गुणवत्तापरक शिक्षा तथा मानवाधिकार का सवाल और हमारी जिम्मेदारी


किसी भी जीवात्मा के मानव जाति में प्रवेश के साथ ही उसको कुछ नैसर्गिक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो उसके सम्मानपूर्वक जीवन जीने का आधार बनते हैं। भारत के लिए मानवाधिकार कोई नई अवधारणा नहीं है। भारतीय संस्कृति में मानव के कल्याण की हमेशा कामना की जाती है जो कि मानवाधिकार का मूल स्रोत है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र को स्वीकार किया गया इसी के उपलक्ष्य में हम 10 दिसम्बर को मानवाधिकार दिवस के रूप में कुछ कार्यक्रम का आयोजन कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति प् लेते हैं। भारत ने अपनी प्रतिबद्धता घोषणापत्र हस्ताक्षर कर के व्यक्त कर दी थी। भारतीय संविधान में मानवाधिकारों को मूल अधिकारों के द्वारा रक्षित किया गया है तथा समय-समय पर इनकी रक्षा हेतु अन्य कानून भी बनाये गए हैं, जिसमे मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 प्रमुख है।

संयुक्त राष्ट्र के सार्वभौमिक घोषणापत्र के अनुच्छेद 26 में शिक्षा के अधिकार को मानवाधिकार का दर्जा दिया गया है और यह अपेक्षा की गयी है कि कम से कम हर व्यक्ति को प्राथमिक स्तर की शिक्षा राज्यों द्वारा मुफ्त प्रदान की जाय। शिक्षा व्यक्ति के विकास तथा गुणवत्तापूर्वक जीवन जीने के अधिकार को रक्षित करने का सशक्त माध्यम है। एक बच्चे का एक प्रथम अधिकार ही गुणवत्तापरक शिक्षा है। भारत में इस दिशा में काफी प्रयास हुए हैं तथा शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के द्वारा शिक्षा को मौलिक अधिकार के तौर पर प्रतिस्थापित किया गया है जो कि एक सराहनीय पहल है परन्तु ‘प्रथम’ तथा अन्य संस्थाओं द्वारा समय समय पर किये गए सर्वेक्षणों में शिक्षा की गुणवत्ता को निम्न स्तर पाया गया है। यूनिसेफ तथा विश्व संस्थाओं द्वारा भी भारत की शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल उठाये जाते रहे हैं। शिक्षा में गुणवत्ता का प्रश्न सिर्फ स्कूली शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। कुछ गिने चुने संस्थानों को छोड़ दिया जाय तो स्थिति उच्च शिक्षा में भी अच्छी नहीं दिखती है। आज़ादी के उपरांत लम्बा समय बीत जाने के पश्चात भी हमारा गुणवत्तापूर्वक शिक्षा का प्रबंध न कर पाना हमारे मानवाधिकारों के प्रति उदासीनता का परिचय देता है।

जिन मानवाधिकारों की कल्पना विश्व समुदाय द्वारा की गयी है उसका मूल आधार ही गुणवत्तापरक  शिक्षा है और इसके अभाव में एक सशक्त स्वतंत्र जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। शिक्षा के अभाव में व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आती है जिसका प्रभाव कालान्तर में राष्ट्रीय  स्तर पर परिलक्षित होता है। गुणवत्तापरक शिक्षा के अभाव का सबसे ज़्यादा असर गरीबी में जीवनयापन करने वाले लोगों पर ही पड़ रहा है जो सीधे सीधे उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है। एक तरफ जहाँ शिक्षा के बाज़ारीकरण से यह उन लोगों की पहुँच से दूर होती जा रही है वहीँ सरकारों का शिक्षा के प्रति उदासीन रवैया गुणवत्तापरक शिक्षा की संभावनाओं को सिरे से ख़ारिज कर रहा है।

शिक्षा में गुणवत्ता की समस्या का समाधान किसी एक स्तर पर संभव नहीं है इसके लिए हमें हर स्तर पर प्रयास करने होंगे। संसाधनों का अभाव एक महत्पूर्ण पहलू है और कालान्तर में देखा गया है कि सरकारों द्वारा शिक्षा को अपेक्षित बजट उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है जिससे हमारे स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी की स्थिति दिनों दिन दयनीय होती जा रही है और इनका सारा ध्यान बजट की व्यवस्था पर केन्द्रित होता जा रहा है। हमें सोचना होगा कि शिक्षा व्यवस्था का संचालन हम अन्य उद्योगों की तरह नहीं कर सकते क्यों कि शिक्षा मानवाधिकार से जुड़ा मामला है और किसी को भी धन के अभाव में इससे वंचित नहीं किया जा सकता। सरकारी शिक्षा तंत्र में ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है। प्रायः देखा गया है कि शिक्षा नीतियाँ राजनैतिक हस्तक्षेप का पर्याय बन चुकी है तथा शिक्षा केन्द्रों को अपनी नीतियों के प्रचार का माध्यम बनाया जा रहा है जो पठन पाठन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।

सामाजिक तथा नैतिक मूल्यों में गिरावट भी शिक्षा की बदहाली का प्रमुख कारण है। शिक्षा व्यवस्था के प्रमुख स्तम्भ हमारी शिक्षक बिरादरी के मूल्यों में भी गिरावट साफ देखी जा सकती है। उनका अपने कार्य के प्रति रवैय्या बदला है जो गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करने में एक बड़ी बाधा है। कोई भी संस्था निगरानी तंत्र के भरोसे ही आगे नही बढ़ाई जा सकती उसमें संलग्न हर व्यक्ति को समाज के प्रति अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी समझनी होगी जिससे नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा हो सके।

हमें सामूहिक प्रयासों से शिक्षा के बाज़ारीकरण को रोकना होगा क्योंकि बाज़ार प्रणाली सिर्फ घाटे मुनाफे के अनुसार संचालित होती है और बात भी जायज़ है यदि हम शिक्षा की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी पूंजीपतियों को सौपेंगे तो वह अपने हितों को ध्यान में रखकर ही उसका संचालन करेंगे। शिक्षा की ज़िम्मेदारी समाज, सरकार को मिल कर उठानी होगी तथा हमें अपने स्कूल, कॉलेज तथा यूनिवर्सिटीज़ को सशक्त बनाने के साथ ही उनको जवाबदेही भी तय करनी होगी तभी सभी के मानवाधिकारों की रक्षा कर पाएंगे और मानवाधिकारों की रक्षा सिर्फ क़ानूनी ही नहीं हमारी नैतिक जिम्मेदारी भी है।


लेखक देवनागरी कॉलेज, मेरठ में अंग्रेजी के सहायक आचार्य हैं


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