बात बोलेगी: बिजली आ गयी है, लेकिन अर्द्ध-सत्य का अंधेरा कायम है!


बिजली का संकट बिना कुछ किये ही टल गया। पूरा देश, भर उम्मीद था कि अब होगा अंधेरा और वो भी अनिश्चितकालीन। कोयला खत्म। आपूर्ति ठप। प्लांट बंद। खबरें शुरू। बहसें चालू। मंत्री और मंत्रालय सक्रिय। राज्य सरकारों व केंद्र सरकार के बीच सच-झूठ की चर्चाएं। आरोप-प्रत्यारोप के दौर। और अंत में निष्कर्ष- अंधेरे में होगा देश, दीवाली में दीये का सहारा, मैं नागिन तू सँपेरा जैसी तुकबंदी के साथ ‘उनकी’ मीडिया हाजिर।

अब कोयला अपनी जगह है। आपूर्ति होने लगी है। प्लांट चालू हैं। खबरें बंद हैं। बहसें हैं लेकिन कहीं और की। मंत्रालय और मंत्री यथास्थिति को प्राप्त हुए हैं। सच और झूठ अपने-अपने हिस्से लिए राज्य और केंद्र में बैठे हैं। बिजली जल रही है, लेकिन अंधेरा कायम है। यह अंधेरा है जिसे बिजली के उजाले में देखा नहीं जा सकता।  

इन खबरों, खबरों के खंडन-मंडन और विखंडन को बीते एक पखवाड़े से ज़्यादा बीत चुका है। इस बीच कुछ पुख्ता खबरें आयीं कि अडानी को मध्य प्रदेश सरकार की बिजली वितरण कंपनी मिल गयी। इस बीच 4 अक्टूबर से छतीसगढ़ में शुरू हुई हसदेव अरण्य बचाने की पदयात्रा दस दिनों बाद रायपुर पहुँच गयी। राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री तक ने मान लिया कि हसदेव अरण्य को बचाया जाएगा, हालांकि हसदेव अरण्य में अडानी को मिलने जा रही कोयले की खदानों और उसके खिलाफ सम्पन्न हुई इस पदयात्रा और कोयले की कमी की खबरों के बीच सीधा कोई संबंध नहीं है लेकिन उतना तो है ही जितना कृषि क़ानूनों और अडानी के निर्मित हो चुके गोदामों के बीच है; उतना तो है ही जितना ढाई सौ रुपए लीटर बिक रहे सरसों के तेल और कृषि क़ानूनों के बीच है; और कम से कम उतना तो है ही जितना पुलवामा में मारे गए देश के 44 जवानों की शहादत और बम्पर बहुमत से चुनाव जीती भाजपा के बीच है।

दो घटनाओं के बीच संबंध को देखना एक राजनैतिक कार्यवाही है और उनके बीच संबंध को पैदा करना एक राजनैतिक कला। देश के रक्षा मंत्री ने पिछले सप्ताह बिना टिकट के इस कला की नुमाइश की। गांधी के कहने पर सावरकर ने माफी मांगने का मामला वैसे तो दो व्यक्तियों के होने के बीच एक संबंध को स्थापित कर देने जैसा ही मामला था, लेकिन इसे तूल पकड़वाया गया ताकि जनता का ध्यान जो लंबे समय से अपने स्थान पर नहीं है उसे फिर कहीं से कहीं पहुंचा दिया जाये। थोड़ा और गौर से देखा जाय तो सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगने के लिए क्या किसी से राय लेना या अनुमति लेना ज़रूरी समझा भी होगा? तब भी यह एक नितांत निजी मामला था। अब चूंकि मौजूदा सत्ता की पार्टी का संबंध उसी एक व्यक्ति से है जिसके नाम कम से कम जेल जाने का रिकॉर्ड है तो उसका नख-शिख इस पार्टी की थाती है और जो है बस यही है। भला है बुरा है जैसा भी है मेरा… मेरा देवता है!

