गाँधी ने आजादी के बाद जिस आत्मनिर्भर भारत को रचना चाहा वह उस समय भी नहीं रचा गया। आज के ‘न्यू इंडिया’ में भी इसकी कोई सम्भावना दूर-दूर तक दिखायी नहीं देती है। सत्ता प्रतिष्ठान के लिए गाँधी कल से अधिक आज अस्वीकृत हैं जबकि उनके आर्थिक दर्शन की महत्ता कल से कहीं अधिक आज है। गाँधी मौन रूप में जन-मन में तो हैं लेकिन सत्ता के लिए वे अवसरवादी राजनीतिक नारों और बैनर-पोस्टर से अधिक कुछ भी नहीं।
राष्ट्र निर्माण के लिए गाँधी ने ग्राम केन्द्रित नीतियों को प्राथमिकताओं देने की बात की थी, लेकिन अतीत में झांकें तो हम देखते हैं उनके आर्थिक-विचारों को सरकारी नीतियों में उतारने की पहल पहले भी ठीक से नहीं की गयी। नेहरू और आंबेडकर ने भी गाँधी के आर्थिक विचारों को पिछड़ा हुआ माना और आजाद भारत के लिए नगर केन्द्रित औद्योगिक विकास का मॉडल तैयार किया। नेहरू ने गाँव को पिछड़े और अंधविश्वास में मगन एक जनसमुदाय के रूप में देखा तो वहीं आंबेडकर ने इसे जातीय दुष्चक्र में धंसी दमनकारी इकाई से अधिक कुछ भी नहीं माना।
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गाँधी की विलक्षण दूरदर्शिता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मशीनी व औद्योगिक सभ्यता में मानव के हाशिये पर धकेले जाने के खतरे को पहले ही भाँप लिया था और इसलिए गाँवों को उनके अपने तरीके से विकसित करने पर बल दिया था। आज मनरेगा जैसी विशाल योजनाओं के अंतर्गत शारीरिक श्रम करने के प्रावधान को गाँधी की आर्थिकी की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। गाँवों के बारे में गाँधी के विचारों को तीन बिन्दुओं के संदर्भ में देखा जा सकता है।
पहला, भारतीय सभ्यता के मुख्य केंद्र के रूप में- गाँधी का मानना था कि गाँव भारतीय सभ्यता का स्रोत और संवाहक हैं। गाँवों के बिना भारतीय सभ्यता की हजारों साल पुरानी परंपरा धराशायी हो जाएगी। एक जगह विदेशी सैलानियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा-
अगर आप भारत की आत्मा देखना चाहते हैं तो नगरों की तरफ मत जाएं… उन गाँवों की तरफ जाएं जो नगरों से काफी दूर हैं… वहां आपको भारतीय सभ्यता और संस्कृति के दर्शन होंगे जो संभवतः पश्चिम में न मिलें। गाँव ही भारतीय जनमानस को सांस्कृतिक आत्मविश्वास प्रदान कर सकता है।
पश्चिम के नगर-केन्द्रित विकास मॉडल के विकल्प के रूप में- भारत में पश्चिमी परतंत्रता को खारिज करने के लिए यह आवश्यक था कि हम एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल को प्रस्तुत करें और ऐसा करने के लिए गाँवों के पारंपरिक मॉडल को आधुनिक मूल्यों और संसाधनों के साथ सामने लाना आवश्यक था। गाँधी ने पश्चिम के नगरीय और औद्योगिक विकास के स्थान पर एक पारंपरिक विकल्प दिया। उन्होंने शहरों को एक समस्या के रूप में देखा था, खासकर यूरोपीय शैली में विकसित शहरों को। लॉर्ड एम्प्थिल को 1909 में एक लिखे पत्र में वे लिखते हैं-
मेरे लिए कलकत्ता और बॉम्बे जैसे नगरों का निर्माण दुख का विषय है न कि किसी प्रकार के हर्ष का।
महात्मा गाँधी
1921 में यंग इन्डिया में वे पुनः लिखते हैं- “हमारे नगर भारत नहीं हैं। भारत साढ़े सात लाख गाँवों में निवास करता है और नगर गाँवों पर ही निर्भर हैं…”।
तीसरा, इसकी कमियों को सुधारे जाने के संदर्भ में गाँधी स्वीकारते थे कि गाँवों में कुछ कमियां हैं, लेकिन उनका यह भी विश्वास था कि इन कमियों को सुधारा जा सकता है और एक आदर्श स्थिति लायी जा सकती है। इसके लिए उन्होंने ग्राम-स्वराज की प्रसिद्ध अवधारणा दी। ग्राम-स्वराज के बारे में वे लिखते हैं-
…यह आत्मनिर्भर और गणतांत्रिक स्वरूप का होगा… इस तरह सभी गाँवों की पहली प्राथमिकता होगी अपने लोगों के लिए अनाज पैदा करना और पहनने के कपड़े के लिए जूट उपजाना… और अगर अतिरिक्त भूमि होगी तो उसमे व्यावसायिक खेती भी की जा सकती है… उसमें आज की तरह की सोपानगत जातीय संरचना नहीं होगी और इसका शासन ग्राम-पंचायत द्वारा किया जाएगा जो हर साल वहां के एक निर्धारित न्यूनतम शिक्षा प्राप्त स्त्री-पुरुषों द्वारा चुना जाएगा।
उन्होंने आगे लिखा- “मेरे लिए भारत गाँवों से ही प्रारम्भ होता है और गाँवों में ही समाप्त होता है।”
गाँधी के लिए गाँव एक भौगोलिक बसावट मात्र नहीं था, बल्कि यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पहचान के साथ ही साथ पश्चिम के आधुनिक विकास मॉडल का एक मजबूत विकल्प भी था। अगर इन सन्दर्भों में वर्तमान सत्ता का मूल्यांकन करें तो ऐसा लगता है कि गाँधी की आर्थिकी का गला तो घोंटा ही जा रहा है, साथ ही यह अपने स्व-घोषित “सांस्कृतिक-विमर्शों” के एजेंडों के साथ भी एक छलावा ही कर रही है।
भाजपा की वर्तमान सत्ता के लिए संस्कृति का विमर्श सबसे महत्त्व का रहा है और इसके सत्ता में आगमन को भी “सांस्कृतिक-पुनरुत्थान” के रूप में ही देखा और प्रचारित किया गया, लेकिन इस ‘न्यू-इंडिया’ पर एक दृष्टि गाँधी के उपरोक्त ग्राम-दर्शन के संदर्भ में करने का प्रयास करते हैं और पाते हैं कि सांस्कृतिक-पुनर्जागरण का उनका यह दावा कितना निराधार और खोखला है। जैसा कि गाँधी ने ग्राम-स्वराज की अपनी संकल्पना में एक आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक गाँव की परिकल्पना की है, वह वर्तमान सरकार की नीतियों में एकदम ही लचर और लुंज-पुंज रूप में दीखता है या साफ-साफ कहें तो यह एकदम विरुद्ध ही दिखता है। जैसे, गाँव की आत्मनिर्भरता के लिए कृषि की आत्मनिर्भरता और इसका निर्बाध विकास आवश्यक है। भारतीय पारम्परिक कृषि भारतीय सभ्यता और संस्कृति की एक अहम् कड़ी है, लेकिन नये कृषि बिल के बाद यह साफ-साफ दीखता है कि सरकार की प्राथमिकता पूंजी निर्माण है न कि गाँव को उसकी पारम्परिकता के साथ बचाये-बनाये रखने की।
भारतीय कृषि के साथ भारतीय अस्मिता जुड़ी है, यह सांस्कृतिक समुच्चय की एक इकाई है। उदाहरण के लिए, कृषि के साथ भारत के अनगिनत त्यौहार और लोक-उत्सव जुड़े हैं, लेकिन कॉर्पोरेट के चंगुल में जाने पर कृषि के साथ-साथ इन सांस्कृतिक उत्सवों का भी अंत हो जाएगा। गाँव की अगर कृषिगत संरचना को समाप्त कर दें तो इसके साथ ही इसकी नातेदारी, सामाजिक संरचना, आर्थिक, राजनीतिक तंत्र आदि सबका विनाश स्वतः हो जाता है और निकट भविष्य में इसके क्षरण में तेजी से वृद्धि ही होगी।
पारंपरिक भारतीय कृषि जीवन-निर्वाह की कृषि थी, इसका उद्देश्य व्यावसायिक कम ही था। मुख्य रूप से औपनिवेशिक काल में इसका स्वरूप व्यवसायिक हुआ और जिसके दुष्परिणाम भी अनगिनत अकाल आदि के रूप में सामने आये थे। सरकार कृषि के पारंपरिक स्वरूप को जीवित करने के बजाय इसे एक अतिरिक्त आय का स्रोत बनाना चाहती है और इसके लिए इन्होंने जिन नीतियों का अनुसरण किया है वह नव-औपनिवेशिक ही है।
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सतही तौर पर देखें तो सरकार गाँवों के लिए कुछ कार्य कर रही है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन अपनी मूल नीतियों में यह नगर केन्द्रित और गाँव विरोधी ही है। स्मार्ट-सिटीज़ परियोजना क्या गाँधी के सपनों का भारत हो सकती है? क्या यह समावेशी और संतुलित समाज का निर्माण कर सकती है? विशेषज्ञों का मानना है कि यह समाधान से अधिक मानवीय और पर्यावरणीय त्रासदियों का कारण बनेगा। गाँवों के संसाधनों पर ही नगरों का साम्राज्य विकसित हुआ है और आज भी हो रहा है, ऐसे में इन स्मार्ट-सिटीज़ के आसपास एक बदसूरत ग्रामीण और जीर्ण-शीर्ण परिदृश्य का भी निर्माण होगा।
सरकार दावा करती है कि यह भारतीय सभ्यता के प्राचीन गौरव को लौटा रही है, इसने औपनिवेशिक दासता से स्वयं को मुक्त कर लिया है, इसने भारतीय अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान की नींव रखी है, लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है क्योंकि इसने विकास के उसी औपनिवेशिक मॉडल को अपना लक्ष्य बना रखा है जिसने इसे सदियों तक दासता में रखा। सरकार अर्थतंत्र का कोई स्वदेशी विकल्प तैयार करने में आज तक असफल ही रही है, सिवाय योजनाओं और स्थानों के नाम बदलने के। नव-उदार होते अर्थतंत्र के वैश्विक-बाजारू मॉडल में शामिल हो जाना और वैश्विक पूंजी की आंधी के सामने घुटने टेक देना कोई आर्थिक मॉडल नहीं है, बल्कि यह नीतिगत समर्पण का सर्वोच्च मॉडल है जहां सब कुछ आवारा पूंजी के इशारे पर ही तय होगा। शायद यही ‘न्यू-इंडिया’ भी है।
डॉ. केयूर पाठक लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, पंजाब में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं