संस्कृति केवल सांप्रदायिकता के लिए ही पर्दे का काम नहीं करती, जैसा कि हमारे पूर्वज प्रेमचंद कह गए हैं बल्कि आज के दौर में संस्कृति राजकीय जिम्मेदारियों से पलायन का मार्ग भी प्रशस्त करती है। जब आपके जनप्रतिनिधियों और सरकारों को कुछ नहीं सूझता और अपनी ही काबिलियत पर गहरा संदेह होने लगता है तब वे संस्कृति को आगे कर देते हैं। छिटपुट तौर पर ऐसे प्रयोग हिंदुस्तान की राजनीति में शुरू से ही होते रहे हैं लेकिन इसे एक सफल अभियान और नियम का दर्जा दिलाया देश के भूतो न भविष्यति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने।
जब जब देश उनके कारण संकट में आता है बंदा थोड़ा भी नहीं घबराता और रविवार का इंतज़ार करता है। फिर रविवार आता है और ये ‘मन की बात’ लेकर जनता के सामने आता है। मान लीजिए संकट महंगाई का है तो ये आकर गोबर से खाद बनाने के नुस्खे देकर चला जाता है। देश में अब चर्चा गाय के गोबर या उस संबंधी बातों पर होने लगती है। बातें यह भी होती हैं कि इस नाज़ुक वक्त में क्या प्रधानमंत्री को गाय, गोबर, खाद करने की ज़रूरत थी या जनता को भरोसा दिलाने की… ब्ला ब्ला ब्ला…? हालांकि लोग यह भी जानते हैं कि यही उनके नेता की अदा है। और इसी अदा के नाते वो नेता है। बहरहाल, मोदी जी तक ठीक है; यह उनका राजनीति को दिया गया ऐतिहासिक अवदान है; वो इसके प्रामाणिक और सिद्ध आविष्कारकर्ता हैं। बीते आठ साल में उन्होंने इस अनुपम विधा का इतना सटीक और सधा हुआ प्रयोग किया है कि अब जब देश में कोई ऐसी चुनौती आ भी जाती है जिस पर देश के नेता को ज़रूरी हस्तक्षेप करना चाहिए, वहां देश की जनता यह जानती है कि इस मामले में मोदी जी तो कुछ नहीं करेंगे अलबत्ता ‘मन की बात’ ज़रूर होगी। और मन तो मन है। हो सकता है उस दिन मन में कोई और बात रही हो। इसलिए अब ऐसी चुनौतियों के समय जनता राहुल गांधी को खोजने लगी है। ये जानते हुए भी राहुल को भी कुछ करना नहीं है, यानी उन्हें करने के लिए जनता ने ही समर्थ नहीं बनाया लेकिन इससे जनता को कम से कम गरियाने के लिए कोई मिल जाता है।
बचपन में जब गाँव में बिजली चली जाती थी तो हम युवा होते किशोर और अमूमन प्रौढ़ होते युवा तक सभी के सभी कम से उस जगह तक जाते ही थे जहां एकमात्र ट्रांसफार्मर लगा हुआ था। इससे कुछ हो नहीं जाता था और बिजली को जब आना होता था वो तभी आती थी लेकिन ट्रांसफार्मर के सामने खड़े होकर बिजली विभाग को गरिया लेने से मन को तसल्ली हो जाती थी कि इस संकट की घड़ी में हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहे बल्कि कुछ कर्तव्य निभाये।
कल से लोग राहुल गांधी को नेपाल के पब में ढूंढ रहे हैं। लोग कहते पाये जा रहे हैं कि ऐसे समय में जब देश में कोयले का संकट है, महंगाई चरम पर है, बेरोजगारी इस कदर है कि बेरोजगार लोगों ने अब नौकरियों की तलाश बंद कर दी है, हीट वेव अलग परेशान किये है, राहुल गांधी इसी समय नेपाल के एक फाइव स्टार होटल में पब का आनंद ले रहे हैं। जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं? वगैरह वगैरह। इस प्रसंग में एक बात अच्छी है कि जनता लंबे समय बाद देश की होती दुर्दशा के संदर्भ और प्रसंग सहित अच्छी व्याख्या कर रही है। तोहमत भले राहुल गांधी पर लग रही हो पर इससे एक बात जिसकी कमी लंबे समय से महसूस की जा रही थी वह समझ में आती है कि जनता का विवेचना-व्यवहार अब भी जीवित है- चेतना में न सही, तो बकवास में ही सही लेकिन वह अब भी बचा हुआ है।
संस्कृति को आगे खड़ा करके ढाल बनाने की कला में असल दम नहीं है। दम है उस ढाल के पार खड़े तालियां पीटते दो पैरों के जानवरों की चेतना के कुंद होने में और इस कला में महारथ हासिल करने के लिए ढाल की लंबाई-चौड़ाई या उसके आयतन आदि से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण और ज़रूरी है ऐसी जमात के निर्माण की कला में पारंगत होना। नरेंद्र मोदी चूंकि पहली कला में पारंगत हैं इसलिए वो दूसरी कला में सफल हैं, उसके सबसे यथेष्ट लाभार्थी भी।
अब उनकी देखादेखी संस्कृति सिखाने का यही काम छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जब करते हैं तो किस तरह इस महान समकालीन कला का उपहास उड़ता है और कैसे इस कला को बरतने वाले मुख्यमंत्री खुद त्रासद मज़ाक का पात्र बन जाते हैं- इसकी बानगी ऐसे तो पिछले तीन साल से छोटी-बड़ी कार्रवाइयों के जरिये दिखती रही है लेकिन हाल में 1 मई और 3 मई को जिस तरह से उन्होंने मोदी जी की नकल करते हुए इस महान कला को भोंडेपैन में तब्दील कर डाला उस पर तफ़सील से चर्चा करने की ज़रूरत है।
सब जानते हैं कि 1 मई को दुनिया भर के मजदूर अपनी मुक्ति का दिन मनाते हैं। इसके तमाम ऐतिहासिक-राजनैतिक संदर्भ हैं। बघेल साब ने इस दिन का इस्तेमाल सांस्कृतिक रूप से मजदूरों के भोजन की महिमा और उसके स्तुतिगान के लिए किया। यह कथित लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी की नकल के मारे उनके सलाहकारों और खुद मुख्यमंत्री के विवेकरहित होने के स्पष्ट संकेत हैं।
भाई, विपक्ष के मुख्यमंत्री हो, देश की सत्ता के सताये मजदूरों को ‘बासी बोरी’ तक नसीब नहीं हो रही है। अभी बहुत वक़्त नहीं बीता जब इसी राज्य के मजदूर सड़कें नाप रहे थे क्योंकि ‘मन की बात’ ने इन्हें इसी लायक समझा था और इनके ऊपर जबरन एक सख्त लॉकडाउन थोप दिया था। श्रम क़ानूनों में बलात् और गैर-वाजिब बदलाव अमल में आ रहे हैं उन्हें लेकर मजदूरों में असंतोष है। छत्तीसगढ़ के कांग्रेस के मुख्यमंत्री को यह क्यों नहीं सूझा और यह क्यों सूझा कि असल मामलों से ध्यान हटाकर मजदूरों और छत्तिसगढ़िया संस्कृति का सरकारी खर्चे पर नाहक प्रचार-प्रसार किया जाय? यह एक गहन मनोवैज्ञानिक पड़ताल का विषय है। इसके लिए उनके सलाहकार शिरोमणियों का विस्तृत साक्षात्कार एक उचित माध्यम हो सकता है।
बीती 3 मई को देश में ईद, अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती का बोलबाला रहा। परशुराम जयंती और अक्षय तृतीया कभी भी राष्ट्रीय महत्व की तिथियां नहीं रही हैं। ईद राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय महत्व का अवसर होता रहा है। आज के इस घनघोर सांप्रदायिक दौर में जब देश की अक़लियत और विशेष रूप से मुसलमानों को हर दिन कठिन परीक्षा से गुज़रना पड़ रहा हो और कांग्रेस में उन्हें एक सुरक्षा आलंबन दिखायी देता हो, छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री शायद सिक्का उछालकर तीन तिथियों में से एक तिथि का चयन करता है। संयोग से वो तिथि अक्षय तृतीया निकल जाती है। इस दिन को प्रकांड विद्वता और पता नहीं कहां-कहां से संदर्भ उठाकर मिट्टी की सेहत से जोड़ने का अभियान शुरू कर दिया जाता है। ऐसे संयोग को हिन्दी माध्यम से दर्शनशास्त्र पढ़े विद्यार्थी ‘काक-तालीय विचार’ के नाम से जानते हैं। इसे भी एक सिद्धान्त का दर्जा प्राप्त है। इस सिद्धान्त में होता ये है कि आप किसी पेड़ के नीचे खड़े हैं। पेड़ की किसी शाखा पर एक कौवा बैठा है और आप किसी वजह से बिना कुछ सोचे दोनों हाथों से ताली बाजा देते हैं। देखते हैं कि शाखा पर बैठा कौवा उसी वक़्त उड़ जाता है। अब कौवा आपकी ताली की आवाज़ सुनकर उड़ा या यूं ही उसका मन हुआ कहना कठिन है लेकिन आप दुनिया को यह बताने के लिए आधिकारिक रूप से स्वतंत्र हैं कि मेरी ताली से ही कौवा उड़ा था।
अक्षय तृतीया की विशेष तिथि को राज्य के मुख्यमंत्री माटी-पूजन दिवस के रूप में प्रादेशिक मान्यता देते हैं और एक अभियान चलाते हैं कि छत्तीसगढ़ का हर नागरिक इस दिन मिट्टी की पूजा करेगा और यह शपथ लेगा कि वह अपनी मिट्टी और अपनी ज़मीन की रक्षा करेगा, उसकी सेहत का ख्याल रखेगा, आदि आदि। इस स्व-पोषित काक-तालीय सिद्धान्त की पराकाष्ठा का मुजाहिरा राज्य के मुख्यमंत्री के उस संबोधन में होता है जिसमें वे दुनिया की आंखों में आंखें डाले यह कहते पाए जाते हैं कि ‘जब दुनिया जलवायु संकट से गुज़र रही है, तब छत्तीसगढ़ ने उसका समाधान न केवल खोज लिया है बल्कि अमल में भी ला दिया है’। क्या खोजा? अक्षय तृतीया के दिन सभी नागरिक स्वेच्छा से मिट्टी-पूजन करेंगे? वाह!
ऐसे मौलिक समाधान पेश करने के लिए कायदे से दुनिया को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के प्रति समवेत स्वर में कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिए, लेकिन हुआ इसके उलट क्योंकि हसदेव अरण्य में बसे आदिवासी भी प्रामाणिक रूप से छत्तीसगढ़ के नागरिक हैं और वे भी इस दिन की महिमा से परिचित होते ही मुख्यमंत्री के आह्वान पर अपने हसदेव जंगल को, उसकी मिट्टी को, उसकी ज़मीन को, उसके जल को और उसमें बसे वन्यजीवों की रक्षा के लिए सौगंध खाते हैं। यह अनुपालन मुख्यमंत्री को बेचैन कर देता है क्योंकि मिट्टी-पूजन के बहाने वो जंगल उजाड़ने का आह्वान कर रहे थे, लेकिन इस जंगल के आदिवासियों ने उनके आह्वान को वाकई सच्चा मान लिया।
यह देखना दिलचस्प है कि जब नेता इस कतिपय नयी और समकालीन विधा का इस्तेमाल अपने नागरिकों को उलझाने के लिए करता है तब वह यह भी किसी अन्यतम स्वर में कहना चाहता है कि – ‘हे नागरिकों मेरे कहे को अक्षरश: मान मत लेना, मान भी लेना तो इसे अमल में मत लाना। अन्यथा राज्य में संकट खड़ा हो जाएगा। तुम नागरिक अपनी मिट्टी बचाने लग जाओगे फिर हम कॉर्पोरेट को क्या जवाब देंगे?’
बहरहाल, इन दो हालिया तारीखों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने यह ज़ाहिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि लोग खामख्वाह उन्हें काबिल समझ रहे थे, हालांकि इसमें उनका कोई दोष नहीं है। दोष उन लोगों का है जो ऐसे नेताओं के कहे-सुने को वाकई ध्यान से सुनते हैं और उसकी विवेचना करते हैं। और मुख्यमंत्री भूल गए कि इस कला के इस्तेमाल से पहले उन्हें अपने नागरिकों के निर्माण की कला में निपुण होना ज़रूरी है जो वे नहीं हैं और अब भी अगर एक बाल जितना बारीक फर्क कांग्रेस के समर्थकों और भाजपा के समर्थकों में बचा है वो यही है कि कांग्रेस का समर्थक फैक्ट्री में नहीं बना है जबकि भाजपा का समर्थक ब्रायलर चिकन की तरह है जिसे हलाल होने के लिए ही निर्मित किया है।
हम मनाते हैं कि कांग्रेस के इस इकलौते पूर्ण बहुमत के मुख्यमंत्री को सद्बुद्धि मिले और इनसे भी पहले इसके सलाहकारों को सुमति प्राप्त हो। आमीन।