जलवायु संकट से लड़ने के तमाम प्रयासों के ऊपर निजी स्वार्थ और लाभ से संचालित संकीर्ण इंसानी मानसिकता हमेशा हावी हो जाती है। इस बार भी कॉरपोरेट जगत और रूढ़ हो चुके पश्चिमी राष्ट्र-राज्य इस पाखंड से बच नहीं सके जब ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के 26वें सम्मेलन के समापन सत्र में 13 नवंबर, 2021 को 200 पक्षकार देशों ने एक समझौते पर दस्तखत किए। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों के इकलौते सबसे बड़े स्रोत कोयले को ‘फेज़ आउट’ (चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने) के बजाय ‘फेज़ डाउन’ (धीरे-धीरे घटाने) करने का जो भाषायी घपला समझौते के कानूनी मसौदे में किया गया, उसने उन 37 देशों की आपराधिक मिलीभगत को उजागर कर दिया जो दिसंबर 2020 में पूरी हुई क्योटो संधि की दूसरी वचनबद्धता अवधि के अंतर्गत बाध्यकारी प्रावधानों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं।
ऐसा लगता है कि ये देश अपने यहां के कॉरपोरेट प्रतिष्ठानों के प्रवक्ता के रूप में काम कर रहे हैं जो ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेंटिग्रेड (प्राक्-औरद्योगिक दौर से) तक सीमित रखने के लक्ष्य के प्रति बेपरवाह हैं। स्पष्ट है कि इन देशों के निगमों ने अंतिम समझौते को कमजोर करने के लिए भारत का इस्तेमाल किया है। ये वही निगम हैं जो भारत के सत्ताधारी राजनीति दलों को बेनामी चंदा देते हैं। ऐसे अनैतिक और बेनामी चंदे को भारत के सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती दी जा चुकी है। राजनीतिक दलों को बेनामी चंदे का चलन दरअसल बीते ज़माने में अंग्रेजीभाषी देशों में नगरों द्वारा संसद में अपने जेबी प्रतिनिधि भेजने की परंपरा रॉटेन बरो या पॉकेट बरो का ही आधुनिक संस्करण है जिसके माध्यम से अदृश्य चंदादाता प्रशासन पर अपना परोक्ष प्रभाव कायम रखते थे। इन निगमों को यह तरीका इंग्लैंड, आयरलैंड और अमेरिका से विरासत में मिला है। सिटिजंस युनाइटेड बनाम संघीय चुनाव आयोग के मुकदमे में जस्टिस जॉन पॉल स्टीवेन्स ने बाकी जजों से असहमति जताते हुए फैसला दिया था कि अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट द्वारा बहुमत से दिया गया फैसला ”देश भर में निर्वाचित संस्थानों की अखंडता को कमजोर कर देगा।”
उनका विचार था कि बहुमत से दिया गया फैसला कॉरपोरेट लोकतंत्र और उसमें शेयरधारकों के मतों की ताकत को जरूरत से ज्यादा आंक कर देखता है। उन्होंने अपने फैसले में लिखा था, ”आंख पर पट्टी बांध के फ़रमान सुनाने वाला अदालत का यह रवैया कॉरपोरेट प्रभुत्व के खिलाफ सीमित उपाय अपनाने में भी सामान्य नागरिकों, कांग्रेस और प्रांतों की क्षमता को संकुचित कर देगा।” स्टीवेन के मत को जस्टिस स्टीफन ब्रेयर, रुथ बाडर गिन्सबुर्ग और सोनिया सोटोमेयर ने समर्थन दिया था।
न्यायालय ने भले ही यह सदिच्छा जतायी कि नागरिकों को यह पता करना चाहिए कि निर्वाचित अधिकारी क्या ”कथित रूप से पैसेवालों की जेब में हैं”, लेकिन ”काले धन” के दानदाताओं ने सामाजिक-राजनीतिक संगठनों, सार्वजनिक संस्थानों और नागरिकों की इस क्षमता को ही कुंद कर डाला है। भारत में बेनामी दानदाताओं के अवैध ”काले धन” को कंपनी कानून, 2013 के रास्ते ”कानूनी” जामा पहनाया जा चुका है। ये दानदाता जलवायु संकट के खिलाफ किसी भी कार्रवाई को बाधित करने के लिए एक न एक देश का इस्तेमाल करते ही रहे हैं। इस बार यह बात खुलकर बाहर आ गयी है।