फिर भी संबंध बैठाने की यह कला ऑटो से हवाई अड्डे तक पहुँचने की एक कोशिश के तौर पर कामयाब रही, पर कला की भी तो सीमा है। वह लाख चाहकर भी वास्तविक नहीं हो पाती और हवाई अड्डे तक पहुँच चुका झूठ पूरी यात्रा से वंचित रह जाता है। झूठ को सच के साथ मिला देने से बनता है आधा सच और आधा झूठ। इस मामले को ऐसे भी देखा जाय कि जहां राजनाथ ने यह स्थापित किया कि सावरकर ने माफी मांगी थी, वहीं यह भी कहा कि उन्‍होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें ऐसा करने के लिए गांधी ने कहा था। सावरकर ने माफी मांगी यह सच है और गांधी ने ऐसा करने को कहा यह झूठ है। जब ये दोनों एकमेक हो गए तब जो परिणाम आए वो ये कि या तो दोनों बातें झूठी हैं या दोनों ही बातें सच हैं या दोनों ही आधा सच और आधा झूठ है। इस तरह से एक अर्द्ध-सत्य पैदा हो गया।

अर्द्ध-सत्य, झूठ से ज़्यादा चतुर और चालाक होता है। इसलिए राजनैतिक कला के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है। उसने आधे भरे पानी के गिलास के जगत-स्वीकृत मुहावरे में अपना पाला भारी कर लिया और दूसरों को अपने भारी पाले को झुकाने के लिए आमंत्रित कर लिया। इस बीच हुआ कुछ खास नहीं, चीन एक बार उत्तराखंड में टहल गया, कश्मीर में एक सप्ताह के अंदर लगभग 12 लोगों को निशाना बनाकर मार दिया गया, पेट्रोल-डीजल ने सैकड़ा पार कर लिया और लखीमपुर में गाड़ियों से इन्सानों को कुचलने का जो सत्ताहनकी प्रयोग शुरू हुआ था वो अंबाला से होते हुए छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी पहुँच गया। उत्तर प्रदेश में हमेशा की भांति पुलिस ने बेखौफ रवैया अपनाते हुए मोहब्बत की नगरी आगरा में एक सफाई कर्मचारी की हिरासत में हत्या कर दी।

कला का कोई सीधा उत्पाद नहीं होता। यह प्रेक्षक पर निर्भर करता है। प्रेक्षक इस देश में एक सौ चालीस करोड़ हैं। सबने अपने-अपने ढंग से देखा और अपना-अपना उत्पाद रच लिया। देश कला में डूब गया और राजनैतिक कार्यवाहियों के रूप में दो घटनाओं के बीच संबंध स्थापित करने में माहिर लोगों ने अपनी ऊर्जा झूठ को अर्द्ध-सत्य में बदलवाने में लगा दी। इस ऊर्जा के ताप से कुछ हासिल हुआ हो या नहीं, लेकिन सरकार इससे तटस्थ रहते हुए जन्म के साथ ही नागरिकता को जोड़ देने को आतुर हो गयी। पकने में कच्ची रह गयी जलेबी की एक रेसिपीनुमा खबर इंडियन एक्स्प्रेस ने बाहर ला दी जिसमें पर्यावरण, जन्म प्रमाणपत्र से नागरिकता को जोड़ने, गरीबी उन्मूलन, नीति आयोग आदि इत्यादि जैसी भारी-भरकम प्रशासनिक और राजनैतिक शब्दावलियों से सज्जित इस खबर से देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। जैसे पैंडोरा पेपर्स से! संभव है कि इंडियन एक्स्प्रेस ने पैंडोरा पेपर्स की खबरों को मिले बेहद रूखे रिसपॉन्स से यह अधपकी खबर लायी हो लेकिन इससे यही साबित हुआ कि इस प्राचीन सभ्यता के देश में भ्रष्टाचार या कर की चोरी अब कोई मुद्दा नहीं रहा।

सब जानते ही हैं कि जो बड़े हैं वे कैसे बड़े हैं, जो अमीर हैं वो कैसे अमीर बने हैं। इसमें पैंडोरा पेपर्स के उद्घाटन ने क्या नया बता दिया? क्या लोग नहीं जानते कि अनिल अंबानी यूं ही दिवालिया हो गया या धर्म के इस देश में क्रिकेट का भगवान शुरू से ही बिना ईमान का ईश्वर रहा है। किसे नहीं पता कि बेतहाशा बढ़ती अमीरी मेहनत का हासिल नहीं बल्कि बेईमानी का फल है। हाँ, कोई और देश-काल होता तो शायद इन मामलों के लिए तैनात कोई संस्था अपने पंख फड़ाफड़ा लेती, या देश के माननीय जो बातें प्राय: सिविल सोसायटी के बुलावे पर कह जाते हैं वे यहां रस्मी तौर पर कहने की ज़हमत उठा लेते। इससे ज़्यादा किसी भी देश-काल में नहीं होना था।  

ध्यान जहां दिया गया वो मसला ऐसे तो अर्द्ध-सत्य गढ़ने का है, लेकिन यह इतना पारदर्शी है कि इसकी एक-एक किरचें साफ शफ़्फ़ाक दीखती हैं। फिर भी इस पारदर्शी काँच के पार बहुत कुछ ऐसा भी दिखता है जो इस ढाले गए सत्य को बेपरदा करता है। निहंग अपने ग्रंथ सर्वलोक को लेकर कितने संवेदनशील हैं इसका अनुमान शायद इस बात से न लगाया जा सके कि नरेंद्र मोदी देश के लिए कितने संवेदनशील हैं क्योंकि दोनों ही सांसरिक राग-विराग से मुक्त हैं। फिर भी निहंग बुरा मान सकते हैं। बेअदबी उन्हें रास नहीं आती।

संवेदनशीलता का नया बैरोमीटर आजकल बेअदबी ही है। एक वक़्त था जब इस बेअदबी से लोग अपनी संवेदनशीलता का इम्तिहान दिया करते थे। आज सबूत देते हैं। निहंगों ने भी सबूत दे दिया और कर दिया कत्ल। जितनी ज़्यादा बेरहमी उतनी दर्दनाक मौत। बेरहमी का आकलन कर देने वालों के हाथ। लेकिन इस साफ-शफ़्फ़ाक दीखते मामले में दृश्य में कहीं दूर एक फोटो भी दीखती है जिसमें वो निहंग जिसने बेअदबी की स्थिति में अपनी संवेदनशीलता का सबूत दे दिया, वो देश के कृषि-कल्याण मंत्री के साथ खड़ा है

एक फोटो, मात्र एक फोटो कैसे फिजा बदल सकती है इसका बेइंतिहाई नुमाइश इस मामले में हुई। निहंगों के बिना, सरदारों के बिना, किसानों और किसान आंदोलन को बदनाम किये बिना देश के मीडिया को अपना टाइम पास करने की नौबत आ गयी।

निहंग हैं तो धर्म की रक्षा के लिए चुने गए योद्धा हैं। योद्धाओं का सम्मान वैसे ही हुआ जैसे रघुकुल रीत के अनुसार चला आया है। अँग्रेजी में यह लिंचिंग थी। मामला रफ जस्टिस का था। निहंग यहाँ क्रिमिनल थे लेकिन यह भारत वर्ष है और इसलिए ये योद्धा हैं। क्रिमिनल यहाँ वो बेअदब इंसान है जिसने बेअदबी की। वो यहाँ पवित्र हैं जिन्होंने उसे दो गज़ ज़मीन नहीं दी थी। उसके धर्म के मुताबिक उसका अंतिम संस्कार नहीं होने दिया, हालांकि वो बलिदानी है। उसने संभव है किसी बड़े लालच में ही सही, अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। निहंगों की धर्म की रक्षा उसने अपने प्राणों की आहुति देकर की। वह सत्ता जनित खेल में प्राणों की बाज़ी हार गया।

लेकिन जो हार गया वो ओझल हो गया। जो बच गया, जो जीत गया वो हर जगह छा गया। ओझल जो नहीं हुए उनके सत्यों को झूठों से मिला दिया और एक नया झूठा सच और नया सच्चा झूठ बन गया। यह राजनैतिक कला है। अगर आँखों को आईनाखाना बना लें तो यहीं कहीं राजनैतिक कार्यवाही भी है। है न?



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