साल की शुरुआत में होने वाले पाँच राज्यों के चुनाव भारतीय राजनीति की दूरगामी तस्वीर पेश करते हैं। यह चुनाव राजनीतिक दलों के लिए तो महत्वपूर्ण तो था ही, उससे कहीं ज्यादा यह जनता की राजनीतिक समझ व उनकी पसंद को भी निर्धरित करने वाला है। इन सभी राज्यों के चुनाव में सबकी निगाह उत्तर प्रदेश की राजनीति पर टिकी थी क्योंकि यह राज्य पूरे उत्तर भारत, मुख्य रूप से ‘हिन्दी पट्टी की राजनीति व केंद्र की राजनीति’ में अहम भूमिका निभाता है। अब जब परिणाम आ चुके हैं जिसमें सत्ताधारी दल की वापसी हो रही है, जिस तरह के विपक्ष की हम सभी उम्मीद कर रहे थे वह भी बड़ी मुश्किल से ही बनता नजर आ रहा है। सभी राज्यों के परिणाम न केवल राजनीतिक दलों बल्कि अकादमिकों व पत्रकारों के लिए एक बार फिर से नये स्तर से सोचने को मजबूर करते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में चुनावों में राजनीतिक आख्यानों (नैरेटिव) को अधिक वरीयता दलों द्वारा दी जा रही है। इस चुनाव में भी अस्सी बनाम बीस का आख्यान सबसे अधिक चर्चा में रहा है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में बीजेपी के बाद सपा व बसपा को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में देखा जाता है परंतु इस पूरी चुनावी प्रक्रिया में सपा द्वारा किये कैम्पेन पर नज़र डालें तो वह इंटरनेट व शहरी इलाकों तक कहीं अधिक सीमित रहा है। वहीं बसपा इस चुनाव में लगभग निष्क्रिय ही रही।
कांग्रेस अपनी पार्टी के सबसे बड़े चेहरे प्रियंका के सहारे मैदान पर काफी मेहनत करती नजर आयी पर जमीनी स्तर पर संगठन के अभाव में एक्टिविज्म पॉलिटिक्स पार्टी को लाभ नहीं दिला पायी।
चुनाव से पहले सत्ताधारी पार्टी से कई मंत्री व उनके समर्थक सपा में शामिल हुए, तब सामाजिक न्याय का हवाला दिया गया व सत्ताधारी पार्टी को पिछड़ों का दुश्मन बताया गया। चुनावी परिणामों में दलबदल के बाद भी कुछ नेता बमुश्किल ही अपने सीट बचा पाए। अब सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश में पिछड़ो के सवालों पर इन क्षेत्रीय दलों से पिछड़ा समुदाय का भरोसा उठ गया है। इस सवाल का जवाब तब हमें बहुत आसानी से मिल जाता है जब विपक्ष के चुनावी कैम्पेन व प्रेस कॉन्फ्रेंस का अध्ययन करते हैं।
मुख्य पार्टी समाजवादी पार्टी पिछड़ों के सवालों को बहुत स्पष्टता से रखने के बजाय सत्ताधारी पार्टी के मुखिया पर व उनकी दिनचर्या पर सवाल उठाते नजर आयी। सपा ने रोजगार, पेन्शन, आवारा पशुओं और सुरक्षा के सवाल पर घेरने की कोशिश जरूर की। दूसरी सबसे बड़ी बात कि नॉन-यादव ओबीसी तबके में सपा की पकड़ सत्ताधारी पार्टी से नेताओं की सपा में वापसी से पिछले विधानसभा से थोड़ी अधिक रही पर वह सामाजिक न्याय के सवाल को उनके बीच पहुंचाने में असफल रही।
मुसलमानों ने इस चुनाव में सपा पर जरूर विश्वास दिखाया पर विपक्ष द्वारा अल्पसंख्यकों के अधिकार व सुरक्षा के सवाल पर चुप्पी ने आम जनमानस को दुविधा में डालने का काम किया जबकि अगर आप बिहार की राजनीति को देखें तो आरजेडी द्वारा पिछड़ों व अल्पसंख्यकों के लिए एक स्पष्ट संदेश नजर आता है। उत्तर प्रदेश में लगभग पाँच करोड़ आबादी व पचास से अधिक ऐसी सीट जहां 20 से 30 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या हो उस समुदाय को लेकर पार्टी की नीयत अस्पष्ट रही, पर मुसलमानों के पास कोई बेहतर विकल्प न होने के कारण पहली पसंद सपा और उसके बाद बसपा व कांग्रेस रही। एक दशक पहले जिस समुदाय के वोट बैंक की राजनीति हो रही थी आज उस समुदाय को न केवल राज्य स्तर पर बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीतिक रूप से अछूत बना दिए जाने की कोशिश की जा रही है। यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है जिसका दूरगामी प्रभाव न केवल इस समुदाय बल्कि इस देश की समावेशी संस्कृति पर भी देखने को मिल सकता है।
सत्ताधारी पार्टी का वापस सरकार में आने में सबसे जरूरी जो पहलू जो रहा, वह है नागरिकों को लाभार्थी बनाने की योजना। अगर आप इसकी सामाजिकी को समझेंगे तो आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि आजादी के सत्तर साल बाद भी लाखों ऐसे परिवार हैं जिनका जीविकोपार्जन रोज के भत्ते पर ही निर्भर है और इस महामारी के दौरान तमाम अव्यवस्था के बीच सरकार अपने मुफ्त राशन, मुफ्त टीका के नैरेटिव में सफल रही। दूसरे सबसे बड़े लाभ इज्जत घर (शौचालय) ने भी ग्रामीण इलाकों को काफी प्रभावित किया। इन सब में सबसे महत्वपूर्ण व निर्णायक वोट जो रहा है वह प्रदेश की महिला (ग्रामीण आधिक्य) वोटरों का रहा जहां पर क्षेत्रीय दल चुनाव से पहले लगभग नदारद ही रहे। चुनाव में इस बार पिछले चुनावों से सीख लेते हुए सोशल प्लेटफॉर्मों पर इन दलों ने पकड़ तो मजबूत की पर जनमानस के दिलो-दिमाग पर प्रभाव उम्मीद से कम ही रहा।
अंत में अगर पूरे चुनाव पर समीक्षात्मक नज़र डालें तो यह देखने को मिलता है कि यह चुनाव पिछले कुछ चुनावों से बेहतर तो जरूर रहा। परिणामों ने न केवल पार्टी बल्कि इससे कहीं ज्यादा अकादमिक व चुनावी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के लिए आगामी चुनौतियों को पेश किया है। वोटर अब पहले से कहीं ज्यादा समझदार व महीन राजनीति को भी पहचान रहे हैं हालांकि यह संख्या अभी कम है पर यह संदर्भ भारतीय राजनीति को एक नये सिरे से समझने की जरूरत को बतलाता है।
अब हमें अकादमिक शब्दावली व राजनीति से जुड़े भारी-भरकम शब्दों के यूटोपिया से निकलकर उसे संवाद की सरल भाषा में समाज तक पहुंचाने का अनवरत कार्य करना होगा और इस मुहिम में जनमानस की क्षमता पर यह विश्वास करना होगा कि वह यह सब समझने में सक्षम है।