याद किया जाना चाहिए कि अमेरिकी निगमों के प्रभाव में ही क्योटो संधि में कार्बन व्यापार को शामिल किया गया था ताकि अमेरिका को संतुष्ट कर के संधि पर उससे दस्तखत करवाए जा सकें लेकिन उसने संधि को पहले तो कमजोर किया और फिर बाद में योरोपीय संघ और अन्य की हैसियत को धता बताते हुए उससे अलग हो गया। कार्बन व्यापार जलवायु संकट का एक फर्जी बाजारू समाधान है। ग्लासगो जलवायु संधि के मसौदे में कार्बन व्यापार को एक निर्विवाद तथ्य के रूप में स्वीकारते हुए जो 11 पन्ने खर्च किए गए हैं वे दिखाते हैं कि अब भी हम फर्जी समाधान की चपेट में हैं।
इस पृष्ठभूमि में यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि अमेरिका से आया जलवायु प्रतिनिधिमंडल इसे ”दुनिया के लिए अच्छा समझौता” बतला रहा है इस बात से आंखें मूंदे हुए कि यह धरती प्राक्-औद्योगिक काल की तुलना में 1.1 डिग्री ज्यादा गरमा चुकी है।
कॉप-26 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में आधी कटौती का संकल्प ले पाने में नाकाम रहा है। गरीब देशों के लिए 100 अरब डॉलर की वित्तीय मदद जुटाने में भी यह सम्मेलन नाकाम रहा है। इसके अलावा जलवायु संकट से निपटने के लिए मोटे तौर पर सैन्य उद्योग और खास तौर से नाभिकीय उद्योग से होने वाले उत्सर्जन के मुद्दे को यूएनएफसीसी के ढांचे में समाहित करवा पाने में भी यह असफल रहा है।
पश्चिमी राष्ट्र-राज्य के ठस हो चुके प्रारूप के पार जाकर जब तक धरती माता के अधिकारों को मान्यता देते हुए सभ्यतागत मोर्चे कायम नहीं किए जाते और गहन दार्शनिक नज़रिये से देखते हुए अलोकतांत्रिक कॉरपोरेट ताकतों को जब तक सच्ची लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं ढाला जाता, तब तक जलवायु संकट का कोई समाधान नहीं निकलेगा।
समान विचार वाले विकासशील देशों के कोई 2 सदस्य (एलएमडीसी) और अफ्रीकी समूह (एजी) के 55 देशों को मिला दें तो दुनिया की कुल 71 फीसद आबादी (54 और 17) को यूएनएफसीसी के कॉप-26 सम्मेलन से अलग रखा गया। इस परिस्थिति में क्योटो संधि के तहत 2020 के बाद तीसरी वचनबद्धता अवधि की अनिवार्यता अपने आप जाहिर हो जाती है क्योंकि 37 देश इसका अनुपालन करने में नाकाम रहे हैं।
कॉरपोरेट के प्रभाव ने कॉप-26 के वार्ताकार देशों को उनकी कल्पनाशक्ति से ही महरूम कर दिया था। इन कॉरपोरेट ताकतों ने राष्ट्र-राज्यों को किसी भी कीमत पर अपने नंगे मुनाफे के सामने घुटने टेकने को मजबूर कर दिया है। इन 37 देशों ने क्योटो संधि की हत्या करने में आपराधिक भूमिका निभायी है और उसकी जगह एक अबाध्यकारी संधि को लाकर पटक दिया है।
याद करिए कि कैसे पेरिस में 12 दिसंबर 2015 को आयोजित यूएनएफसीसी के कॉप-21 सम्मेलन में उसके सभी पक्षकार जलवायु संकट से निपटने के लिए एक स्वैच्छिक समझौते (पेरिस संधि) पर पहुंचे थे। पेरिस संधि की संरचना वॉशिंगटन घोषणापत्र के अनुरूप बनायी गयी थी जिसने साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (सीबीडीआर) के सिद्धांत की समाप्ति की परिकल्पना रखी थी। विकासशील देशों के ऊपर दानदाताओं के प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए सीबीडीआर सिद्धांत के अमूल्यन के प्रति उन्हें राज़ी किया गया था।
कम कार्बन वाले सतत भविष्य हेतु जो कार्रवाइयां और निवेश किए जाने थे, उसके बजाय प्रमुख प्रदूषक देशों ने जो किया वह महज ऊंट के मुंह में ज़ीरा साबित हुआ। यही अगंभीरता काप-26 तक जारी है औश्र उस पर असर डाल रही है। ये प्रमुख प्रदूषक चाहते हैं कि लोग भूल जाएं कि वे क्योटो संधि की पहली वचनबद्धता अवधि 2008-2012 के बीच तय लक्ष्यों को पूरा कर पाने में नाकाम रहे जिसके अंतर्गत उन्हें छह प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी थी: कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, परफ्लोरोकार्बन और सल्फर हेग्ज़ाफ्लोराइड।
संधि के तहत किसी पक्षकार के लिए वचनबद्धता की अवधि के भीतर उत्सर्जन की अधिकतम सीमा तय की गयी थी (कार्बन डाइऑक्साइड के समतुल्य माप) और हर पक्षकार के लिए एक मात्रा तय की गयी थी जो उसका उत्सर्जन लक्ष्य था। क्योटो संधि के मसौदे के अनुलग्नक बी में 36 देशों के लिए ये लक्ष्य तय किए गए थे जिनमें योरोपीय संघ, अमेरिका, कनाडा, जापान, क्रोशिया, न्यूजीलैंड, रूसी संघ, उक्रेन, ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। अमेरिका ने क्योटो संधि की अभिपुष्टि नहीं की। दिसंबर 2011 में कनाडा भी संधि से बाहर निकल गया, जो दिसंबर 2012 से प्रभावी हुआ।
यह संधि यूएनएफसीसी के 1992 के संकल्पों का ही विस्तार है जिसमें पक्षकार राष्ट्रों से ग्रीनहाउस गैसों को कम करने की वचनबद्धता दो वैज्ञानिक सहमतियों के आधार पर ली गयी थी कि (पहला) ग्लोबल वार्मिंग हो रही है और (दूसरा) इसका कारण मानवजनित सीओ2 उत्सर्जन है। यह संधि जापान के क्योटो में दिसंबा 1997 में अंगीकृत की गयी थी और फरवरी 2005 में प्रभाव में आयी थी।
प्रमुख प्रदूषक देशों की अगंभीरता के चलते 36 देशों के वैश्विक उत्सर्जन में 1990 से 2010 तक 32 फीसदी का इजाफा देखने में आया। यह अगंभीरता क्योटो संधि की दूसरी वचनबद्धता अवधि (2013-2020) में और ज्यादा मुखर हो गयी। जिन 37 देशों के लिए बाध्यकारी लक्ष्य तय थे उनमें ऑस्ट्रेलिया, योरोपीय संघ (तब इसके 28 सदस्य देश थे, अब 27 हैं), बेलारुस, आइसलैंड, कजाकिस्तान, लीशेंस्टाइन, नॉर्वे, स्विट्जरलैंड और उक्रेन शामिल थे। बेलारुस, कजाकिस्तान और उक्रेन ने दूसरी वनचबद्धता अवधि में लक्ष्यों को कानूनी रूप से लागू नहीं किया। जापान, न्यूजीलैंड और रूस ने लक्ष्यों को नहीं माना। कनाडा 2012 में ही संधि से बाहर निकल चुका था और अमेरिका ने उसकी अभिपुष्टि ही नहीं की थी।
उच्च प्रदूषक 37 देशों की इस बेईमानी और लापरवाही का नग्न मुजाहिरा तब हुआ जब दूसरी वचनबद्धता अवधि के समाप्त हो जाने के बाद इसी अवधि के लिए क्योटो संधि में दोहा संशोधन 31 दिसंबर 2020 को लागू किया गया। इस तरह से देखें तो पेरिस समझौते कि अंतर्गत इन 37 देशों द्वारा जलवायु संकट से निपटने के लिए की गयी सारी बातचीत ही निरर्थक साबित हो जाती है।
पेरिस समझौता अंगीकार किए जाने के बाद छह महीने के भीतर ही नवंबर 2016 में प्रभाव में आ गया जो कि क्योटो संधि की दूसरी वचनबद्धता के प्रभावी होने से पहले की तारीख है। इससे समझ में आता है कि कैसे अंतरराष्ट्रीय कानून महज सदिच्छाओं की घोषणा बनकर रह गए हैं जहां गाड़ी को घोड़े के आगे जोत दिया जाता है। वास्तव में यह स्पष्ट हो चुका है कि वॉशिंगटन घोषणापत्र लाए जाने का उद्देश्य ही क्योटो संधि को खत्म करना था। अबाध्यकारी पेरिस समझौते की दरअसल कोई जरूरत ही नहीं थी, बबल्कि 37 देशों के लिए क्योटो संधि की तीसरी वचनबद्धता को अपनाया जाना जरूरी था। यह सही समय है कि जी-79 समूह (एलडीएमसी और एजी) तथा जी-77 (134 देश) पेरिस समझौते से बाहर निकल जाएं और क्योटो संधि में तीसरी वचनबद्धता अवधि की मांग उठाएं।
पेरिस समझौते में जलवायु संकट से निपटने की आकांक्षा का अभाव है। यह बात समझी जानी जरूरी है कि पेरिस समझौता वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्शियस (प्राक्-औद्योगिक स्तरों के मुकाबले) से नीचे नहीं रह सकता। इसमें तो 1.5 डिग्री तक भी तापमान को सीमित रखने की आकांक्षा नहीं दिखायी देती है। यह कभी भी निम्न ग्रीनहाउस उत्सर्जन के अनुरूप वित्त प्रवाह को कायम नहीं रख सकता। क्योटो संधि की मूल भावना के तहत जब तक सारा जोर 37 देशों के ”घरेलू स्तर पर तय किये गए उत्सर्जन” (एनडीसी) पर नहीं दिया जाएगा तब तक जलवायु संकट से निपटने के प्रयासों के साथ हम न्याय नहीं कर पाएंगे।
यहां यह याद रखा जाना होगा कि मराकेश में यूएनएफसीसी के कॉप-21 में जो पक्षकार देश नवंबर 2016 में मिले थे वह बैठक भी कॉप-21 की ही तरह प्रेरणाहीन साबित हुई थी। इसने दिखाया था कि ”क्लाइकमेट न्यूट्रलिटी” जैसे जुमले कितने महत्वहीन और बेमेल हैं। इसी तरह पेरिस समझौता भी अर्थव्यवस्थाओं के हिसाब से कटौती के बाध्यकारी लक्ष्यों के मामले में कुल मिलाकर एक भाषाई कलाकारी बनकर रह गया है।
अब यह लगातार स्पष्ट होता जा रहा है कि कार्बन मूल्य-निर्धारण, मौद्रीकरण और शमन परिणामों के हस्तांतरण के दावे जैसे बाजार केंद्रित तरीके कुल मिलाकर इस संकट के सामने निष्प्रभावी उपाय हैं। जलवायु संकट से होने वाले नुकसान के संदर्भ में सहकारी आधार पर तैयार की गयी वारसॉ अंतरराष्ट्रीय प्रणाली भी जबानी जमाखर्च ही है। ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) जैसी वित्तीय प्रणालियां जलवायु संकट से निपटने तथा जलवायु सुरक्षित प्रौद्योगिकी विकास व हस्तांतरण के उद्देश्यों को पूरा नहीं करती हैं। पेरिस समझौते में पारदर्शिता और जवाबदेही के तंत्र को अंतरराष्ट्रीय निवेशकों द्वारा अर्जित किए गए बेनामी रहने के अधिकार के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
धरती माता के खिलाफ जंग के लिए इस्तेमाल किए गए सौम्य पद ”वातावरण में खतरनाक दखलंदाजी” के संबंध में कोई भी प्रयास तब तक कामयाब नहीं हो सकता जब तक अंतरराष्ट्रीय निगमों व अन्य कारोबारी उद्यमों पर संयुक्त राष्ट्र के मुक्त अंतरसरकारी कार्यसमूह के काम के समानांतर मानवाधिकारों के संदर्भ में इन्हें अंजाम न दिया जाय।
सनद रहे कि मानवाधिकार परिषद ने अपने 26वें सत्र में 26 जून, 2014 को 26/9 नाम से एक संकल्प अंगीकार किया था जिसके माध्यम से उसने ”मानवाधिकार के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय निगमों व अन्य कारोबारी उद्यमों पर संयुक्त राष्ट्र का मुक्त अंतरसरकारी कार्यसमूह” स्थापित करने का फैसला लिया था जिसका उद्देश्य ”अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय निगमों और अन्य कारोबारी उद्यमों की गतिविधियों को नियामित करने के लिए एक कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रणाली तैयार करना था।”
