके मुख्य लाभार्थी मुसलमान थे और जो अगले ही साल 21000 करोड़ रुपये की हो गई। जो समानता की बात अर्थशास्त्री सदियों से कहते आ रहे थे उसे मोदी ने चुटकियों में प्रयोग करके गंजरात में दिखा दिया।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समस्त विश्व में ग़रीबों की सम्पत्ति उनके घरों में लगी होती है। उनका घर तोड़ना देश को तोड़ना है। फिर बहुसंख्यकों का यह परम कर्तव्य भी तो है कि वह अल्पसंख्यकों को यह विश्वास दिलाएं कि वे अपने वतन में सुरक्षित हैं। यह काम जनेऊ तोड़ हिंदू धर्म को त्याग साधु बने लोग कतई नहीं कर सकते। थॉमस पिकेटि की हालिया नयी पुस्तक ‘अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ इक्वालिटी’ से उद्धरण लेना प्रसंगिक होगा जिसमें वह कहते हैं कि ग़रीबों के पास बचत नहीं होती, मध्यवर्गीयों के पास सिर्फ़ घर होता है, धनी वर्ग अपनी सम्पत्तियों को घर, व्यवसाय और वित्त में विभाजित करके रखते हैं जबकि प्रभुत्व वर्ग वहां धन लगाते हैं जिससे सम्पत्ति का विकास हो। वह अपनी किताब ‘कैपिटल एंड आइडीयोलॉजी’ के माध्यम से कहते हैं, “काम से आय की असमानता, महत्वपूर्ण भिन्नताओं के साथ, हालाँकि यह तुलना में स्पष्ट रूप से कम स्पष्ट है, फिर भी एकबार, सत्ता पर बातचीत करने वाले पक्षों पर और कई कानूनी पर निर्भर करता है साथ ही सामाजिक नियमों पर भी: न्यूनतम मजदूरी का अस्तित्व; वेतनमान; प्रशिक्षण, योग्यता, और व्यवसाय के लिए समान पहुँच का समर्थन करने वाला तंत्र; और लिंगवाद और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष पर भी। आय की कुल असमानता पूंजी से आय और श्रम से आय के बीच आती है, श्रम से आय के प्रमुख भार को देखते हुए, आम तौर पर बाद वाले (काम से आय) के करीब होते हैं।”

जब असमानता को समझना इतना जटिल है तो उसे अपने सत्ता सुख के लिए बढ़ाना कहां से न्यायोचित है? यह देश ऐसा है जहां दो समुदायों के बीच द्वेष न हो इसलिए शिव ने हलाहल पान किया है। जिसे हम सुप्रीम सैक्रिफाइस कहते हैं वह महादेव ने किया। क्या हम उनके बलिदान को व्यर्थ जाने देंगे? मत भूलिए, इन्‍हीं सत्तानवीसों से मुक्ति के लिए कृष्ण ने इंद्र पूजा पर रोक लगायी और लोकतंत्र की स्थापना की थी। आप कृष्ण भक्त होकर कृष्ण का तिरस्कार मत कीजिए। धर्मग्रंथ को आत्मसात् करने वाले कभी धर्म बचाने का सोच ही नहीं सकते हैं क्योंकि अवतार धर्म बचाने के लिए होता है, “अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।”

आज नूपुर शर्मा विवाद राष्ट्रवादियों के लिए भले ही गर्व की बात है लेकिन कुछेक वर्ष पहले यही राष्ट्रवादी मकबूल फिदा हुसैन के पीछे पड़े हुए थे जब उन्होंने माँ भगवती सरस्वती की तस्वीर आपत्तिजनक जगह पर बना दी थी। हुसैन ने तो माफी मांग ली, नूपुर शर्मा ने भी माँगी लेकिन उससे क्या? देश तो मज़हबी रूप में दो भागों में बँट गया। दूसरों को धार्मिक रूप से छेड़ने पर देश का विभाजन ही होता है, चाहे बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक। इस देश में मीमांसक भी हुए हैं जिन्होंने ईश्वरीय सत्ता को ही नकार दिया। वैशेषिक लोगों ने विकास का सिद्धांत दिया और इसी कड़ी में कणाद ने पहले बीज या पेड़ के विवाद को यह कहते हुए विराम दिया कि पहले बीज आया फिर पेड़, “अनियतदिग्देश पूर्वकत्वात्”।

2014 के बाद एक धर्म विशेष को प्रताड़ित करके सत्ता सुख लिया जा रहा है लेकिन देश को किस गर्त में डाला जा रहा है यह सिर्फ महत्वाकांक्षियों को ही समझ है। आम जनता तो सृष्टिकर्त्ता को ही बचाने में लगी हुई है। कोई राम को बचा रहा है, तो कोई रहीम को! यहां तक कि हमारे अपने अरुणाचल प्रदेश के लोगों की शिकायत रहती है कि लोग उनसे भारतीय नागरिकता का प्रमाण-पत्र माँगते हैं क्योंकि हमारा देश उनके रूप से उन्हें पहचानता है जिसमें वे चीनी दिखते हैं। क्यों नष्ट हो रही है हमारी विविधता, ज़रा सोचिए! हमारे अपनों के कितने आशियाने उजड़े हैं ज़रा उस पर भी गौर कीजिएगा! और सबसे बड़ी बात, इस सब में खतरे में कोई है तो कामगार। बचाना चाहिए कामगारी संस्कृति को, तो हम बचा रहे हैं तानाशाही को।



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