अंतरराष्ट्रीय निगमों व अन्य कारोबारी उद्यमों पर संयुक्त राष्ट्र के मुक्त अंतरसरकारी कार्यसमूह (ओईआइजीडब्लूजी) के अब तक सात सत्र हो चुके हैं। सातवें सत्र से पहले समूह के अध्यक्ष के बतौर इक्वेडर के स्थायी मिशन ने अंतरराष्ट्रीय निगमों और अन्य कारोबारी उद्यमों की गतिविधियों को नियामित करने के लिए एक कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रणाली का तीसरा संशोधित मसौदा जारी किया। यही मसौदा 25 से 9 अक्टूबर 2021 के बीच आयोजित सातवें सत्र में देशों के बीच वार्ता का आधार बना।
इस पृष्ठभूमि में जी-79 और जी-77 के देशों को ”वैश्विक सर्वेक्षण” से पहले ही हरकत में आकर क्योटो संधि की तीसरी वचनबद्धता अवधि के लिए एक ढांचा सामने रखना चाहिए। इन देशों को अंतरराष्ट्रीय निगमों और अन्य कारोबारी उद्यमों की गतिविधियों को नियामित करने वाली कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रणाली के साथ मिलकर अपने प्रयासों को अंजाम देना चाहिए ताकि उन्हें जलवायु और समुदायों के हितों के अनुकूल बनाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय निगमों के नियमन के बगैर जलवायु संकट का कोई समाधान नहीं निकलने वाला है, जिन्होंने राष्ट्रीय सरकारों को और खासकर 37 देशों को अपने कब्जे में लिया हुआ है।
यूएनएफसीसी के तहत क्योटो संधि के लिए प्रस्तावित तीसरे वचनबद्धता मसौदे को हथियार निर्माताओं को भी संज्ञान में लेना चाहिए, खासकर नाभिकीय हथियार निर्माताओं को, जो सबसे बड़े प्रदूषक हैं और जलवायु संकट के कारणों में उनका छुपा हुआ हाथ है।
एक बात सामने आयी है कि 140 देशों द्वारा फैलाए जाने वाले प्रदूषण के मुकाबले अमेरिका अकेले ज्यादा प्रदूषण मचाता है जिसके पीछे मुख्य कारण पेंटागन का बजट है। अमेरिकी सेना ग्रीनहाउस गैसों की सबसे बड़ी उत्सर्जक है। याद रहे कि अमेरिकी सरकार ने ही क्योटो संधि में कार्बन व्यापार वाला फर्जी समाधान घुसवाने का काम किया था। इसके बाद कमजोर हो चुकी को योरोपीय संघ और अन्य ने केवल इसलिए मान लिया था ताकि अमेरिका संधि का एक पक्षकार बना रह सके। अमेरिका पक्षकार तो बना लेकिन संधि को कमजोर करने के बाद इससे बाहर निकल लिया। ऐसा कर के उसने क्योटो संधि की पहली और दूसरी वचनबद्धता अवधि का बहिष्कार कर दिया। एलडीएमसी और एजी को जलवायु संकट के ऐसे फर्जी समाधानों को खारिज करना चाहिए। योरोपीय संघ को कार्बन व्यापार के खिलाफ अपने मूल पक्ष को फिर से अपना लेना चाहिए।
जलवायु संकट से लड़ने के लिए सबसे पहला काम यह करना होगा कि नाभिकीय हथियारों पर निषेधाज्ञा से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र की अभिपुष्टि हथियार मालिकों और 37 देशों से करवायी जाय, जो जनवरी 2021 से प्रभाव में आया है।
लेखक विधि और सार्वजनिक नीति विषयक शोधकर्ता हैं जो 1999 से ही जलवायु संबंधी वार्ताओं पर आलोचनात्मक नजर रखे हुए हैं।
(साभार: समयांतर / अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव)